Categories: जड़ी बूटी

Indrayan: फायदे से भरपूर है इन्द्रायण – Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Citrullus colocynthis (Linn.) Schrad. (सिटुलस् कोलोसिन्थिस्)?

Syn-Cucumis colocynthis Linn.

कुल : Cucurbitaceae (कुकुरबिटेसी)

अंग्रेज़ी नाम : Colocynth (कोलोसिन्थ), Bitter apple (बिटर एपॅल)

संस्कृत-इन्द्रवारुणी, चित्रा, गवाक्षी, गवादनी, वारुणी; हिन्दी-इनारुन, इन्द्रायण, इन्द्रायन, इन्द्रारुन, गोरूम्ब; उर्दू-इद्रायण (Indrayan); कन्नड़-हामेक्के (Hamekke), तुम्तिकायी (Tumtikayi), पावामेक्केकायी (Pavamekkekayi); गुजराती-इन्द्रावणा (Indravana), इंद्रक (Indrak), त्रस (Tras); तमिल-पेयक्कूमुट्टी (Peykkumutti), वेरिकुमत्ती (Verikkummatti), पेदिकारिकौड (Paedikarikaud), तुम्बा (Tumba); तैलुगु-एतिपुच्छा (Etipuchchha), चित्तीपापरा (Chittipapara), वेरीपुच्चा (Veripuchchha), एटेपुच्चकायी (Etipuchhkayi); बंगाली-राखालशा (Rakhalsha) इद्रायण (Indrayan), मकहल (Makhal); नेपाली-इन्द्राणी (Indrani); पंजाबी-घोरुम्बा (Ghorumba), कौरतुम्बा (Kaurtumba); मराठी-इन्द्रावणा (Indravana), कडुवृन्दावन (Kaduvrindavana), इन्द्रफल (Indraphal); मलयालम-पेकोमुत्ती (Peykommutti)।

अरबी-औलकम (Aulqum), हंजल (Hanzal); फारसी-खरबुजअहेरुबाह (Kharpazaherubah), हिन्दुवानहेतल्ख (Hinduwanahetalkh)

परिचय

इन्द्रायण का प्रयोग भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीनकाल से किया जा रहा है। चरक व सुश्रुत-संहिता में इसका उल्लेख कई स्थानों पर प्राप्त होता है। इसके फल को मलबद्धता में तीक्ष्ण विरेचनार्थ प्रयोग किया जाता है। यह पैत्तिक विकार, ज्वर और पक्वाशय के कृमियों पर विशेष उपयोगी है। इसकी जड़ का प्रयोग जलोदर, कामला, आमवात एवं मूत्र सम्बन्धी व्याधियों पर विशेष लाभकारी माना गया है। इन्द्रायण की समस्त भारतवर्ष में, विशेषत बालुका मिश्रित भूमि में स्वयंजात वन्यज या कृषिजन्य बेलें पाई जाती हैं। इसकी तीन जातियां पाई जाती हैं :  1. छोटी इन्द्रायण, 2. बड़ी इन्द्रायण एवं 3. जंगली इन्द्रायण। हर प्रकार की इन्द्रायण में 50-100 तक फल लगते हैं।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

इन्द्रायण

इद्रायण तीव्र रेचक, कटु, तिक्त, उष्ण, लघु, तीक्ष्ण, सर, पित्तकफशामक, कामला, प्लीहारोग, उदररोग, श्वास-कास, कुष्ठ, गुल्म, गांठ, व्रण, प्रमेह, गंडमाला, विषरोग, मूढ़गर्भ, शुष्कगर्भ, गलगण्ड, आनाह, अपची, दुष्टोदर, पाण्डु, आमदाष, कृमि, अश्मरी, ज्वर तथा श्लीपद आदि व्याधियों में लाभप्रद है। इसके मूल एवं पत्र तिक्त होते हैं। इसका फल तिक्त, शोथघ्न, प्रतिविष, विरेचक, कृमिनिसारक, रक्तशोधक, कफनिसारक, मधुमेहनाशक, ज्वरघ्न एवं गर्भस्रावकर होता है।

