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क्या आप जानते हैं कि दारुहरिद्रा क्या है और दारुहरिद्रा का इस्तेमाल किस चीज के लिए किया जाता है? नहीं ना! बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि दारुहरिद्रा (daruharidra plant) एक बहुत ही उत्तम जड़ी-बूटी है और दारुहरिद्रा का प्रयोग बहुत सालों से चिकित्सा के लिए किया जा रहा है। कई पुराने ग्रंथों में चिकित्सा के लिए दारूहरिद्रा के प्रयोग का जिक्र मिलता है।
आयुर्वेद में दारुहरिद्रा के उपयोग के बारे में बहुत सारी अच्छी बातें बताई गई हैं। दारूहरिद्रा का इस्तेमाल कान की बीमारी, आंखों के रोग, घाव को सुखाने के लिए, मुंह की बीमारी, चर्म रोग, डायबिटीज आदि रोगों में किया जाता है।
दारुहरिद्रा (daruharidra plant) की तीन प्रजातियां पाई जाती हैं।
इनमें से मुख्यतः Berberis aristata DC. (दारुहरिद्रा) का प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है।
इसका पौधा सीधा और छोटा होता है। इसके तने की छाल खुरदरी, खांचयुक्त होती है। इसके पत्ते लम्बे, चौड़े और चर्मिल होते हैं। इसके पत्ते गहरे हरे रंग के और चमकीले होते हैं। इसके फूल छोटे होते हैं। इसके फल 7-10 मिमी लम्बे, अण्डाकार, लाल या शयामले-नीले रंग के होते हैं। इसमें फूल आने का समय मार्च से अप्रैल तथा फल आने का समय मई से जून तक होता है।
रसांजन (रसौत) – दारुहरिद्रा (Berberis aristata DC.) का प्रयोग रसौत (रसांजन) के रूप में भी किया जाता है। दारुहरिद्रा (Berberis aristata DC.) के मूलभाग और उसके तने के निम्न भाग से रसक्रिया विधि द्वारा एक प्रकार का पेय पदार्थ बनाया जाता है। यह शयामले-भूरे रंग का होता है। यह आसानी से पानी में आसानी से घुलने वाला होता है। इसको बनाने की विधि का जिक्र नीचे किया गया है।
दारुहरिद्रा का वानस्पतिक नाम बरबेरिस एरिस्टैटा (Berberis aristata DC., Syn-Berberis macrophylla K. Koch), बरबेरीडेसी (Berberidaceae) है और इसके अन्य नाम ये हैंः-
Daruharidra in-
दारुहरिद्रा का औषधीय प्रयोग, प्रयोग की मात्रा एवं विधियां ये हैंः-
दारुहरिद्रा की जड़ की छाल से काढ़ा बनाएं। इसे 10-20 मिली की मात्रा में सेवन करने से साधारण बुखार और गंभीर बुखार में लाभ होता है।
दारुहल्दी की जड़ की छाल को पीस लें। इसे घाव पर लगाएं। घाव जल्दी सुख जाता है।
दारुहल्दी की जड़ का पेस्ट बनाएं। इसमें अपांप्म तथा सेंधा नमक मिलाकर लेप करने से सूजन ठीक हो जाती है।
50 ग्राम दारुहल्दी पेस्ट को 16 गुना जल में पकाएं। इस काढ़ा को मधु मिला कर आंखों में काजल की तरह लगाने से आंखों के विकार ठीक होते हैं।
1 भाग रसांजन तथा 3 भाग त्रिकटु को मिलाकर 250 मिग्रा की गोलियां बनाएं। इसे जल में घिसकर काजल की तरह लगाने से आंखों की खुजली, आंखों का लाल होना आदि रोगों में लाभ होता है।
