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चना एक ऐसा खाद्दान्न है जो देश के हर प्रांत के लोग किसी न किसी रुप में इसका सेवन करते हैं। आयुर्वेद में भी चना के पौष्टिकता के आधार पर ही इसको बीमारियों के लिए औषधि के रुप में प्रयोग किया जाता है। चना खाने से न सिर्फ ऊर्जा मिलती है बल्कि वजन, कोलेस्ट्रॉल, डायबिटीज नियंत्रण में होने के साथ-साथ सिर दर्द, खांसी, हिचकी, उल्टी जैसे बीमारियों के लिए भी फायदेमंद साबित होता है।
चने अंकुरित हो या काबुली चना हो या चने का आटा हो सभी रुपों में चना उपचारात्मक तौर पर ही इस्तेमाल किया जाता है। काला चना हो या भूरा या हरा चना हर किस्म के चने का अपना अलग ही स्वास्थ्यवर्द्धक गुण होता है। चलिये चने के बारे में आगे विस्तार से जानते हैं।
चने का प्रयोग मुख्यतया साग के रुप में किया जाता है। चने की दो प्रजातियां होती हैं। 1. चना तथा 2. काबुली चना। यह 30-50 सेमी ऊँचा, सीधा अथवा फैला हुआ, अनेक शाखायुक्त, चिपचिपा, शाकीय पौधा होता है। इसके पत्ते संयुक्त, 2.5-5 सेमी लम्बे, 10-12 पत्रकयुक्त, गोल तथा कंगूरेदार, ग्रन्थिल रोमों वाला होता हैं। इसके फूल सफेद, लाल, गुलाबी सफेद अथवा नीले रंग के और छोटे होते हैं। इसकी फली फूली हुई, गोलाकार, अण्डाकार, लगभग 1-1.5 सेमी लम्बी तथा शीर्ष पर नुकीली होती है। प्रत्येक फली में 1-2, गोल, चिकने, नोकदार, 5-10 मिमी व्यास या डाइमीटर, सिकुड़नदार, भूरे, हरे, सफेद रंग के बीज होते हैं। पकने पर यह काले या भूरे रंग के हो जाते हैं। सितम्बर से मार्च तक तथा फलकाल अप्रैल से जून तक होता है।
आयुर्वेदिक दृष्टि से चना थोड़ा कड़वा, मधुर, शीत, लघु, रूखा, कफपित्त कम करने वाला, शक्ति बढ़ाने वाला, रुचिकारक, तथा घी के साथ सेवन करने से त्रिदोष कम करने वाला होता है। यह बुखार, कुष्ठ, प्रतिश्याय (Coryza), प्रमेह या डायबिटीज, मेद या मोटापा कम करने में सहायक होता है।
कच्चा चना ठंडा, छोटा, अत्यन्त कोमल, वातकारक, मल रोकने वाला, रुचिकारक, जलन, प्यास, अश्मरी या पथरी में फायदेमंद होता है। काला चना शीत, मधुर, बलकारक, रसायन, श्वास, कास तथा पित्तातिसार नाशक होता है। काबुली चना गुरु, शीत, मधुर, अत्यन्त रुचिकारक , वातकारक, पित्तशामक तथा बलवर्धक होता है।
चने का साग कषाय, अम्लिय, मल रोकने वाला, रुचिजनक, कफ कम करने वाला, कठिनता से पचने वाला, विष्टम्भी, पित्तशामक, दन्त का सूजन कम करने में सहायक-नाशक, कफवातशामक तथा देर से पचने वाला होता है।
भुने हुए चने गर्म, रुचिकारी, लघु, शक्ति बढ़ाने वाला, शुक्राणु बढ़ाने वाला, वात नाशक होते हैं।
चना का वानास्पतिक नाम Cicer arietinum Linn. (साइसर ऐरीटिनम) Syn-Cicer album Hort है। चना Fabaceae (फैबेसी) कुल का है। चने को अंग्रेजी में Gram (ग्राम) कहते हैं लेकिन भारत के अन्य प्रांतों में भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे-
Chana in-
Sanskrit-चणक, हरिमन्थ, सकलप्रिय, वाजिभक्ष्य;
Hindi-चना, रहिला, बूट;
Urdu-बूट (Boot), चना (Chana);
Kannada-कडले (Kadale), केम्पू कडले (Kempu Kadale);
Gujrati-चण्या (Chanya), चणा (Chana);
Tamil-कडेलै (Kadalai);
Telegu-सनुगलू (Sanugalu), हरिमन्थ (Harimanth);
Bengali-छोला (Chola), बूट (Boot), बूटकलाई (Butkalai);
Nepali-चना (Chana);
Panjabi-छोले (Chole), चना (Chana);
Marathi-हरभरा (Harbhara), चणें (Chane);
Malayalam–कतला (Katala)।
English-बेंगाल ग्राम (Bengal gram), चिक पी (Chick pea);
Arbi-जुमेज (Jumez), हिम्मास (Himmas);
Persian-नखुद (Nakhud)।
अगर आपको काम के तनाव और भागदौड़ भरी जिंदगी के वजह से सिरदर्द की शिकायत रहती है तो चना का घरेलू उपाय बहुत लाभकारी सिद्ध होगा। चनों को भूनकर, पोटली बनाकर, सूंघने से सिर का दर्द कम हो जाता है।
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अगर मौसम के बदलाव के कारण सूखी खांसी से परेशान है और कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है तो बांस से इसका इलाज किया जा सकता है।