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जंगली इद्रायण

जंगली इन्द्रायण कटु, तिक्त, वातशामक, पित्तकारक, दीपन तथा रुचिकारक होती है। इसकी मूल वामक एवं विरेचक होती है। इसकी फलमज्जा तिक्त, कृमिनाशक, ज्वरघ्न, कफनिसारक, यकृत् के लिए बलकारक, अग्निदीपक एवं विरेचक होती है। इसके बीज शीतल व स्भंक होते हैं।

लाल इद्रायण (बड़ी इद्रायण)

यह कटु, तिक्त, उष्ण, लघु, कफपित्तशामक तथा सारक है। इसका प्रयोग कण्ठरोग, कामला, प्लीहारोग, उदररोग, श्वास, कास, कुष्ठ, गुल्म, ग्रन्थि, व्रण, प्रमेह, मूढगर्भ, आमदोष तथा श्लीपद आदि की चिकित्सा में किया जाता है।

औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि

  1. केश कृष्णीकरणार्थ-इन्द्रायण बीज तैल को सिर पर लगाने से अथवा 3-5 ग्राम इन्द्रायण बीज चूर्ण को गाय के दूध के साथ सेवन करने से केश काले होते हैं।
  2. शिर शूल-इन्द्रायणफल स्वरस या मूल छाल को तिल के तैल में उबालकर, तैल को मस्तक पर मलने से मस्तक पीड़ा या बार-बार होने वाले शिरशूल का शमन होता है।
  3. नासाव्रण-इन्द्रायण फल से सिद्ध नारियल तैल को लगाने से नाक के व्रण का शीघ्र रोपण होता है।
  4. बाधिर्य-इन्द्रायण के पके हुए फल को या उसके छिलके को तैल में उबालकर, छानकर 2-4 बूँद कान में टपकाने से बाधिर्य (बहरेपन) में लाभप्रद होता है।
  5. लाल इन्द्रायण के फल को पीसकर नारियल तैल के साथ गर्म करके कर्णपाली व्रण (कान का घाव) पर लगाने से व्रण का रोपण होता है।
  6. दंतकृमि-इन्द्रायण के पके हुए फल की धूनी (दाँतों में) देने से दाँतों के कीड़े मर जाते हैं।
  7. मुखरोग-इन्द्रायण तथा पटोल आदि द्रव्यों से युक्त पटोलादि क्वाथ का गरारा (कवल) करने से अथवा 10-20 मिली पटोलादि क्वाथ में मधु मिलाकर सेवन करने से मुखरोगों में लाभ होता है।
  8. कास-इन्द्रायण के फल में छेद करके उसमें काली मिर्च भरकर छेद बंद कर धूप में सूखने के लिए रख दें या आग के पास भूभल (गर्म राख या बालू) में कुछ दिन तक पड़ा रहने दें, फिर फल से काली मिर्च निकालकर फल फैक दे। काली मिर्च के 5 दाने प्रतिदिन मधु तथा पीपल के साथ सेवन करने से खाँसी में लाभ होता है।
  9. श्वास-इन्द्रायण फल को सुखाकर चिलम में रखकर पीने से श्वास में लाभ होता है।
  10. उदर-विकार-इन्द्रायण का मुरब्बा खाने से पेट के विकारों में लाभ होता है।
  11. इन्द्रायण के फल में सेंधानमक और अजवायन भर कर धूप में सुखा लें, अजवायन को उष्ण जल के साथ सेवन करने से विसूचिका तथा उदरशूल का शमन होता है।
  12. विसूचिका-इन्द्रायण के ताजे फल के 5 ग्राम गूदे को उष्ण जल के साथ या 2-5 ग्राम सूखे गूदे को अजवायन के साथ खाने से विसूचका में लाभ होता है।
