पटेर का नाम शायद आपने सुना होगा क्योंकि यह ज्यादातर नम जगहों पर उगती हैं। यह विशेषत: जलाशय में होने वाली एक ही जाति की वनौषधी हैं। आयुर्वेद में इसका प्रयोग कई बीमारियों के लिए किया जाता है। तो चलिये इस जाने-अनजाने वनौषधी के बारे में आगे विस्तार से जानते हैं-
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पटेर असल में नम स्थानों में तालाब के किनारे के भागों में पाया जाता है। श्रीमदभागवत् के अनुसार श्रापवश इस एरक से ही यदुंशियों का परस्पर में विनाश हुआ था। इसकी दो प्रजातियाँ होती हैं- 1. पटेर, 2. गुन्द्रा। गोंदपटेरा और एरका ये दोनों जलाशय में होने वाली एक ही जाति की वनौषधियाँ हैं। यहां तक कि दोनों को कहीं-कहीं एक ही मान लिया गया है, परन्तु यह दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। ये दोनों पौधे दलदली स्थानों पर बहुतायत से पाए जाते हैं तथा जहाँ यह उगते हैं वहाँ यह अपना विस्तार गन्ने के समान खूब बढ़ाते हैं। इसकी मूल कदली या केले के जड़ जैसी गाँठदार होती है। जड़ की गाँठ कड़ी भीतर से सफेद और बाहर से खाकी रंग के छिलकों से घिरी हुई होती है। इसकी गाँठ से अंकुर फूट कर नई झाड़ियां बना देती हैं। कई विद्वान एरक तथा गोंदपटेर को भद्रमोथा या नागरमोथा मानते हैं, परन्तु यह पौधे आपस में पूरी तरह से अलग होते हैं।
यह 1.8-3.6 मी ऊँचा, घासजातीय पौधा होता है। इसके पत्ते तृण या घास जैसे देखने में होते हैं, 1.2-1.8 मी लम्बे, 2.5-3.8 सेमी चौड़े, गहरे हरे रंग के होते हैं।
यह 1.5-3 मी ऊँचा, बहुवर्षायु, प्रकन्द या भूमि में जो तना होता है उससे युक्त होता है और साथ ही आरोही शाखाओं वाला जलीय पौधा होता है। इसके पत्ते सीधे, दो भागों में विभाजित, 3 मी लम्बे एवं 2-2.5 सेमी चौड़े होते हैं।
पटेर का वानास्पतिक नाम Typha elephantina Roxb. (टाइफा एलीफेन्टीना) Syn-Typha maresii Batt. होता है। इसका कुल Typhaceae (टाइफेसी) होता है और इसको अंग्रेजी में Elephant grass (एलिफैण्ट ग्रास) कहते हैं। चलिये अब जानते हैं कि पटेर और किन-किन नामों से जाना जाता है।
Sanskrit-एरका, शीरी, गुच्छमूला, गन्धमूलिका, शिवि;
Hindi-एरका, पटेरा, मोथीतृण;
Urdu-पटेरा (Patera);
Odia-होगला (Hogola);
Kashmiri-पिट्ज (Pitz), यीरा (Yira);
Kannada-अपु (Apu), जम्मूहुलू (Jambuhullu);
Marathi-रामबान (Rambana), एरका (Eraka);
Gujrati-घाबाजरीन (Ghabajarin);
Tamil-अन्नईक्कोरई (Anaikkorai), चम्बु (Chambu);
Telugu-जम्मूगद्दी (Jammugaddi);
Bengali-होगला (Hogla);
Punjabi-बोज (Boj), पटीरा (Patira)।
English-इण्डियन रीड मेस (Indian reed mace), कैट्स टेल (Cat’s tail)।
गुद्रा (Typha angustata) किन-किन नामों से जाना जाता है-
Sanskrit-गुन्द्र, गुंथा, पटेरक, हिन्दी-पटेरा, गोंदपटेरा, छोटा पटेर;
Kannada-मारिबला (Maribala), अनेचोण्डु (Anechondu);
Gujarti-घबजारीओ (Ghabjario), पारिओ (Pario);
Tamil-सम्बु (Sambu); तेलुगु-डब्बु-जम्मु (Dabbujammu), जम्बु (Jambu), जम्बुगाडडी (Jambugaddi);
Bengali-होगला (Hogla) काव (Kaw); पंजाबी-काइ (Kai), कुन्दर (Kundar), पाटेरा (Patera)
Marathi-पक्कानिस (Pankanis), पुन (Pun), जंगली बजरी (Jangli bajri)।
English-लैसर इण्डियन रीड-मेस (Lesser Indian reed-mace), कैट टेल (Cat tail), स्माल बुलरश (Small bulrush), लेसर बुलरस (Lesser bulrush)।
पटेर के फायदों के बारे में जानने से पहले उसके औषधीय गुणों के बारे में जान लेना बहुत जरूरी है। एरका मधुर, कड़वा, शीत, लघु, पित्तकफ से आराम दिलाने वाला, वात को बढ़ाने वाला, वृष्य (libido) को बढ़ाने वाला,आँख संबंधी समस्याओं में लाभकारी, मूत्र को बाहर निकालने वाला, स्पर्म संबंधी रोगों में लाभदायक होता है।
यह पेशाब करते वक्त दर्द, रूक-रूक कर पेशाब होना आदि बीमारियों, अश्मरी या पथरी, दाह या जलन तथा रक्तपित्त दोष को हरने वाला होता है।
