वानस्पतिक नाम : Anethum graveolens Linn. (अनेथम् ग्रेव्योलेन्स) Syn-Peucedanum graveolens (Linn.) Hiern
कुल : Apiaceae (एपिऐसी)
अंग्रेज़ी में नाम : Indian dill fruit (इन्डियन डिल फ्रूट)
संस्कृत-सितच्छत्रा, संहितच्छत्रिका, शताह्वा, छत्रा, शतपुष्पा, मधुरा, मिसि, अतिलम्बी; हिन्दी-सोआ, सोया, सोवा, बनसौंफ; उर्दू-सोया (Soya); काश्मीरी-सोई (Soi), बीओल (Biol); कन्नड़-सब्बाशीघ्रे (Sabbasige), सूर्वा-नू-बी (Surva-nu-bi), सदापा वीट्टूलू (Sadapa vittulu); गुजराती-सूरवा (Surva); तमिल-सतकूप्पी (Satakkuppi), शतकूवीराई (Shatakuvirai); तेलुगु-पुश्तकूपीविटुलू (Pushtkupivittulu); बंगाली-सलूका (Saluka), सुल्फा (Sulfha); नेपाली-सौंफ (Saunf), सूप (Soup); पंजाबी-सोवा (Sowa), सोया (Soya); मराठी-बालंत शोप (Balant shop), सेपु (Shepu); मलयालम-सोवा (Sova), सथाकूप्पा (Sathakuppa), सुवा (suva)।
अंग्रेजी-डिल (Dill), डिल सीड (Dill-seed); अरबी-चीबट (Chibt), शीविट (Shibit), शेबेट (Shebet); फारसी-सोल (Shol)।
परिचय
समस्त भारत में इसकी खेती की जाती है। सोया का उपयोग घरेलू औषधि के रूप में और आयुर्वेद शास्त्र में प्राचीन काल से हो रहा है। अनेक देशों में प्रसूता की पाचन क्रिया और दुग्ध को बढ़ाने के लिए तथा मुखशोधन के लिए भोजन करने के पश्चात् सोया खिलाने का रिवाज है। आचार्य चरक ने आस्थापनोपग एवं अनुवासनोपग दशेमानि में इसकी गणना की है। चरकसंहिता में पार्श्वांस-शूल में लेपार्थ एवं अपरापातन के समय शतपुष्पादि से सिद्ध तैल का पिचु धारण करने का विधान है। काश्यपसंहिता में शतपुष्पा-शतावरीकल्प‘ नामक एक स्वतत्र अध्याय का वर्णन किया गया है। इसका पौधा 30-90 सेमी ऊँचा तथा सुगन्धित होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
सोआ कटु, तिक्त, लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, कफवातशामक, वेदनास्थापन, शोथहर तथा व्रणपाचक होता है।
सोआ रुचिकारक, दीपन, पाचन, वातानुलोमक तथा कृमिघ्न होता है।
इसका प्रयोग उदरशूल, आध्मान, पक्षाघात, सन्धिवात तथा शोथ में लाभप्रद है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
करते हैं।
प्रयोज्याङ्ग :पत्र, बीज तथा बीज तैल।
मात्रा :चूर्ण 1-2 ग्राम। क्वाथ 15-30 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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