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तुवरक (चालमोगरा) के हैं बहुत चमत्कारिक लाभ : Benefits of Tuvarak (Chaulmoogra) in Hindi: – Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Hydnocarpus laurifolia (Dennst.) Sleummer (हिड्नोकार्पस लॉरीफोलिआ)

कुल : Flacourtiaceae (फ्लेकौरशिएसी)

अंग्रेज़ी नाम : Jungali almond (जंगली आलमन्ड)

संस्कृत-गरुड़फल, तुवरक, कटुकपित्थ, कुष्ठवैरी; हिन्दी-चालमोगरा; मराठी-कटुकवथ (Katukavath); कन्नड़-गरूड़फल (Garudphal), सुंती (Suranti); गुजराती-गुंवाडीयो (Guvandiyo); तमिल-मरावेट्टई (Maravettai), निरादि मुट्टु (Niradi muttu); तेलुगु-आदि-बदामु (Adi-badamu); बंगाली-चौलमुगरा (Chaulmugra); नेपाली-तुवरक (Tuvrak); मलयालम-कोटी (Koti), मारा वेट्टी (Mara vetti)।

अंग्रेजी-मरोठी ट्री (Morothi Tree), चालमोगरा (Chalmoogra); फारसी-विरमोगरा (Virmogara)।

परिचय

चालमोगरा के वन्यज वृक्ष दक्षिण भारत में पश्चिम घाट के पर्वतों पर तथा दक्षिण कोंकण और ट्रावनकोर में तथा श्रीलंका में बहुतायत  से पाए जाते हैं। इसके बीजों से प्राप्त होने वाले तेल तथा बीजों का औषधीय प्रयोग किया जाता है। प्राचीन बौद्ध-ग्रन्थों तथा आयुर्वेदीय संहिताओं में इसका वर्णन प्राप्त होता है। सुश्रुत-संहिता और अष्टांग हृदय में रसायन के रूप में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त आचार्य सुश्रुत ने कुष्ठ चिकित्सा तथा नेत्र-चिकित्सा के लिए तुवरक का प्रयोग किया है। तुवरक का मुख्यत प्रयोग त्वक्-विकारों की चिकित्सा में किया जाता है।

तुवरक के लगभग 15-30 मी ऊँचे, सदाहरित, मध्यम आकार के, एकलिंगाश्रयी वृक्ष होते हैं। इसकी प्रशाखाएँ लगभग गोलाकार, सूक्ष्म रोमश होती हैं। इसकी काण्डत्वक्-पाण्डुर-भूरे वर्ण की, खुरदरी तथा श्वेत वर्ण की बिन्दुकित व दरारयुक्त होती है। इसके पत्र सरल, एकांतर 10-22 सेमी लम्बे एवं 3-10 सेमी चौड़े, चर्मिल तथा गहरे हरित वर्ण के होते हैं। इसके पुष्प छोटे, हरिताभ श्वेत, एकलिंगी होते है। पुं एवं त्रीपुष्प विभिन्न वृक्षों पर होते हैं। पुंपुष्प-3-6 की संख्या में 2-3 असीमाक्षी पुलिकाओं में तथा त्रीपुष्प-एकल, गोलाकार अथवा अण्डाकार एवं रक्ताभ-भूरे वर्ण के, सघन रोमश होते हैं। इसके फल 5-10 सेमी व्यास के, सेब के सदृश, अण्डाकार, गोलाकार तथा सरस फल होते हैं। फल के भीतर के श्वेत गूदे के बीच में 15-20 पीताभ, बादाम जैसे मृदुरोमश बीज होते है। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल अगस्त से मार्च तक होता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

स्थानिक-प्रयोग से यह कंडुघ्न, कुष्ठघ्न, व्रणरोपक, व्रणशोथघ्न, अन्त प्रयोग से रेचक, वमन कराने वाला, कृमि-नाशक, प्रमेहघ्न तथा रक्त-प्रसादक होता है।

