Categories: जड़ी बूटी

Aralu: करिश्माई ढंग से फायदा करता है अरलु – Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Ailanthus excelsa Roxb. (ऐलेन्थस ऐक्सेल्सा)

कुल : Simaroubaceae (सिमारुबेसी)

अंग्रेज़ी नाम : Tree of Heaven (ट्री ऑफ हैवन)

संस्कृत-अरलु :  , कट्ग :  , दीर्घवृंत, महारुख, पूतिवृक्ष; हिन्दी-अडू, महारुख, मारुख, घोड़ानीम, घोड़ाकरंज; उड़िया-गोरीमक्काबा (Gorimakkaba); कन्नड़-दोड्डाबेवू (Doddabevu), बेन्डे (Bende); गुजराती-अरतुसे(Artusi), मोटो अर्डुसो (Moto araduso); तैलुगु-पेड्डामानू (Peddamanu); तमिल-पेरूमरुथु (Perumaruttu); पंजाबी-अरुआ (Arua); मराठी-महारुक (Maharuka); मलयालम-मट्टी पोंगिल्यम् (Matti pongilyam); राजस्थान-अरुआ (Arua)।

अंग्रेजी-कोपल ट्री (Copal tree), वार्निश ट्री (Varnish tree); अरबी-खुख (Khukh); फारसी-शफतालु (Shaftalu)।

परिचय

यह विश्व के उष्णकटिबंधीय देशों अफ्राप्का, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया आदि में प्राप्त होता है। भारत में विशेषत बिहार, उड़ीसा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात तथा अंाध्र प्रदेश के जंगलों से प्राप्त होता है। यह सड़कों के किनारे तथा उद्यानों में अंलकारिक पौधे के रूप में तथा प्रायद्वीपीय भारत में लगाया जाता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

अरलु

अरलु तिक्त, रूक्ष, कफपित्तशामक, वातकारक; संग्राही, पाचन, दीपन, ग्राही व विष्टम्भी होता है तथा कृमि व कुष्ठ का शमन करता है। इसकी छाल ज्वर तथा तृष्णा का शमन करने वाली, संकोचक भूख बढ़ाने वाली, कृमिनाशक तथा अतिसार, कर्णशूल व त्वचा रोगों को नष्ट करती है।

महारलू मूल छाल का प्रयोग अपस्मार, हृद्य विकार तथा श्वासकष्ट की चिकित्सा में किया जाता है। छाल का क्वाथ बनाकर पीने से उदरात्र कृमियों विषम ज्वर, रक्तातिसार तथा प्रवाहिका का शमन होता है। मूल छाल का क्वाथ बनाकर व्रण को धोने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है। पत्र एवं छाल को पीसकर व्रण में लगाने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है। मोच में लगाने से मोच का शमन होता है। मूल क्वाथ में मिश्री तथा काली मिर्च मिलाकर पीने से श्वास-कास में लाभ होता है।

औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि

  1. अरलु की छाल तथा पत्तों को पीसकर तिल तैल में पकाकर तिल तैल को छानकर रख लें। इसे 1-2 बूँद कान में डालने से कर्णशूल का शमन होता है।
  2. मुँह के छाले-अरलु की छाल का काढ़ा बनाकर कुल्ला करने से मुख के छाले दूर होते हैं।
  3. कास-अरलु की छाल का क्वाथ बनाते समय क्वाथ से निकलने वाली वाष्प का बफारा देने से खाँसी तथा जुकाम में लाभ होता है।
  4. श्वास रोग-1-2 ग्राम छाल चूर्ण में समभाग अदरक स्वरस तथा शहद मिलाकर सेवन करने से श्वास का शमन होता है।
  5. अतिसार-अरलु की छाल को कूटकर, बराबर मात्रा में पद्मकेसर मिलाकर अथवा बिना पद्मकेसर मिलाए, जल से पीसकर गोला बनाकर, गम्भारी पत्र में लपेटकर, पुटपाक विधि से स्वरस निकाल लें। शीतल होने पर 5 मिली स्वरस में मिश्री या मधु मिलाकर पीने से अतिसार में लाभ होता है।
  6. अरलु की छाल का कल्क बनाकर 2 ग्राम कल्क में बराबर मात्रा में घी मिलाकर, गर्म पानी की भाप से गर्म कर, शीतल हो जाने पर शहद मिलाकर रोगी को देने से अतिसार में लाभ होता है।
  7. अरलु की छाल का कल्क बनाकर पुटपाक करके उसका रस निकालकर 5-10 मिली मात्रा में पीने से अथवा 6 ग्राम मोचरस और 10 ग्राम मधु के साथ 5 मिली अरलु स्वरस मिलाकर पीने से समस्त प्रकार के अतिसार में लाभ होता है।
  8. अरलु की छाल और सोंठ को पीसकर 2-4 ग्राम की मात्रा में तण्डुलोदक (चावल का जल) के साथ सेवन करने से अतिसार का शमन होता है।
  9. अग्निमांद्य-5 ग्राम छाल को 20 मिली गर्म या ठण्डे पानी में रात्रि पर्यन्त भिगोकर रख दें, सुबह छाल को पानी में मसलकर, पानी को छानकर पिलाने से दीप्त होती है तथा अग्निमांद्य में लाभ होता है।
  10. 1 ग्राम अरलु निर्यास चूर्ण को दुग्ध के साथ पिलाने से अतिसार का शमन होता है।
  11. अर्श-अरलु छाल, चित्रक मूल, इद्रयव, करंज छाल तथा सैंधानमक, इन सभी औषधियों को समान भाग लेकर पीसकर चूर्ण बना लें, इस चूर्ण को 2-4 ग्राम की मात्रा में लेकर तक्र के साथ पीने से अर्श में लाभ होता है।
  12. प्रसव पश्चात् दौर्बल्य-2-5 मिली अरलु छाल स्वरस में शहद मिलाकर देने से प्रसूति पश्चात् होने वाले दौर्बल्य तथा वेदना आदि का शमन होता है।
  13. जिन त्रियों को प्रसूति के पश्चात् चार-छ दिन तक अत्यन्त पीड़ा रहती है, उनको 5 ग्राम अरलु छाल चूर्ण में 2 ग्राम सोंठ तथा 5 ग्राम गुड़ मिलाकर उसकी 10 गोलियां बनाकर 1-1 गोली को सुबह, दोपहर, शाम दशमूल क्वाथ के साथ देने से अत्यन्त लाभ होता है।
  14. अरलु की पत्तियों को पीसकर सन्धियों पर बाँधने से संधिवात का शमन होता है।
  15. 1-2 ग्राम अरलु छाल चूर्ण का शहद के साथ नियमित सेवन करने से संधिशूल तथा संधिशोथ का शमन होता है।
  16. व्रण-अरलु त्वक् फाण्ट से घाव को धोने से घाव जल्दी भर जाता है।
  17. ज्वर-10 ग्राम अरलु छाल को 80 मिली जल में पकाएं तथा 20 मिली शेष रहने पर ठण्डा करके उसमें शहद मिलाकर प्रात सायं पिलाने से ज्वर में लाभ होता है।
  18. 1-2 ग्राम अरलु छाल चूर्ण या निर्यास चूर्ण को शहद अथवा दधि के साथ प्रात सायं पीने से ज्वर में लाभ होता है।

प्रयोज्याङ्ग : काण्ड त्वक् एवं पत्र।

मात्रा : स्वरस 10-20 मिली। घनसत्त-500 मिग्रा। चूर्ण 2-3 ग्राम। क्वाथ 5-10 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।

आढ़की (अरहर)

वानस्पतिक नाम : Cajanus cajan (Linn.) Millsp.  (कैजेनस कैजन)

Syn-Cajanus indicus Spreng.