रसांजन, दारुहल्दी, हल्दी, चमेली और निम्बु के पत्ते लें। इन्हें गोबर के पानी में पीस लें। इसकी वर्ति बनाकर जल में घिसकर काजल की तरह लगाएं। इससे आंखों के पलकों से संबंधित विकारों में लाभ होता है।
बराबर-बराबर मात्रा में हरीतकी, सेंधा नमक, गैरिक तथा रसांजन का लेप बनाएं। इसे पलकों पर लेप करने से पलकों से संबंंधित रोगों में लाभ होता है।
दारुहल्दी तथा पुण्डेरिया की त्वचा का काढ़ा बनाएं। इसे कपड़े से अच्छी तरह छानकर आंखों में बूंद-बूंद डालें। इससे नेत्र रोग में फायदा होता है।
रसाञ्जन को आंखों में लगाने भी आंखों की बीमारी ठीक होती है।
दारुहल्दी की छाल के पेस्ट की वर्ति बनाएं। इसका धूम्रपान करने से जुकाम ठीक होता है।
दारुहल्दी काढ़ा का रसांजन बनाएं और मधु के साथ खाएं। इसके साथ ही लेप के रूप में प्रयोग करें। इससे मुंह का रोग, रक्त विकार तथा साइनस ठीक होता है।
चमेली के पत्ते, त्रिफला, जवासा, दारुहरिद्रा, गुडूची तथा द्राक्षा को मिलाकर काढ़ा बनाएं। 10-30 मिली काढ़ा को शहद में मिलाकर पीने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं।
दार्व्यादि काढ़ा (10-30 मिली) में 6 माशा मधु मिलाकर सेवन करने से सभी तरह के पेट के रोगों में लाभ होता है।
1.5 लीटर गोमूत्र, दारुहल्दी तथा कालीयक पेस्ट को 750 ग्राम भैंस के घी में पकाएं। इसे दार्वीघी कहते हैं। इसे 5 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से पीलिया में लाभ होता है।
दारुहल्दी के 5-10 मिली रस लें या निम्बू के पत्ते के रस या गुडूची के रस के साथ 1 चम्मच मधु मिलाकर पीने से भी पीलिया में फायदा होता है।
सुबह दारुहल्दी के रस (5-10 मिली) या काढ़ा (10-30 मिली) में मधु मिलाकर सेवन करें। इससे एनीमिया में फायदा होता है। यह पीलिया में भी लाभ पहुंचाता है।
कफज विकार को ठीक करने के लिए दारुहल्दी का प्रयोग लाभ देता है। दारुहल्दी के 2-4 ग्राम पेस्ट को गोमूत्र के साथ सेवन करें। इससे कफज-वृद्धि रोग का ठीक होता है।
दार्व्यादि काढ़ा (10-30 मिली) में मधु मिलाएं अथवा रसांजन एवं चौलाई की जड़ के पेस्ट में मधु मिला कर चावल के धोवन के साथ पिएं। इससे सभी तरह की ल्यूकोरिया ठीक होती है।
दारुहरिद्रा, रसाञ्जन, नागरमोथा, वासा, चिरायता, भल्लातक तथा काला तिल लें। इससे काढ़ा बना लें। 10-30 मिली काढ़ा में मधु मिलाकर पीने से ल्यूकोरिया रोग में लाभ होता है।
दारुहल्दी, रसाञ्जन, नागरमोथा, भल्लातक, बिल्वमज्जा, वासा पत्ते और चिरायता का काढ़ा बना लें। इस काढ़ा में 1 चम्मच मधु मिलाकर पीने से गर्भाश्य में सूजन आदि के कारण होने वाली ल्यूकोरिया की बीमारी सहित पेट के रोगों में लाभ होता है।
रसौत को बकरी के दूध के साथ सेवन करने से ल्यूकोरिया में लाभ होता है।