रात को सोते समय थोड़ा भुना चना और गुड़ खा लें; इससे खांसी में लाभ होता है। इसके अलावा रात में सोते समय थोड़ा भूना चना गर्म दूध के साथ पीने से श्वासनली के संबंधी रोगों से छुटकारा मिलता है।
चने की भूसी को हुक्के में रखकर उसकी धूम का सेवन करने से हिचकी बंद होती है।
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अगर मसालेदार खाना खाने या किसी बीमारी के साइड इफेक्ट के वजह से उल्टी हो रही है तो चने का सेवन इस तरह से करने पर फायदा मिलता है। चने को छह गुने जल में भिगोकर दूसरे दिन सुबह उसका पानी छानकर 10-20 मिली मात्रा में पीने से पैत्तिक-छर्दि (उल्टी) से राहत मिलती है।
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अक्सर मसालेदार खाना खाने या असमय खाना खाने से पेट में गैस हो जाने पर पेट दर्द की समस्या होने लगती है। चने को आग में भून कर खाने से क्रूरकोष्ठ (जिनको कठिनता से मल निकलता है) से छुटकारा मिलता है जिससे पेट दर्द कम होता है।
परवल के पत्तों से बने जूस के साथ, चने से बने सतू् का सेवन करने से अन्नद्रवशूल या पेप्टिक अल्सर में लाभ होता है।
पौधे से निकलने वाले अम्लीय निर्यास या निचोड़ का सेवन करने से भूख न लगना, अतिसार तथा पेचिश आदि रोगों में लाभ होता है।
आजकल की भाग-दौड़ और तनाव भरी जिंदगी ऐसी हो गई है कि न खाने का नियम और न ही सोने का। फल ये होता है कि लोग मधुमेह या डायबिटीज का शिकार होते जा रहे हैं। 2-4 ग्राम पत्ते के चूर्ण को खाने से मधुमेह में लाभ होता है।
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आजकल के प्रदूषित खाद्द, पैकेज़्ड फूड और असंतुलित आहार के सेवन का फल पथरी की समस्या है। चन किडनी में पत्थर के कारण जो दर्द होता है उससे राहत दिलाने में मदद करता है। चने का शीत-कषाय बनाकर 20-30 मिली मात्रा में पिलाने से मूत्र मार्ग की पथरी के कारण जो दर्द होता है उससे आराम दिलाता है।
आजकल अर्थराइटिस की समस्या उम्र देखकर नहीं होती है। दिन भर एसी में रहने के कारण या बैठकर ज्यादा काम करने के कारण किसी भी उम्र में इस बीमारी का शिकार होने लगे हैं। चने के पत्तों को उबालकर पीसकर जोड़ों में लगाने से जोड़ों का दर्द कम होता है।
अक्सर उम्र बढ़ने के साथ जोड़ों में दर्द होने की परेशानी शुरू हो जाती है लेकिन चने का सेवन करने से इससे आराम मिलता है। चने के आटे की रोटी बनाकर उसमें घी लगाकर खाने से जोड़ों का दर्द का कम होता है।
सफेद दाग एक प्रकार का चर्मरोग होता है। चने के 2-4 ग्राम सूक्ष्म चूर्ण में 1 ग्राम बाकुची तथा 500 मिग्रा नीम चूर्ण मिलाकर सेवन करने से सफेद दाग में लाभ हाता है।
चने के आटे का उबटन बनाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की कांति बढ़ती है तथा मुंहासे व झाँई मिटती हैं।
20-40 मिली चने के जूस का सेवन करने से बुखार में होने वाली जलन से राहत मिलती है। समान मात्रा में भांग, भुने चने तथा गुड़ के चूर्ण को मिलाकर सेवन करने से शीतज्वर (ठंड लगकर आने वाला) से छुटकारा मिलता है।
चनों को पानी में भिगोकर रातभर छोड़कर सुबह पानी को छानकर 15-20 मिली मात्रा में पिलाने से शारीरिक बल बढ़ता है। भूने चने तथा छीली हुई बादाम की गिरी दोनों को बराबर मात्रा में मिलाकर खाने से शारीरिक बल की वृद्धि होती है तथा वीर्य पुष्ट होता है।
आयुर्वेद में चने के बीज, पत्ता और पञ्चाङ्ग का प्रयोग औषधि के रुप में सबसे ज्यादा किया जाता है।
बीमारी के लिए चने के सेवन और इस्तेमाल का तरीका पहले ही बताया गया है। अगर आप किसी ख़ास बीमारी के इलाज के लिए चने का उपयोग कर रहे हैं तो आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह ज़रूर लें।
चने से बने बेसन का प्रयोग शीतपित्त (Urticaria), श्वित्र (leucoderma), मोटापा एवं अर्श (पाइल्स) में लेना वर्जित होता है। इसके बीजों का प्रयोग जॉन्डिस में लाभकारी होता है।
समस्त भारत में मुख्यत उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल एवं गुजरात में इसकी खेती की जाती है।
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