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ताड़ नारियल की तरह लंबा और सीधा पेड़ होता है लेकिन ताड़ के वृक्ष में डालियाँ नहीं होती है वरन् तने से ही पत्ते निकलते हैं। आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि ताड़ का वृक्ष नर और नारी दो प्रकार के होते हैं। कहने का मतलब ये होता है कि ताड़ के नर वृक्ष पर सिर्फ फूल खिलते हैं और नारी वृक्ष पर नारियल की तरह गोल-गोल फल होते हैं। इसके तने को काटकर जो रस निकाला जाता है उसको ताड़ी कहा जाता है। ताड़ी के औषधीय गुणों के आधार पर आयुर्वेद में ताड़ के वृक्ष का उपयोग कई बीमारियों के लिए किया जाता है। चलिये ताड़ वृक्ष के अनजाने तथ्यों के बारे में जानते हैं।
ताड़ लगभग 30-35 मी ऊँचा, सीधा, विशाल शीर्षयुक्त वृक्ष होता है। इसके काण्ड कंटकरहित, कदाचित् शाखित, 60-90 सेमी व्यास या डाइमीटर के,काले रंग के, तथा गोलाकार होते हैं। मुलायम तना काले रंग के संकुचित पर्णवृंत के क्षतचिह्न युक्त होते हैं। इसके पत्ते 0.9-1.5 मी व्यास के, हाथ की तरह-पंखाकार, कठोर, भालाकार अथवा रेखा से दोनों भागों में बंटे हुए, तने से निकले हुए, उभरी हुई मोटी शिराओं से बने तथा धारीदार किनारे वाले होते हैं। इसके फूल एकलिंगी, कोमल गुलाबी अथवा पीले रंग के होते हैं। शरद-ऋतु में स्त्री-जाति के वृक्षों पर लगभग 15-20 सेमी व्यास के अण्डाकार, अर्धगोलाकार, रेशेदार तीन खण्ड वाले हल्के काले धूसर रंग के फल आते हैं। जो पकने पर पीले हो जाते हैं। कोमल या कच्ची अवस्था में फलों के भीतर कच्चे नारियल के समान दूधिया जल होता है। पकने पर भीतर का गूदा रेशेदार, लाल और पीले रंग के तथा मधुर होते हैं। प्रत्येक फल अण्डाकार कुछ चपटे, कड़े 1-3 बीज होते हैं।यह नवम्बर से जून महीने में फलता-फूलता है। मूत्रदाह एवं पेट में कृमि जैसे समस्याओं में अत्यधिक लाभकारी होता है।
ताड़ प्रकृति से मीठा, ठंडा, भारी, वात और पित्त को कम करने वाला, मूत्र रोग में फायदेमंद, अभिष्यंदि (आंख आना), बृंहण (Stoutning therapy) मे लाभकारी, बलकारक, मांसवर्धक (वजन बढ़ाने में) होता है। यह रक्तपित्त (नाक-कान से खून बहना), व्रण (घाव), दाह (जलन), क्षत (चोट), शीतपित्त (पित्ती), विष, कुष्ठ, कृमि तथा रक्तदोष नाशक होता है।
इसके फल मधुर, बृंहण, शक्ति और वात दोनों बढ़ाने में सहायक, कृमि, कुष्ठ तथा रक्तपित्तसे राहत दिलाने में फायदेमंद होते हैं। इसके कच्चे फल मधुर, गुरु, ठंडे तासीर के, वात कम करने वाला तथा कफ बढ़ाने वाले होते हैं। यह दस्त से राहत दिलाने के साथ, बलकारक, वीर्यजनक (सीमेन का उत्पादन बढ़ाने में), मांसवर्धक होता है।
ताड़ का पका फल शुक्रल, अभिष्यंदि, मूत्र को बढ़ाने वाला, तन्द्रा को उत्पन्न करने वाला, देर से पचने वाला पित्त, रक्त तथा श्लेष्मा बढ़ाने वाला होता है।
ताड़ का आर्द्रफल मधुर, शीत, कफ बढ़ाने के साथ वातपित्त कम करने वाला तथा मूत्रल होता है। फलमज्जा मधुर, स्निग्ध, छोटी होती है। इसका बीज मधुर, शीतल, मूत्र को बढ़ाने वाला तथा वातपित्त को बढ़ाने में सहायक होता है।
ताड़ी (ताड़ का ताजा रस) वीर्य और श्लेष्मा को बढ़ाने वाला, अत्यंत मद उत्पन्न करने वाली, पुरानी होने पर खट्टी, पित्तवर्धक तथा वातशामक होती है। नवीन ताड़ी अत्यन्त मदकारक यानि नशीली होती है। खट्टी होने पर ताड़ी पित्त बढ़ाने वाली तथा वात कम करने वाली होती है। ताल की जड़ मधुर तथा रक्तपित्तनाशक होती है।