रसौत एवं चौलाई की जड़ से पेस्ट बनाएं। इसमें मधु मिलाकर चावल के धोवन के साथ पीने से सभी दोषों के कारण होने वाली ल्यूकोरिया में फायदा होता है।
दारुहल्दी के तने का काढ़ा बनाएं। इसमें हल्दी मिलाकर लगाने से सुजाक रोग में लाभ होता है।
रसौत, शिरीष की छाल तथा हरीतकी को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। इसमें मधु मिलाकर सिफलिश के घाव पर लगाएं। इससे घाव भर जाते हैं।
रसौत, शिरीष की त्वचा तथा हरीतकी का बारीक चूर्ण (1-4 ग्राम) लें। इसमें मधु मिलाकर सिफलिश के घाव पर लेप के रूप में लगाएं। इससे घाव ठीक हो जाता है।
दारुहल्दी त्वचा के पेस्ट को तेल में पका लें। इस तेल को घाव पर लगाने से घाव ठीक होता है।
दारुहल्दी के पेस्ट (2-4 ग्राम) को गोमूत्र के साथ सेवन करने से कुष्ठ रोगों में लाभ होता है।
दारुहल्दी के काढ़ा से रसाञ्जन बनाएं और इसे तेल या घी में पकाएं। इसे पाउडर तथा चूर्ण की तरह प्रयोग करने से कुष्ठ रोग में बहुत लाभ होता है।
बराबर-बराबर मात्रा में दारुहल्दी, खैर तथा नीम की छाल का काढ़ा बनाएं। इसे 10-30 मिली की मात्रा में नियमित रूप से पीने से सभी प्रकार के कुष्ठ रोगों में लाभ होता है।
दारुहल्दी की जड़ीबीज, हरताल, देवदारु तथा पान के पत्ते को बराबर-बराबर मात्रा में लें। इसमें चौथाई भाग शंखचूर्ण मिलाएं। इसे जल में पीस लें। इसका लेप करने से सिध्म जैसे कुष्ठ रोग में लाभ होता है।
दारुहल्दी छाल, वायविडंग तथा कम्पिल्लक से काढ़ा बना लें और इसे तेल में पका लें। इसे विसर्प रोगों में उपयोग करें। इससे लाभ होता है।
दारुहल्दी के चूर्ण को मधु के साथ सेवन करें। इसमें आंवले का रस पीने से मूत्र रोगों में तुरंत लाभ होता है।
10-30 मिली दारुहल्दी के काढ़ा को मधु के साथ नियमित सेवन करने से डायबिटीज रोग में लाभ होता है।
दारुहरिद्रा की जड़ की छाल से बने काढ़ा 10-30 मिली को पीने से लिवर और तिल्ली से जुड़े विकार ठीक होते हैं।
दारुहल्दी आदि द्रव्यों से बने गौराद्य घी का प्रयोग करें। इससे विषैली कीड़े-मकौड़े और अन्य कीटों के काटने वाले स्थान पर लगाएं। इससे फायदा होता है।
सांप के काटने पर भी दारुहल्दी बहुत फायदा करता है। हल्दी एवं दारुहल्दी का विविध प्रयोग सांप के काटने के स्थान पर लगाएं। इससे फायदा होता है।
मधु और रसौत से बने अञ्जन का प्रयोग करें। इससे आंखों के लाल होने जैसी बीमारी में फायदा होता है।
रसौत को स्त्री के दूध के साथ घिसें। इसमें मधु मिलाकर 1-2 बूंद कान में डालने से कान के बहने और कान में घाव होने की बीमारी में लाभ होता है।
रसौत, अतिविषा, नागरमोथा तथा देवदारु का पेस्ट बना लें। इस तेल में पकाएं। इस तेल को 1-2 बूंद नाक में देने से जुकाम में लाभ होता है।
रसौत को रात भर पानी में भिगोएं। इसे छानकर गाढ़ा बना लें। जब यह एक चौथाई बच जाए तो इसमें छाया में सुखाए हुए नीम के पत्तों का बारीक चूर्ण मिलाएं। इसका 250 मिग्रा की गोलियां बना लें। इसका सेवन करने से बवासीर और खूनी बवासीर में लाभ होता है।