  13. आंत्रकृमि-इन्द्रायण फल के गूदे को पीसकर गर्म करके पेट पर बांधने से आंत के कीड़े मर जाते हैं।
  14. विरेचनार्थ-इन्द्रायण की फल मज्जा को पानी में उबालकर तत्पश्चात् छानकर गाढ़ा करके उसकी छोटी-छोटी चने के बराबर गोलियां बना लें, 1-2 गोली को ठंडे दूध के साथ लेने से प्रातकाल विरेचन हो जाता है।
  15. जलोदर-इन्द्रायण फल के गूदे में बकरी का दूध मिलाकर पूरी रात रखा रहने दें। प्रातकाल इस दूध में थोड़ी-सी खाण्ड मिलाकर रोगी को पिला दें। कुछ दिन तक पिलाने से जलोदर में लाभ होता है।
  16. मूत्रकृच्छ्र-इन्द्रायण की जड़ को पानी के साथ पीस-छानकर, 5-10 मिली की मात्रा में आवश्यकतानुसार पिलाने से मूत्रकृच्छ्र (मूत्र की रुकावट) में लाभ होता है।
  17. लाल इन्द्रायण की जड़, हल्दी, हरड़ की छाल, बहेड़ा और आंवला, सभी को मिलाकर क्वाथ बना लें। 10-20 मिली क्वाथ में शहद मिलाकर सुबह-शाम पीने से मूत्रकृच्छ्र में लाभ होता है।
  18. स्तन-शोथ-इन्द्रायण मूल को पीसकर स्तनों पर लेप करने से स्तनशोथ का शमन होता है।
  19. मासिकविकार-इन्द्रवारुणी के बीज 3 ग्राम तथा 5 नग काली मिर्च, दोनों को पीसकर 200 मिली जल में क्वाथ करें, जब चौथाई जल शेष रह जाए तब छानकर पिलाने से मासिकविकारों में लाभ होता है।
  20. इन्द्रायण मूल को पीसकर योनि में लेप करने से योनिशूल का शमन होता है।
  21. उपदंश-100 ग्राम इन्द्रायण की जड़ को 500 मिली एरंड तैल में पकाकर रख लें। 15 मिली तैल को गाय के दूध के साथ दिन में दो बार पिलाने से उपदंश आदि रोगों में लाभ होता हैं। तैल को शीशी में भरकर सुरक्षित रख लें और प्रयोग करें।
  22. इन्द्रायण मूल टुकड़ों को पांच गुने पानी में उबालें, जब तीन हिस्से पानी शेष रह जाए तब छानकर उसमें बराबर मात्रा में बूरा मिलाकर शर्बत बनाकर पिलाने से उपदंश और वातज वेदना का शमन होता है।
  23. सुख प्रसवार्थ-इन्द्रायण की जड़ों को पीसकर गाय के घी में मिलाकर, भग (योनिच्छद) में लगाने से सुखपूर्व प्रसव हो जाता है।
  24. इन्द्रायण फल-स्वरस में रुई का फोहा भिगोकर योनि में रखने से सुखपूर्वक प्रसव होता है।
  25. इन्द्रायण की जडों को पीसकर प्रसूता त्री के बढ़े हुए पेट पर लेप करने से पेट अपनी जगह पर आ जाता है।
  26. सूजाक-त्रिफला, हल्दी और लाल इन्द्रायण की जड़ तीनों का क्वाथ बनाकर 30 मिली की मात्रा में दिन में दो बार पीने से सूजाक में लाभ होता है।
  27. संधिगत वायु-इन्द्रायण की जड़ और पीपल के समभाग चूर्ण को गुड़ में मिलाकर 2-4 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से संधिगत वात का शमन होता है।