चालमोगरा के बीज एवं तैल तिक्त, स्तम्भक, तापजनक, शोधक, कृमिनिसारक, वेदनाशामक, विरेचक, वामक, वातानुलोमक, पूयवृद्धिकर, रक्तवर्धक तथा बलकारक होते हैं।

यह कण्डू, श्वित्र, त्वक्शोथ, पामा, गण्डमाला, व्रण, आध्मान, अजीर्ण, शोथ, प्रमेह तथा श्वास-कास शामक होता है।

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. कंठमाला-1 ग्राम चालमोगरा फल गिरी चूर्ण को दिन में तीन बार खाने से कंठमाला में लाभ होता है। चालमोगरा के तेल को मक्खन में मिलाकर गांठों पर लेप करने से भी लाभ होता है।
  2. क्षयरोग-तुवरक तेल की 5-6 बूंदों को दूध के साथ दिन में दो बार सेवन करने से तथा मक्खन में मिलाकर छाती पर मालिश करने से क्षयरोग में लाभ होता है।
  3. हैजा-तुवरक की फल-गिरी के एक ग्राम चूर्ण को जल में पीसकर 2-3 बार पिलाने से विसूचिका में लाभ होता है। ( और पढ़े: हैजा में ताड़ के पेड़ के फायदे )
  4. एक चम्मच फल-गिरी चूर्ण को दिन में तीन बार खाने से मूत्र-शर्करा (पेशाब से शक्कर जाना) कम हो जाती है, जब मूत्र में शक्कर जाना बंद हो जाय तो प्रयोग बंद कर दें।
  5. 1-2 ग्राम तुवरक बीज चूर्ण को दिन में 2-3 बार जल के साथ सेवन करने से मधुमेह में लाभ होता है।
  6. योनिदौर्गन्ध्य-तुवरक के क्वाथ से योनि का प्रक्षालन करने से अथवा तुवरक के कल्क की वर्ति बनाकर योनि के अन्दर रखने से योनि दौर्गन्ध्य का शमन होता है।
  7. उपदंश-तुवरक के बीजों के साथ जंगली मूंग को मिलाकर यवकुट कर भांगरा के रस की 3 दिन भावना देकर चौथे दिन महीन पीसकर उसमें थोड़ा चन्दन तैल या नारियल तैल या आँवला तैल मिलाकर उबटन बनाकर उपदंशज व्रणों पर लगाएं, फिर 3-4 घंटे बाद स्नान करें।
  8. उपदंश-पूरे शरीर में फैले हुए उपदंश के रोग और पुरानी गठिया में इसके तैल की 5-6 बूंदों से शुरू कर मात्रा बढ़ाते हुए 60 बूंद तक सेवन करने से उपदंश में लाभ होता है। जब तक इस औषध का सेवन करें तब तक मिर्च, मसाले, खटाई का परहेज रखें। दूध घी और मक्खन का अधिक सेवन करें।
  9. गठिया-1 ग्राम तुवरक बीज चूर्ण को दिन में तीन बार खाने से गठिया में आराम मिलता है।
  10. दाद-तुवरक तैल में निम्ब तैल या मक्खन मिलाकर दद्रु में मालिश करने से एक महीने में दाद ठीक हो जाता है। 10 मिली तेल को 50 ग्राम वैसलीन में मिलाकर रख लें और प्रयोग करते रहें।
  11. कुष्ठ रोग-कुष्ठ रोगी को पहले 10 बूंदें तेल की पिलानी चाहिए, जिससे वमन होकर शरीर के सब दोष बाहर आ जायें। तत्पश्चात् 5-6 बूंदों को कैप्सूल में डालकर या दूध व मक्खन में भोजनोपरांत सुबह-शाम दें। धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाकर 60 बूंदें तक ले जायें। इस तेल को नीम के तेल में मिलाकर बाह्य लेप करें, कुष्ठ की प्रारम्भिक अवस्था में इस औषधि का सेवन करें। खटाई मिर्च मसाले वर्जित हैं।
  12. खाज-खुजली-तुवरक के तेल को एरण्ड तेल में मिलाकर उसमें गंधक, कपूर और नींबू का रस मिलाकर लगाने से खाज तथा खुजली में लाभ होता है।
  13. पामा-तुवरक के बीजों को छिल्के सहित पीसकर एरंड तेल में मिलाकर पामा पर लेप करने से पामा मिटता है।
  14. बीजों को गोमूत्र में पीसकर दिन में 2-3 बार लेप करने से पामा में लाभ होता है।
  15. व्रण-बीजों को खूब महीन पीसकर उनका बारीक चूर्णकर घाव पर लगाने से रक्तस्राव बंद होकर घाव शीघ्र भर जाता है।
  16. तुवरक बीज, भल्लातक बीज, बाकुची मूल, चित्रकमूल अथवा शिलाजीत का चिरकाल तक सेवन करने से कुष्ठ में लाभ हाता है।
  17. तुवरक तैल को लगाने से महाकुष्ठ, कण्डू तथा चर्मरोगों में लाभ होता है।
  18. तुवरक बीज को पीसकर लगाने से व्रण का रोपण होता है।
  19. पक्व बीज तैल को लगाने से त्वक्-विकारों का शमन होता है।
  20. खुजली-तुवरक बीजों को गोमूत्र में पीसकर लगाने से खुजली में लाभ होता है।
  21. मूर्च्छा-चालमोगरा बीज चूर्ण को मस्तक पर मलने से मूर्च्छा दूर होती है।
  22. रक्तशोधनार्थ-चालमोगरा तेल की 5 बूंदों को कैप्सूल में भरकर या मक्खन के साथ भोजन के आधा घण्टे पश्चात् सुबह-शाम खाने से रक्त का शोधन होकर रक्तज विकारो का शमन होता है।
  23. तुवरक तैल को नीम तैल या मक्खन में मिलाकर लेप करने से रक्तज विकारों में लाभ होता है।
  24. रसायनार्थ-तुवरक रसायन का सेवन करने से मनुष्य वली, पलित आदि व्याधियों से मुक्त होकर, स्मृतिवान् तथा रसायन गुणों से युक्त हो जाता है।

