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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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जानिये क्या है वात-पित्त-कफ और इनका हमारे स्वास्थ्य से संबंध

जब भी आप बीमार पड़ते हैं तो कुछ दवाइयां खाकर जल्दी से राहत पा लेते हैं लेकिन कुछ दिनों बाद आप फिर उसी बीमारी से पीड़ित हो जाते हैं। असल में कई ऐसे रोग होते हैं जिन्हें अगर जड़ से खत्म ना किया जाए तो वे बार-बार आपको परेशान करते हैं। आज की हमारी चिकित्सा प्रणाली रोग को जड़ से खत्म करने की बजाय उसके लक्षणों से तुरंत आराम दिलाने में ज्यादा कारगर है। यही वजह है कि अब लोगों का रुझान आयुर्वेद की तरफ ज्यादा बढ़ रहा है। आयुर्वेद की मदद से आप रोग से हमेशा के लिए छुटकारा पा सकते हैं।

 

Tridosha

 

प्राचीन काल से ही मनुष्य रोगों को दूर करने की कोशिशें करता रहा है। उस समय ऋषि मुनियों ने जड़ी बूटी और सही जीवनशैली के आधार पर चिकित्सा प्रणाली विकसित की जिसे आयुर्वेद का नाम दिया गया। आयुर्वेद शब्द का मतलब है : आयुष + वेद, अर्थात इस शब्द का अर्थ हुआ : जीवन का विज्ञान। साधारण शब्दों में कहें तो जीवन को ठीक तरह से जीने का विज्ञान ही आयुर्वेद है।

 

आयुर्वेद की मूल रचना संस्कृत में होने के कारण लोगों को आयुर्वेद के मूल नियमों को समझने में काफी मुश्किलें आती हैं। आयुर्वेदिक पद्धति से जुड़े दोष, गुण, रस और प्रकृति जैसे शब्दों को लोग जानते तो हैं लेकिन असल में इन शब्दों के सही मायने समझ नहीं पाते हैं। इसलिए हमारा यह प्रयास है कि हम आपको अपने लेखों के जरिये आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों को ठीक से समझा सकें और इससे जुड़ी संपूर्ण जानकारी उपलब्ध करा सकें।

 

आयुर्वेदिक पद्धति में इलाज के दौरान चिकित्सक सिर्फ़ रोग के लक्षणों को ही नहीं देखता बल्कि आपके मन, प्रकृति, दोषों (वात-पित्त-कफ) और धातुओं की स्थिति को भी ध्यान में रखता है। यही वजह है कि एक ही रोग से पीड़ित होने के बावजूद भी अलग-अलग मरीजों की प्रकृति और दोष के अनुसार उनकी दवाइयां अलग अलग हो सकती हैं। अब बात आती है कि ये दोष, मन, प्रकृति और धातु क्या हैं? आइये सबसे पहले दोष क्या है , इसे समझते हैं।

 

त्रिदोष सिद्धांत क्या है ?

जब इलाज के लिए आप किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि आपके शरीर में वात बढ़ गया है या पित्त के बढ़ जाने के कारण आपको यह समस्या हो रही है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि ये वात पित्त कफ क्या हैं? और इनके बढ़ जाने से शरीर को क्या नुकसान हैं?

 

हमारा शरीर पांच तत्वों (जल, पृथ्वी, आकाश, अग्नि और वायु) से मिलकर बना है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर का स्वास्थ्य इन तीन चीजों पर सबसे ज्यादा निर्भर करता है : वात पित्त और कफ। ये तीनों अगर शरीर में संतुलित अवस्था में हैं तो आप स्वस्थ हैं, अगर इनमें से किसी का भी संतुलन बिगड़ा तो रोग उत्पन्न होने लगते हैं. इसी वजह से इन्हें ‘दोष’ कहा गया है। इन दोषों की संख्या तीन होने के कारण ही इन्हें त्रिदोष कहा गया है।

 

प्रत्येक दोष में ऊपर बताए गये पांच तत्वों में से 2 तत्व होते हैं और उन्ही तत्वों के स्वभाव के आधार पर इन दोषों के लक्षण निर्धारित होते हैं। जैसे कि वात दोष ‘आकाश’ और ‘वायु’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। इन दोनों तत्वों के स्वभाव में ही गतिशीलता है तो वात के लक्षण भी गति से जुड़े हैं।

 

इन दोषों के असंतुलित होने के दो मुख्य कारण हैं, पहला इन दोषों में बढ़ोतरी और दूसरा इनमें कमी। वैसे देखा जाए तो किसी दोष में बढ़ोतरी होने से ही रोग होते हैं क्योंकि अगर दोष स्वयं ही कमी की अवस्था में है वो रोग उत्पन्न नहीं कर पायेगा।