  28. गठिया-इन्द्रायण की 100 ग्राम फलमज्जा में 10 ग्राम हल्दी तथा  सेंधानमक डालकर बारीक पीस लें। जब पानी सूख जाए तो चौथाई-चौथाई ग्राम (250 मिग्रा) की गोलियां बना लें। एक-एक गोली सुबह-शाम दूध के साथ देने से गठिया से जकड़ा हुआ रोगी जिसको ज्यादा से ज्यादा सूजन तथा दर्द हो, थोड़े ही दिनों में अच्छा होकर चलने-फिरने लगता है।
  29. फोड़े- सर्दी-गर्मी से नाक में फोड़े हो जाते हैं, जिनमें से सड़ा हुआ पीप निकलता हो, उन पर इंद्रायण फल को पीसकर नारियल तैल के साथ मिलाकर लगाने से लाभ होता है।
  30. विद्रधि-लाल इन्द्रायण और बड़ी इन्द्रायण की जड़ दोनों को बराबर पीसकर लेप बनाकर विद्रधि पर लगाने से लाभ होता है।
  31. विचर्चिका-इन्द्रायण फल कल्क का लेप करने से जीर्ण तथा तीव्र विचर्चिका (छाजन) में लाभ होता है।
  32. अपस्मार-इन्द्रायण मूल चूर्ण का नस्य (दिन में तीन बार) देने से अपस्मार में लाभ होता है।
  33. सूजन-इन्द्रायण की जड़ों को सिरके में पीसकर, गर्म करके, शोथयुक्त स्थान पर लगाने से शोथ का शमन होता है।
  34. प्लेग-इन्द्रायण मूल की गांठ को (इसकी जड़ में गांठे होती हैं) (यथासंभव सबसे निचली या सातवें नम्बर की लें), ठंडे पानी से घिसकर प्लेग की गांठ पर दिन में दो बार लगाएं और डेढ़ से तीन ग्राम तक उसे पिलाना भी चाहिए। इस प्रयोग से लाभ होता है।
  35. ज्वर-इन्द्रायण मूल चूर्ण में सर्षप तैल मिलाकर शरीर पर मालिश या उद्वर्तन करने से ज्वर का शमन होता है।
  36. श्वसनक ज्वर (Pneumonia)-1 ग्राम इन्द्रायण मूल चूर्ण में 250 मिग्रा सेंधानमक मिलाकर उष्ण जल के साथ दिन में 3 बार सेवन कराने से लाभ होता है।
  37. बिच्छू-विष-6 ग्राम इन्द्रायण फल का सेवन करने से वृश्चिक दंशजन्य वेदना तथा दाह आदि विषाक्त प्रभावों का शमन होता है।
  38. सर्पदंश-3 ग्राम बड़ी इन्द्रायण के मूल चूर्ण को पान के पत्ते में रखकर खाने से सर्पदंशजन्य वेदना तथा दाह आदि विषाक्त प्रभावों का शमन होता है।
  39. इन्द्रायण पत्र-स्वरस (5 मिली) एवं मूल-क्वाथ (10-30 मिली) का सेवन करने से सर्पदंश जन्य विषाक्त प्रभावों का शमन होता है।

और पढ़ेंइन्द्रायण के बीज से सफेद बालों को करें काला

प्रयोज्याङ्ग : मूल, पत्र, फल एवं बीज।

मात्रा : फल चूर्ण 0.125-0.5 ग्राम। मूल चूर्ण 1 ग्राम या चिकित्सक के परामर्शानुसार

विशेष : गर्भिणी, त्रियों, बच्चों एवं दुर्बल व्यक्तियों में इसका प्रयोग यथा संभव नहीं अथवा सतर्कता से करना चाहिए।

आचार्य श्री बालकृष्ण

आचार्य बालकृष्ण, आयुर्वेदिक विशेषज्ञ और पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्तंभ हैं। चार्य बालकृष्ण जी एक प्रसिद्ध विद्वान और एक महान गुरु है, जिनके मार्गदर्शन और नेतृत्व में आयुर्वेदिक उपचार और अनुसंधान ने नए आयामों को छूआ है।

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