इसका साग शीतल, सेक्स करने की इच्छा को बढ़ाने वाला तथा रक्त को शुद्ध करने में फायदेमंद होता है।
इसका प्रकन्द या भूमिगत तना आमजनित दस्त को रोकने और पूयमेह या गोनोरिया रोगों के इलाज में मददगार होता है।
इसका पके फल व्रण या घाव को ठीक करने में मददगार होते हैं।
प्रकन्द में स्तम्भक (Styptic) तथा मूत्रल गुण होते हैं।
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गुद्रा
प्रकृति से गुद्रा मधुर, कड़वा, शीत, पित्तशामक, मूत्रशोधक, शुक्रशोधक, रजोशोधक तथा मूत्र को शरीर से निकालने में मददगार होता है।
यह पेशाब संबंधी बीमारी , अश्मरी या पथरी, शर्करा या ब्लड ग्लूकोज, मूत्र करते वक्त दर्द, मूत्ररुजा तथा वात संबंधी रोगों में आराम दिलाने वाला होता है।
गुन्द्रा का प्रकन्द या भूमिगत तना प्रकृति से कषाय, मूत्रल, दस्त से आम निकलने पर उसको रोकने में सहायक तथा पूयमेह नाशक होता है।
वैसे तो पटेर का तना, फल, साग सब औषधि के रूप में काम करते हैं लेकिन यह कैसे और किन-किन रोगों में फायदेमंद होते हैं, इस बारे में जानकारी पूरी होनी चाहिए। चलिये आगे इस बारे में जानते हैं-
मूत्र संबंधी बीमारी में बहुत तरह की समस्याएं आती हैं, जैसे- मूत्र करते वक्त दर्द या जलन होना, मूत्र रुक-रुक कर आना, मूत्र कम होना आदि। पटेर इस बीमारी में बहुत ही लाभकारी साबित होता है। मूत्र रोग में लाभ पाने के लिए पटेर के पत्तों को पीसकर पेट के निचले भाग (Lower abdomen) पर लगाने से मूत्र-रोगों तथा मूत्रकृच्छ्र में लाभ होता है।
सुजाक एक तरह का यौन संक्रामक रोग होता है। एरका मूल का काढ़ा बनाकर, 10-20 मिली काढ़े में मिश्री मिलाकर पिलाने से सूजाक में लाभ होता है।
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आजकल किसी भी उम्र में गठिया की बीमारी हो जाती है, लेकिन पटेर का औषधीय गुण इस काम में लाभकारी होता है। प्रपौण्डरीक, मंजिष्ठा, दारुहल्दी, मुलेठी, एरका, लालचन्दन आदि द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर जल में डालकर बारीक पीसकर लेप करने से वात के कारण जो जलन, दर्द , घाव जैसा होना, लालिमा तथा सूजन होता है उससे जल्दी आराम मिलता है।
अगर कोई घाव या चोट जल्दी ठीक नहीं हो रहा है तो पटेर या एरका के फूलों को पीसकर घाव पर लगाने से घाव जल्दी भर जाता है।
एरका को जल में पकाकर काढ़ा बनाकर, छानकर ठंडा करके जल में मिलाकर स्नान करने से शीतपित्त में लाभ होता है।
मिश्री, मंजीठ, बेल मूल, पद्माख, मुलेठी, इन्द्रायण, कमल, दूर्वा, यवासा का जड़ , कुशमूल, काशमूल तथा एरका इन सबको पीसकर घी में मिलाकर लेप करने से जलन से आराम मिलता है।
पटेर के तरह ही गुद्रा के औषधीय गुण कई रोगों या विकारों के लिए फायदेमंद होते हैं-
गुद्रा प्रकन्द का काढ़ा बनाकर 10-20 मिली मात्रा में सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र त्याग में कठिनता), अश्मरी (पथरी) तथा मूत्रमार्ग से होने वाले रक्तस्राव में लाभ होता है।
गुन्द्रा की कणिश (Spike) को जलाकर उसकी भस्म बना लें, इस भस्म को व्रण या घाव पर लगाने से व्रण जल्दी भरता है।
गुन्द्रा प्रकन्द का काढ़ा बनाकर 10-20 मिली मात्रा में पीने से कुष्ठ तथा सूजन में लाभ होता है। इसके अलावा गुन्द्रा प्रकन्द का काढ़ा बनाकर व्रण, दाद, कुष्ठ आदि त्वचा विकारों को धोने से लाभ होता है।
आयुर्वेद के अनुसार पटेर का औषधीय गुण इसके इन भागों को प्रयोग करने पर सबसे ज्यादा मिलता है-
-पत्ता
-जड़ और
-फूल।
यदि आप किसी ख़ास बीमारी के घरेलू इलाज के लिए पटेर का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो बेहतर होगा कि किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह के अनुसार ही इसका उपयोग करें। चिकित्सक के सलाह के अनुसार 10-20 मिली काढ़ा ले सकते हैं।
भारत में यह जम्मू-कश्मीर, उत्तर पश्चिमी भारत से आसाम, दक्षिण की ओर नम स्थानों में तालाब के किनारे के भागों में पाया जाता है।
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