 

आपकी खराब जीवनशैली और खानपान से इनका प्रभाव बदलता रहता है और यही बीमारियों के मुख्य कारण हैं। इसे ऐसे समझें कि अगर आप कफ दोष को बढ़ाने वाली चीजें ज्यादा खा रहे हैं तो आपको कफ दोष से जुड़े रोगों के होने की संभावना बढ़ जाती है।

 

असल में हमारे शरीर का निर्माण दोष, धातु और मल इन तीनों से मिलकर हुआ है और इसमें भी दोष को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। जब ये तीनों दोष संतुलित रहते हैं तो शरीर स्वस्थ रहता है अगर इनमें से किसी एक का भी संतुलन बिगड़ा तो आप किसी न किसी रोग के शिकार हो सकते हैं। ये तीनों दोष खुद दूषित होकर धातु और मल को भी प्रभावित कर देते हैं और शरीर में रोग उत्पन्न कर देते हैं। इसलिए इन दोषों को संतुलित होना ही स्वस्थ होने की पहली निशानी है।

 

1- वात दोष :

वात दोष “वायु” और “आकाश” इन दो तत्वों से मिलकर बना है। वात दोष को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसके अनुसार जो तत्व शरीर में गति या उत्साह उत्पन्न करे वह ‘वात’ या ‘वायु’ कहलाता है।  शरीर में होने वाली सभी प्रकार की गतियाँ इसी वात के कारण होती हैं। जैसे कि हमारे शरीर में जो रक्त संचार होता है वो भी वात के कारण है। वात की वजह से ही शरीर की सभी धातुएं अपना अपना काम करती हैं। शरीर के अंदर मौजूद जितने भी खाली स्थान हैं वहां यह ‘वायु’ पाई जाती है। शरीर के किसी एक अंग का दूसरे अंग के साथ जो संपर्क है वो भी वात के कारण ही संभव है।

 

वात इतना प्रभावशाली है कि यह अन्य दोषों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा देता है। इसके कारण अगर उस जगह पर पहले से ही वो कोई दोष मौजूद है तो वो और बढ़ जाता है। हमारे शरीर के अंदर होने वाली कोई भी गतिविधि जिसमें गतिशीलता या मूवमेंट है वो वात की वजह से है। जैसे कि शरीर से पसीना, या मल-मूत्र निकलने की प्रक्रिया भी वात के कारण ही होती है। इस प्रकार देखें तो आयुर्वेद के अनुसार शरीर में सभी प्रकार के रोगों का मूल कारण वात ही है। जिस व्यक्ति के शरीर में वात दोष ज्यादा होता है वो वात प्रकृति वाला कहलाता है।

 

वात का शरीर में स्थान :

वात का शरीर में मुख्य स्थान कोलन या पेट माना जाता है। इसके अलावा नाभि से नीचे का भाग, छोटी व बड़ी आंतें, कमर, जांघ, टांग और हड्डियाँ भी वात के निवास स्थान हैं।

 

वात का आपके शरीर और स्वास्थ्य पर प्रभाव :

वात रुखा, शीतल, लघु, सूक्ष्म और चिपचिपाहट से रहित होता है। रुक्षता यानी रूखापन आदि वात के स्वाभाविक गुण हैं। वात के संतुलित होने से शरीर में रक्त का और मल-मूत्र का प्रवाह ठीक तरह से होता है।

वात प्रकृति वाले लोगों में निम्न लक्षण पाए जाते हैं, जैसे कि शरीर में रूखापन, दुबलापन, धीमी और भारी आवाज और नीद की कमी। इसके अलावा आंखों, भौहों, ठोड़ी के जोड़, होंठों, जीभ, सिर, हाथों व टांगों में अस्थिरता भी वात के मुख्य लक्षण हैं। वात प्रकृति वाले लोगों में निर्णय लेने में जल्दबाजी, जल्दी क्रोधित होना व चिढ़ जाना, जल्दी डर जाना, बातों को जल्दी समझकर फिर भूल जाने जैसी आदतें पाई जाती हैं।    

 

2- पित्त दोष :