रसौत को तेल या घी में पकाएं। इससे स्नान करने या पीने या लेपर करने से या फिर घाव पर रगड़ने से कुष्ठ रोग ठीक होता है।
10-12 ग्राम रसौत को 1 महीने तक 15-20 मिली गोमूत्र में घोल कर पिएं। इसके साथ ही इससे शरीर पर लेप करने से कुष्ठ में शीघ्र लाभ होता है।
रसौत, हल्दी, दारुहल्दी, मंजीठ, नीम के पत्ते, निशोथ, तेजोवती और दन्ती का पेस्ट बनाएं। इस पेस्ट का लेप करने से साइनस की बीमारी में लाभ होता है।
10 मिली कूष्माण्ड फल का रस लें। इसमें दारुहल्दी (जो पुष्य नक्षत्र में जमा किए गए हों) की छाल को महीन रूप से पीस लें। इसे दोनों आंखों पर काजल की तरह लगाने से ग्रहोपद्रव शान्त होते हैं।
पित्त-कफज विकार को ठीक करने वाले द्रव्यों वाले 15-25 मिली जल में 2 ग्राम मधु और 1 ग्राम शुद्ध रसौत मिलाएं। इसे स्तनपान कराने वाली माता को पिलाएं, और लेप बनाकर शिशु के गुदा और घाव पर लेप के रूप में लगाएं। इससे पित्त और कफज विकार जल्दी ठीक होते हैं।
शिशु को गुदा से संबंधित बीमारी हो जाए जैसे गुदा लाल हो गया हो और दर्द हो रहा हो तो दारुहरिद्रा का प्रयोग फायदा देता है। रसौत को जल या दूध में पीस लें। गुदा में लेप करने से शीघ्र लाभ होता है।
मोटापा कम करने के लिए दारुहरिद्रा के रसांजन का प्रयोग करना बहुत लाभ देता है।
अरणी की छाल काढ़ा के साथ 1-2 ग्राम रसांजन को लंबे समय तक तक सेवन करने से मोटापा घटता है।
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रसौत तथा मधु से बने अञ्जन का प्रयोग करने से ह्रदय रोगों में लाभ होता है।
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दारुहरिद्रा (daruharidra) के इस्तेमाल की मात्रा ये होनी चाहिएः-
चूर्ण- 0.5-3 ग्राम
रस- 1-2 ग्राम
काढ़ा- 50-100
चिकित्सक के परामर्शानुसार इस्तेमाल करें।
दारुहरिद्रा (daruharidra) के उपयोग इस तरह किया जाना चाहिएः-
जड़,
जड़ की छाल
तना
तना-की छाल
पञ्चाङ्ग सत्त्व
लकड़ी
फल
निर्माण विधि – वर्षाऋतु के अंत में दारुहरिद्रा की जड़ एवं निचले तने भाग को सोलह गुना जल में पकाएं। जब यह एक चौथाई बच जाए तो इस काढ़ा में बराबर मात्रा में बकरी या गाय का दूध मिला लें। कम आंच में पकाते हुए गाढ़ा करें। इस द्रव्य को रसाञ्जन या रसौत कहते हैं। इसे धूप में सुखा कर रखा जाता है।
भारत में शीतोष्णकटिबंधीय हिमालय में 2000-3000 मीटर की ऊंचाई पर और नीलगिरी के पहाड़ी क्षेत्रों में दारुहरिद्रा पाया जाता है। इसके साथ-साथ दारुहरिद्रा (daruharidra) विश्व में नेपाल, भूटान एवं श्रीलंका में 2000-2300 मीटर की ऊँचाई पर भी मिलता है। इसके अलावा शीतोष्णकटिबंधीय एवं उपउष्णकटिबंधीय एशिया, यूरोप एवं अमेरिका में पाई जाती है।
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