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Shatpushpa: फायदे से भरपूर है शतपुष्पा- Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Anethum graveolens Linn. (अनेथम् ग्रेव्योलेन्स)  Syn-Peucedanum graveolens (Linn.) Hiern

कुल : Apiaceae (एपिऐसी)

अंग्रेज़ी में नाम : Indian dill fruit (इन्डियन डिल फ्रूट)

संस्कृत-सितच्छत्रा, संहितच्छत्रिका, शताह्वा, छत्रा, शतपुष्पा, मधुरा, मिसि, अतिलम्बी; हिन्दी-सोआ, सोया, सोवा, बनसौंफ; उर्दू-सोया (Soya); काश्मीरी-सोई (Soi), बीओल (Biol); कन्नड़-सब्बाशीघ्रे (Sabbasige), सूर्वा-नू-बी (Surva-nu-bi), सदापा वीट्टूलू (Sadapa vittulu); गुजराती-सूरवा (Surva); तमिल-सतकूप्पी (Satakkuppi), शतकूवीराई (Shatakuvirai); तेलुगु-पुश्तकूपीविटुलू (Pushtkupivittulu); बंगाली-सलूका (Saluka), सुल्फा (Sulfha); नेपाली-सौंफ (Saunf), सूप (Soup); पंजाबी-सोवा (Sowa), सोया (Soya); मराठी-बालंत शोप (Balant shop), सेपु (Shepu); मलयालम-सोवा (Sova), सथाकूप्पा (Sathakuppa), सुवा (suva)।

अंग्रेजी-डिल (Dill), डिल सीड (Dill-seed); अरबी-चीबट (Chibt), शीविट (Shibit), शेबेट (Shebet); फारसी-सोल (Shol)।

परिचय

समस्त भारत में इसकी खेती की जाती है। सोया का उपयोग घरेलू औषधि के रूप में और आयुर्वेद शास्त्र में प्राचीन काल से हो रहा है। अनेक देशों में प्रसूता की पाचन क्रिया और दुग्ध को बढ़ाने के लिए तथा मुखशोधन के लिए भोजन करने के पश्चात् सोया खिलाने का रिवाज है। आचार्य चरक ने आस्थापनोपग एवं अनुवासनोपग दशेमानि में इसकी गणना की है। चरकसंहिता में पार्श्वांस-शूल में लेपार्थ एवं अपरापातन के समय शतपुष्पादि से सिद्ध तैल का पिचु धारण करने का विधान है। काश्यपसंहिता में शतपुष्पा-शतावरीकल्प‘ नामक एक स्वतत्र अध्याय का वर्णन किया गया है। इसका पौधा 30-90 सेमी ऊँचा तथा सुगन्धित होता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

सोआ कटु, तिक्त, लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, कफवातशामक, वेदनास्थापन, शोथहर तथा व्रणपाचक होता है।

सोआ रुचिकारक, दीपन, पाचन, वातानुलोमक तथा कृमिघ्न होता है।

इसका प्रयोग उदरशूल, आध्मान, पक्षाघात, सन्धिवात तथा शोथ में लाभप्रद है।

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. मुख-दौर्गन्ध्य-सोया का क्वाथ बनाकर गरारा करने से मुख का शोधन होता है तथा मुख दौर्गन्ध्य का शमन होता है।
  2. कफज-विकार-कफज-विकारों के शमन हेतु सोया क्वाथ का प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से वमन द्वारा दोषों का निर्हरण हो जाता है।
  3. अतिसार-1 ग्राम सोया चूर्ण में समभाग मेथी दाना चूर्ण मिलाकर तक्र (छाछ) के साथ सेवन करने से अतिसार का शमन होता है।
  4. उदरकृमि-1 ग्राम सोया चूर्ण में 250 मिग्रा डीकामाली (नाड़ीहिंगु) तथा 65 मिग्रा हींग को मट्ठे के साथ मिलाकर पिलाने से उदरकृमियों का शमन होता है।
  5. उदरशूल-1-2 ग्राम सोया को चबाने से आध्मान तथा उदरशूल आदि उदर-विकारों का शमन होता है।
  6. शुष्क अर्श-शोथ एवं श्ला युक्त कठोर शुष्क अर्श में स्वेदन के लिए वचा और सोया की किञ्चित् उष्ण पोटली बना कर तैल से स्निग्ध कर अर्श पर सेक करना चाहिए। इससे वेदना तथा शोथ कम हो जाता है।
  7. स्तन्य विकृति-1-2 ग्राम सोया चूर्ण में शहद मिलाकर सेवन करने से स्तन्य विकृति का शमन होता है।
  8. 1-2 ग्राम सोया बीज चूर्ण में समभाग मिश्री मिलाकर सेवन करने से स्तन्य का शोधन तथा वृद्धि होती है।
  9. सूतिका-विकार-सोया के बीजों का क्वाथ बनाकर 15-30 मिली मात्रा में पिलाने से सूतिका विकारों का शमन होता है।
  10. वातरक्त-सोया के बीजों को दूध के साथ पीसकर शूलयुक्त भाग पर लेप करने से वातरक्त में लाभ होता है।
  11. वातरक्त-शतपुष्पा, कूठ और मुलेठी के क्वाथ से क्रमश सिद्ध किए हुए तैल को लगाने से वातरक्त की पीड़ा का शमन होता है।
  12. संधिवात-सोया के बीजों को तिल या जैतून के तैल में मिलाकर गुनगुना करके मालिश करने से संधिवात में लाभ होता है।
  13. संधिवेदना-सोआ का क्वाथ बनाकर बफारा देने से संधिवेदना तथा शोथ का शमन होता है।
  14. व्रण-सोआ की पत्तियों को पीसकर व्रण पर लगाने से व्रण जल्दी भरता है।
  15. रसायन (सन्तानोत्पत्ति हेतु)-4.5 किग्रा सोया चूर्ण को एक नए मिट्टी के पात्र में रख कर प्रात काल 5-20 ग्राम तक अथवा यथा-शक्ति घृत मिलाकर सेवन करके फिर उसके पच जाने पर दूध तथा चावल का भोजन करने से संतानरहित त्री भी यथेष्ट संतान प्राप्त करती है और वृद्ध पुरुष भी बल वर्ण से युक्त होकर दीर्घ आयु प्राप्त

करते हैं।

  1. रसायन-10-15 ग्राम शतपुष्पा के चूर्ण को मधु एवं घृत के साथ मिलाकर एक माह तक सेवन करने से बल, वर्ण तथा आयु की वृद्धि होती है।

प्रयोज्याङ्ग  :पत्र, बीज तथा बीज तैल।

मात्रा  :चूर्ण 1-2 ग्राम। क्वाथ 15-30 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।