पित्त दोष ‘अग्नि’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। पित्त शब्द संस्कृत के ‘तप’ शब्द से बना है जिसका मतलब है कि शरीर में जो तत्व गर्मी उत्पन्न करता है वही पित्त है। यह शरीर में उत्पन्न होने वाले एंजाइम और हार्मोन को नियंत्रित करता है। आम भाषा में इसे समझें तो हम जो कुछ भी खाते पीते हैं या सांस द्वारा जो हवा अंदर लेते हैं उन्हें खून, हड्डी, मज्जा, मल-मूत्र आदि में परिवर्तित करने का काम पित्त ही करता है। इसके अलावा जो मानसिक कार्य हैं जैसे कि बुद्धि, साहस, ख़ुशी आदि का संचालन भी पित्त के माध्यम से ही होता है।

 

पित्त में कमी से मतलब है कि आपकी पाचक अग्नि में कमी। अगर शरीर में पित्त दोष ठीक अवस्था में नहीं है तो इसका सीधा मतलब है कि आपके पाचन तंत्र में गड़बड़ी है। ऐसे लोगों को कब्ज़ से जुड़ी समस्याएं ज्यादा होती हैं। जिस व्यक्ति के शरीर में पित्त दोष ज्यादा होता है वो पित्त प्रकृति वाला कहलाता है।

 

पित्त का शरीर में स्थान :

शरीर में पित्त का मुख्य स्थान पेट और छोटी आंत है।  इसके अलवा छाती व नाभि का मध्य भाग, पसीना, लिम्फ, खून, पाचन तंत्र व मूत्र संस्थान भी पित्त के निवास स्थान हैं।

 

पित्त का आपके शरीर और स्वास्थ्य पर प्रभाव :

वात की ही तरह पित्त दोष का भी शरीर के स्वास्थ्य और स्वभाव पर प्रभाव पड़ता है। पित्त का मुख्य गुण अग्नि है। पित्त के संतुलित होने से पेट और आंत से जुड़ी सारी गतिविधियां ठीक तरह से होती हैं।

 

गर्मी ना बर्दाश्त कर पाना, शरीर का कोमल और स्वच्छ होना, त्वचा पर भूरे धब्बे, बालों का जल्दी सफ़ेद होना आदि पित्त के लक्षण हैं। इसका एक गुण तरल भी है जिसकी वजह से मांसपेशियों और हड्डियों के जोड़ों में ढीलापन, पसीना, मल और मूत्र का अधिक मात्रा में बाहर निकलने जैसे लक्षण आते हैं। शरीर के अंगों से तेज बदबू (कच्चे मांस जैसी गंध) आना भी पित्त के कारण ही होता है।  

 

3- कफ दोष :

कफ दोष ‘पृथ्वी’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। दोषों के महत्व और क्रम के अनुसार कफ तीसरे स्थान पर आता है। कफ दोष शरीर के सभी अंगों का पोषण करता है और बाकी दोनों दोषों वात और पित्त को भी नियमित करता है।  हमारी मानसिक और शारीरिक काम करने की क्षमता, रोग प्रतिरोधक क्षमता, काम शक्ति, धैर्य, क्षमा और ज्ञान आदि कफ के गुण हैं। कफ में मौजूद तमोभाव ही नींद का मुख्य कारण है।

 

शरीर में अगर कफ की मात्रा में कमी आती है तो बाकी दोनों दोष अपने आप ही बढ़ने लगते हैं। कफ भारी, मुलायम, मधुर, स्थिर और चिपचिपा होता है। यही इसके स्वाभाविक गुण हैं। जिस व्यक्ति के शरीर में कफ दोष ज्यादा होता है वो कफ प्रकृति वाला कहलाता है।

 

कफ का शरीर में स्थान :

हमारे शरीर में कफ का मुख्य स्थान पेट और छाती है। इसके अलवा गले का ऊपरी भाग, कंठ, सिर, गर्दन,  हड्डियों के जोड़, पेट का ऊपरी हिस्सा और वसा भी कफ के निवास स्थान हैं.

 

कफ का आपके शरीर और स्वास्थ्य पर प्रभाव :

कफ प्रकृति वाले लोगों में निम्नलिखित लक्षण पाए जाते हैं। जैसे कि इनकी चाल स्थिर और गंभीर होती है। भूख, प्यास और गर्मी कम लगना, पसीना कम आना, शरीर में वीर्य की अधिकता, जोड़ों में मजबूती और स्थिरता, शरीर में गठीलापन और शारीरिक अंगों में चिकनाहट इसके प्रमुख लक्षण हैं। इसके अलावा कफ प्रकृति वाले लोग सुन्दर, खुशमिजाज, कोमल और गोर रंग के होते हैं।

अब आप तीनों दोषों से भलीभांति परिचित हो चुके हैं। आगे हम आपको प्रत्येक दोष और उनके लक्षणों के बारे में विस्तार से बतायेंगे।