ताड़ वृक्ष का वानस्पतिक नाम Borassus flabellifer Linn. (बोरैसस फ्लेबेलीफर) है। ताड़ Syn-Borassus flabelliformis Linn कुल का होता है। ताड़ को अंग्रेजी में The Palmyra palm (द पैल्माइरा पॉम) कहते हैं। लेकिन ताड़ को भारत के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, जैसे-
Sanskrit-ताल, लेख्यपत्र, दीर्घतरु, तृणराज तथा महोन्नत;
Hindi-ताड़, ताल, तार;
Urdu-ताड़ (Tad);
Odia-तालो (Talo), तृणोराजो (Trynorajo);
Kannada–तालिमारा (Talimara);
Gujrati-ताल (Taal);
Tamil-पनैपरम (Pannai param), अनबनाई (Anbanai);
Telegu-तालि (Tali), नामताडू (Namatadu), पोटूताडू (Potutadu);
Bengali-ताल (Tal), तालगच्छ (Talgachh);
Marathi-ताड़ (Taad), तमर (Tamar);
Malayalam–अम्पाना (Ampana), तालम (Talam)।
English-ब्राब ट्री (Brab tree), डिजर्ट पाम (Desert palm);
Arbi-शाग अल मुक्ल (Shag el muql), डौम (Dom);
Persian-ताल (Taal), दरख्ते-तारी (Darakhte-tari)
ताड़ के गुणों के आधार पर आयुर्वेद में किन-किन बीमारियों के लिए इसको औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है ये जानने के लिए आगे चलते हैं-
आँख आने की बीमारी बहुत ही संक्रामक होती है। आँख आने पर उसके दर्द से राहत दिलाने में ताड़ का इस तरह से प्रयोग करने पर फायदा पहुँचता है। नवीन (ताजी) ताड़ी से सिद्ध किए हुए घी की 1-2 बूंदों को नेत्रों में डालने से पित्ताभिष्यन्द(Conjunctivitis) में लाभ होता है।
मूत्र का रंग बदलने या मूत्रकृच्छ्र (मूत्र त्याग में कठिनता) हो जाए तो विदारीकंद, कदम्ब तथा ताड़ फल के काढ़ा एवं कल्क से सिद्ध दूध एवं घी का सेवन प्रशस्त है।
अगर बार-बार हिक्का आने से परेशान हैं तो ताड़ का इस तरह से सेवन करने पर जल्द ही मिलेगी राहत। 5-10 मिली ताड़ पत्रवृन्त का रस में 5-10 मिली ताड़ के जड़ का रस मिलाकर सेवन करने से हिचकी बन्द हो जाती है।
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अगर किसी बीमारी के कारण प्लीहा या स्प्लीन का आकार बढ़ गया है तो ताड़ का सेवन फायदेमंद साबित होता है। 65 मिग्रा ताड़ फूल के क्षार में गुड़ मिलाकर सेवन करने से प्लीहा का आकार कम होने में सहायता मिलती है।
अगर किसी कारणवश हैजा हो गया है तो ताड़ का सेवन करने से जल्दी आराम मिलता है।
ताड़ के मूल को चावल के पानी से पीसकर नाभि पर लेप करने से विसूचिका (कॉलरा) तथा अतिसार का शमन होता है।
बच्चों को पेट में कीड़ा होने की बहुत समस्या होती है। इसके कारण बहुत तरह के बीमारियों के चपेट में आ जाते हैं। पेट से कीड़ा निकालने में ताड़ का इस तरह से सेवन करने पर लाभ मिलता है।
समान मात्रा में ताल जड़ के चूर्ण को कांजी में पीसकर थोड़ा गुनगुना करके नाभि पर लेप करने से पेट की कृमियों से राहत मिलती है।
लीवर की बीमारी होने पर लीवर को स्वस्थ करने पर ताल बहुत काम आता है। इसका सेवन इस तरह से करने पर फायदा मिलता है-
-10-15 मिली ताल फल-स्वरस को पिलाने से यकृत्-विकारों (लीवर की बीमारियों) में लाभ होता है।
