वानस्पतिक नाम : Ailanthus excelsa Roxb. (ऐलेन्थस ऐक्सेल्सा)
कुल : Simaroubaceae (सिमारुबेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Tree of Heaven (ट्री ऑफ हैवन)
संस्कृत-अरलु : , कट्ग : , दीर्घवृंत, महारुख, पूतिवृक्ष; हिन्दी-अडू, महारुख, मारुख, घोड़ानीम, घोड़ाकरंज; उड़िया-गोरीमक्काबा (Gorimakkaba); कन्नड़-दोड्डाबेवू (Doddabevu), बेन्डे (Bende); गुजराती-अरतुसे(Artusi), मोटो अर्डुसो (Moto araduso); तैलुगु-पेड्डामानू (Peddamanu); तमिल-पेरूमरुथु (Perumaruttu); पंजाबी-अरुआ (Arua); मराठी-महारुक (Maharuka); मलयालम-मट्टी पोंगिल्यम् (Matti pongilyam); राजस्थान-अरुआ (Arua)।
अंग्रेजी-कोपल ट्री (Copal tree), वार्निश ट्री (Varnish tree); अरबी-खुख (Khukh); फारसी-शफतालु (Shaftalu)।
परिचय
यह विश्व के उष्णकटिबंधीय देशों अफ्राप्का, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया आदि में प्राप्त होता है। भारत में विशेषत बिहार, उड़ीसा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात तथा अंाध्र प्रदेश के जंगलों से प्राप्त होता है। यह सड़कों के किनारे तथा उद्यानों में अंलकारिक पौधे के रूप में तथा प्रायद्वीपीय भारत में लगाया जाता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
अरलु
अरलु तिक्त, रूक्ष, कफपित्तशामक, वातकारक; संग्राही, पाचन, दीपन, ग्राही व विष्टम्भी होता है तथा कृमि व कुष्ठ का शमन करता है। इसकी छाल ज्वर तथा तृष्णा का शमन करने वाली, संकोचक भूख बढ़ाने वाली, कृमिनाशक तथा अतिसार, कर्णशूल व त्वचा रोगों को नष्ट करती है।
महारलू मूल छाल का प्रयोग अपस्मार, हृद्य विकार तथा श्वासकष्ट की चिकित्सा में किया जाता है। छाल का क्वाथ बनाकर पीने से उदरात्र कृमियों विषम ज्वर, रक्तातिसार तथा प्रवाहिका का शमन होता है। मूल छाल का क्वाथ बनाकर व्रण को धोने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है। पत्र एवं छाल को पीसकर व्रण में लगाने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है। मोच में लगाने से मोच का शमन होता है। मूल क्वाथ में मिश्री तथा काली मिर्च मिलाकर पीने से श्वास-कास में लाभ होता है।
औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : काण्ड त्वक् एवं पत्र।
मात्रा : स्वरस 10-20 मिली। घनसत्त-500 मिग्रा। चूर्ण 2-3 ग्राम। क्वाथ 5-10 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
आढ़की (अरहर)
वानस्पतिक नाम : Cajanus cajan (Linn.) Millsp. (कैजेनस कैजन)
Syn-Cajanus indicus Spreng.
कुल : Fabaceae (फैबेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Pigeon pea (पिजिन पी)
संस्कृत-आढकी, तुवरी, तुवरिका, शणपुष्पिका; हिन्दी-अरहर अड़हर, रहड़, तूर; उर्दू-अरहर (Arhar); उड़िया-होरोणो (Horono), कनडुलो (Kandulo); कोंकणी-तोरी (Tori); कन्नड़-तोगरि (Togari), अढकी (Adhaki); गुजराती-तुरदाल (Turdal), तुवर (Tuvar), डांगरी (Dangri); तैलुगु-तोवरै (Tovrai), एर्राकन्डुलु (Errakandulu), सिन्नाकाण्डी (Sinnakandi); तमिल-तुवराई (Tuvarai); बंगाली-तुर, औरोर (Oror); पंजाबी-अरहर (Arhar); नेपाली-रहर (Rahar); मराठी-तुरी (Turi), तूर (Toor); मलयालम-अढ़की (Adhaki), कैटजंग पी (Catjang pea), तुवर (Tuvar)।
अंग्रेजी-कैटजंग पी (Catjang pea) नो आइ पी (No eye pea), रेड ग्राम (Red gram) कांगो पी (Congo pea); अरबी-शाखिल (Shakhil), शाज (Shaz); फारसी-शाखिल (Shakhil), शाज (Shaz)।
परिचय
अनाज रूप में सुप्रसिद्ध इस औषधि के विषय में विशेष द्रष्टव्य यही है कि अन्य कतिपय औषधियों के समान भारतवर्ष की ही यह एक खास अप्रतिम शक्तिवर्धक वस्तु है। अरहर प्राय भारत वर्ष में सभी जगह दाल के रूप में उपयोग की जाती है तथा लगभग समस्त लोग इससे परिचित है। यह मूलत दक्षिण-पूर्व एशिया में प्राप्त होती है। भारत के प्राय सभी प्रान्तों में 1800 मी की ऊँचाई तक इसकी खेती की जाती है। यह दो प्रकार की होती है-(1) एक तो वह जो प्रतिवर्ष होती है, जिसका पौधा दो या तीन हाथ ऊँचा होता है और दाल आकार में बड़ी होती है, (2) दूसरी वह जो तीन या चार वर्षों तक फूलती-फलती रहती है। इसका पौधा 5 से 8 हाथ तक ऊँचा बढ़ता है तथा इसका काण्ड भी काफी मोटा होता है, जो घरों के छप्पर वगैरा में लगाया जाता है। इसकी दाल आकार में छोटी होती है। उक्त दूसरे प्रकार की अरहर प्राय उत्तरप्रदेश और उत्तरी भारतवर्ष में ही होती है और प्रथम प्रकार की दक्षिण भारत में बहुलता से होती है। वर्ण भेद से श्वेत और लाल इसकी दो मुख्य जातियाँ होती है। श्वेत की अपेक्षा लाल अरहर उत्तम मान जाती है। पीली काली अरहर भी कहीं-कहीं पाई जाती है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
आढ़की मधुर, कषाय, शीत; लघु, रूक्ष, कफपित्तशामक, किञ्चित् वातकारक, ग्राही, विबन्धकारक, आध्मान-कारक तथा विष्टम्भी होती है। अरहर मेद, मुखरोग, व्रण, गुल्म, ज्वर, अरोचक, कास, छर्दि, हृद्रोग, रक्तदोष, विष प्रभाव तथा अर्श नाशक है। आढ़की के पत्र गुरु, त्रिदोषशामक, ग्राही तथा कृमिघ्न होते हैं। घृतयुक्त आढ़की वातशामक होती है। आढ़की का लेप कफपित्तशामक होता है। आढ़की यूष दीपन, बलकारक, पित्तशामक तथा दाहनाशक होता है। श्वेत आढ़की-दोषों का प्रकोप करने वाली, ग्राही, गुरु, पथ्य, अम्लपित्तकारक, आध्मानकार, वातपित्तकारक तथा मलरोधक होती है। रक्त आढ़की-रुचिकारक, बलकारक, पथ्य, पित्तशामक तथा ग्राही होती है व अम्लपित्त, ताप, ज्वर, सन्ताप तथा अनेक रोगों का शमन करती है। कृष्ण आढ़की बलकारक, अग्निदीपक, पित्तशामक, दाहनाशक, पथ्य, किञ्चित् वातकारक, कृमि तथा त्रिदोषशामक होती है।
औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग, पत्र, पुष्प तथा बीज।
मात्रा : चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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