प्रयोज्याङ्ग  :फलमज्जा, मूलत्वक्, पुष्प, पत्र, बीज तथा तैल।

मात्रा  :फलमज्जा 5-10 ग्राम, पुष्प 5-10 ग्राम, पत्र बाह्य प्रयोग हेतु, मूलत्वक् क्वाथ 50-60 मिली, चूर्ण 1-3 ग्राम, तैल 5-10 बूंद या चिकित्सक के परामर्शानुसार।

दोष  :इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह आमाशय को हानि पहुंचाता है। तेल को मक्खन में मिलाकर या कैप्सूल में भरकर भोजन के बाद ही लेना चाहिए।

उपद्रव निवारण  :

अहितकर प्रभाव निवारणार्थ दुग्ध-घृत का प्रयोग करना चाहिए।

विशेष  :

चालमोगरा का तेल एक कुष्ठ-नाशक औषधि है, आजकल इंजेक्शन द्वारा भी इसका प्रयोग किया जाता है।

चालमोगरा तैल लघु, तीक्ष्ण, स्निग्ध, तिक्त, कटु, कषाय, वामक, रेचक, रक्तप्रसादक, वेदनास्थापक, व्रणरोधक, व्रणरोपक, कण्डु, कुष्ठ, चर्मरोग, आमवात, वातरक्त, उदररोग तथा नाड़ीशूल में लाभप्रद है।

आचार्य श्री बालकृष्ण

आचार्य बालकृष्ण, आयुर्वेदिक विशेषज्ञ और पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्तंभ हैं। चार्य बालकृष्ण जी एक प्रसिद्ध विद्वान और एक महान गुरु है, जिनके मार्गदर्शन और नेतृत्व में आयुर्वेदिक उपचार और अनुसंधान ने नए आयामों को छूआ है।

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