फलों के ताजा रस में मिश्री मिलाकर पिलाने से मूत्रकृच्छ्र या मूत्र करने में कठिनाई या मूत्र करने में जलन आदि समस्या में लाभ होता है। इसके अलावा ताड़ के कोमल जड़ से बने पेस्ट (1-2ग्राम) को ठंडा करके शालि चावल के धोवन के साथ पीने से मूत्राघात (मूत्र का रुक जाना) में लाभ होता है।
अत्यधिक मात्रा में मूत्र होने पर ताल का इस तरह से सेवन करने पर लाभ मिलता है। ताल जड़ के चूर्ण में समान मात्रा में खजूर, मुलेठी, विदारीकन्द तथा मिश्री का चूर्ण मिलाकर 2-4 ग्राम चूर्ण को शहद के साथ सेवन करने से मूत्रातिसार (अत्यधिक मात्रा में मूत्र होना) में लाभ होता है।
ताल के जड़ का इस तरह से प्रयोग करने पर डिलीवरी के दौरान के प्रक्रिया में आसानी होती है। ताल जड़ को सूत्र में बाँधकर, आसन्न प्रसवा स्त्री ( जिस महिला की डिलीवरी होने वाला है) की कमर में बाँध देने से सूखपूर्वक प्रसव हो जाता है।
आजकल की भाग-दौड़ और तनाव भरी जिंदगी ऐसी हो गई है कि न खाने का नियम और न ही सोने का। फल ये होता है कि लोग को मधुमेह या डायबिटीज की शिकार होते जा रहे हैं। ताजी ताड़ी को चावल के आटे में मिलाकर, मंद आंच पर पकाकर पोटली जैसा बनाकर बांधने से प्रमेह पीड़िका तथा छोटे-मोटे घाव में लाभ मिलता है।
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उन्माद में लाभकारी ताड़ (Taad Fruit for Insanity in Hindi)
मस्तिष्क के कार्य को बेहतर तरीके से करने में ताड़ मदद करता है। ताड़ की शाखाओं के 5-10 मिली रस में मधु मिला कर सेवन करने से उन्माद या पागलपन में लाभ होता है।
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आयुर्वेद में ताड़ वृक्ष के पत्ता, जड़, फल तथा फूल का प्रयोग औषधि के लिए सबसे ज्यादा किया जाता है।
बीमारी के लिए ताड़ के सेवन और इस्तेमाल का तरीका पहले ही बताया गया है। अगर आप किसी ख़ास बीमारी के इलाज के लिए ताड़ का उपयोग कर रहे हैं तो आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह ज़रूर लें।
चिकित्सक के परामर्श के अनुसार ताड़ के वृक्ष का
-20-40 मिली रस और
-1-3 ग्राम चूर्ण का सेवन कर सकते हैं।
ताड़ी का सेवन खांसी होने पर, ठंडा लगने पर, श्वास की नलिका में सूजन होने आदि में वर्जित होता है।
यह प्राय: सभी स्थानों पर विशेषकर शुष्क प्रदेशों में तथा समुद्र तटीय प्रदेशों में पाए जाता है। भारत के उष्ण एवं रेतीले प्रदेशों में इसके वृक्ष पाए जाते है। जिस प्रकार खजूर के वृक्ष से नीरा नामक रस प्राप्त होता है। उसी प्रकार ताड़ वृक्ष से ताड़ी नामक रस प्राप्त होता है। इस रस या ताड़ी को प्राप्त करने के लिए वृक्ष के सबसे ऊपर पत्तों के समूह के नीचे जो ताल मंजरी (Spadix) होती है, उसके निचले भाग पर लौह, सलाखा से छेद करके उस स्थान पर मिट्टी का पात्र या चूने के जल से पुते हुए कलईदार पात्र को बाँध देते हैं। कुछ ही समय पश्चात् यह रस पात्र में इकट्ठा हो जाता है। इसी रस को ताड़ी कहते हैं। स्त्री जाति के वृक्ष में नर जाति के वृक्ष की अपेक्षा ज्यादा मात्रा में ताड़ी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त ताड़ के पत्रों से पंखे भी बनाए जाते है। ताड़ के पंखों की वायु उत्तम, त्रिदोष शामक होती है।
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