कुल : Fabaceae (फैबेसी)

अंग्रेज़ी नाम : Pigeon pea (पिजिन पी)

संस्कृत-आढकी, तुवरी, तुवरिका, शणपुष्पिका; हिन्दी-अरहर अड़हर, रहड़, तूर; उर्दू-अरहर (Arhar); उड़िया-होरोणो (Horono), कनडुलो (Kandulo); कोंकणी-तोरी (Tori); कन्नड़-तोगरि (Togari), अढकी (Adhaki); गुजराती-तुरदाल (Turdal), तुवर (Tuvar), डांगरी (Dangri); तैलुगु-तोवरै (Tovrai), एर्राकन्डुलु (Errakandulu), सिन्नाकाण्डी (Sinnakandi); तमिल-तुवराई (Tuvarai); बंगाली-तुर, औरोर (Oror); पंजाबी-अरहर (Arhar);  नेपाली-रहर (Rahar); मराठी-तुरी (Turi), तूर (Toor); मलयालम-अढ़की (Adhaki), कैटजंग पी (Catjang pea), तुवर (Tuvar)।

अंग्रेजी-कैटजंग पी (Catjang pea) नो आइ पी (No eye pea), रेड ग्राम (Red gram) कांगो पी (Congo pea); अरबी-शाखिल (Shakhil), शाज (Shaz); फारसी-शाखिल (Shakhil), शाज (Shaz)।

परिचय

अनाज रूप में सुप्रसिद्ध इस औषधि के विषय में विशेष द्रष्टव्य यही है कि अन्य कतिपय औषधियों के समान भारतवर्ष की ही यह एक खास अप्रतिम शक्तिवर्धक वस्तु है। अरहर प्राय भारत वर्ष में सभी जगह दाल के रूप में उपयोग की जाती है तथा लगभग समस्त लोग इससे परिचित है। यह मूलत दक्षिण-पूर्व एशिया में प्राप्त होती है। भारत के प्राय सभी प्रान्तों में 1800 मी की ऊँचाई तक इसकी खेती की जाती है। यह दो प्रकार की होती है-(1) एक तो वह जो प्रतिवर्ष होती है, जिसका पौधा दो या तीन हाथ ऊँचा होता है और दाल आकार में बड़ी होती है, (2) दूसरी वह जो तीन या चार वर्षों तक फूलती-फलती रहती है। इसका पौधा 5 से 8 हाथ तक ऊँचा बढ़ता है तथा इसका काण्ड भी काफी मोटा होता है, जो घरों के छप्पर वगैरा में लगाया जाता है। इसकी दाल आकार में छोटी होती है। उक्त दूसरे प्रकार की अरहर प्राय उत्तरप्रदेश और उत्तरी भारतवर्ष में ही होती है और प्रथम प्रकार की दक्षिण भारत में बहुलता से होती है। वर्ण भेद से श्वेत और लाल इसकी दो मुख्य जातियाँ होती है। श्वेत की अपेक्षा लाल अरहर उत्तम मान जाती है। पीली काली अरहर भी कहीं-कहीं पाई जाती है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

आढ़की मधुर, कषाय, शीत; लघु, रूक्ष, कफपित्तशामक, किञ्चित् वातकारक, ग्राही, विबन्धकारक, आध्मान-कारक तथा विष्टम्भी होती है। अरहर मेद, मुखरोग, व्रण, गुल्म, ज्वर, अरोचक, कास, छर्दि, हृद्रोग, रक्तदोष, विष प्रभाव तथा अर्श नाशक है। आढ़की के पत्र गुरु, त्रिदोषशामक, ग्राही तथा कृमिघ्न होते हैं। घृतयुक्त आढ़की वातशामक होती है। आढ़की का लेप कफपित्तशामक होता है। आढ़की यूष दीपन, बलकारक, पित्तशामक तथा दाहनाशक होता है। श्वेत आढ़की-दोषों का प्रकोप करने वाली, ग्राही, गुरु, पथ्य, अम्लपित्तकारक, आध्मानकार, वातपित्तकारक तथा मलरोधक  होती है। रक्त आढ़की-रुचिकारक, बलकारक, पथ्य, पित्तशामक तथा ग्राही होती है व अम्लपित्त, ताप, ज्वर, सन्ताप तथा अनेक रोगों का शमन करती है। कृष्ण आढ़की बलकारक, अग्निदीपक, पित्तशामक, दाहनाशक, पथ्य, किञ्चित् वातकारक, कृमि तथा त्रिदोषशामक होती है।

औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि

  1. अर्धावभेदक-5-10 मिली अरहर पत्र-स्वरस में समभाग दूध या दूर्वा स्वरस मिलाकर 1-2 बूँद नाक में डालने से आधासीसी की वेदना का शमन होता है।
  2. आढ़की मूल को पानी में घिसकर आँखों में अंजन करने से नेत्र रोगों में लाभ होता है।
  3. मुख-प्रदाह-आढ़की पत्र तथा पुष्पों का क्वाथ बनाकर गरारा करने से मुखदाह तथा जिह्वा दाह तथा मुखपाक आदि का शमन होता है।
  4. अरहर के कोमल पत्तों को चबाने से मुख के छाले दूर होते हैं तथा मसूड़ों की सूजन में लाभ होता है।
  5. कण्ठशोथ-आढ़की पत्र-स्वरस को गर्म कर या इसकी छाल को पानी में भिगोकर कुछ गुनगुना करके गरारा करने से कंठ की सूजन का शमन होता है। ( और पढ़ें: कंठ रोग में वन तुलसी के फायदे )
  6. वक्षगत-विकार-इसकी कलियों तथा हरी फलियों को पीसकर छाती पर लेप करने से छाती से संबंधित रोगों में लाभ होता है।
  7. अतिस्तन्य-स्राव-आढ़की बीज एवं पत्रों के कल्क को स्तनों पर लेप करने से यह अतिस्तन्य स्राव (Excessive lactation) को रोकता है।
  8. हिचकी-अरहर की भूसी को हुक्के में रखकर पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
  9. कामला-प्रतिदिन प्रातकाल 1-2 ग्राम आढ़की पत्रों को सेंधा नमक के साथ मिलाकर, पीसकर जल के साथ सेवन करने से कामला (पीलिया) में लाभ होता है।
  10. वातरक्त-अरहर, चना, मूंग, मसूर तथा मोठ का यूष बना लें। 20-40 मिली यूष में घी मिलाकर पीने से वातरक्त के रोगियों में लाभ होता है।
  11. व्रण-सद्यक्षत पर आढ़की पत्र-स्वरस का लेप करने से घाव से होने वाला रक्तस्राव रुक जाता है तथा उबले हुए पत्रों का लेप करने से घाव शीघ्र भर जाता है।
  12. शोथयुक्त स्थान पर आढ़की पत्र को पीसकर लेप करने से सूजन कम हो जाती है।
  13. अरहर की दाल को पीसकर सूजन वाले स्थान पर लेप करने से सूजन में लाभ होता है।
  14. अफीम विषाक्तता-आढ़की के पत्तों का रस पिलाने से अफीम का विष उतरता है।

प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग, पत्र, पुष्प तथा बीज।

मात्रा : चिकित्सक के परामर्शानुसार।

आचार्य श्री बालकृष्ण

आचार्य बालकृष्ण, आयुर्वेदिक विशेषज्ञ और पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्तंभ हैं। चार्य बालकृष्ण जी एक प्रसिद्ध विद्वान और एक महान गुरु है, जिनके मार्गदर्शन और नेतृत्व में आयुर्वेदिक उपचार और अनुसंधान ने नए आयामों को छूआ है।

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आचार्य श्री बालकृष्ण

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