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Trikoshki: त्रिकोशकी के ज़बरदस्त फायदे- Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Mukia maderaspatana (Linn.) M. Roem. (मुकिआ मॅडेरास्पॅटाना) Syn-Melothria maderaspatana (Linn) Cogn. Cucumis maderaspatanus Linn.

कुल : Cucurbitaceae

(कुकुरबिटेसी)

अंग्रेज़ी में नाम : Mukia (मुकिआ), Madras pea pumpkin (मद्रास पी पंपकिन)

संस्कृत-त्रिकोशकी, कृतरन्ध्र; हिन्दी-अगमकी, बिलारी; कोंकणी-चिराटी (Chirati); कन्नड़-चित्राती (Chitrati), मनीडोंडे (Manidonde); गुजराती-टिन्दोरी (Tindori); तमिल-मुसु-मुसुक्कई (Musu-musukkai); तेलुगु-पोट्टीबुदामू (Pottibudamu), नूगोदोसा (Nugodosa); बंगाली-बीलारी (Bilari); मराठी-चिराटी (Chiraati), घुग्री (Ghugri); मलयालम-मुक्कलपिरम (Mukkalpiram)।

परिचय

समस्त भारत में लगभग 1800 मी0 की ऊचाईं तक यह लतारूपी वनस्पति प्राप्त होती है। इसकी बेल छोटी, खुरदुरी तथा रोमों से युक्त होती है। यह वर्षाकाल में उत्पन्न होकर इधर-उधर फैलती है। इसकी मूल श्वेतवर्ण की, महीन कण्टकों से युक्त तथा सुतली जैसी मोटी होती है। इसकी डण्डी एवं शाखाएं भी सुतली जैसी मोटी तथा खड़ी श्वेतधारियों से युक्त होती हैं। और इन पर छोटे और बड़े रोएं होते हैं। नवीन शाखाओं पर रोएं अधिक होते हैं। इसके फल चने या मटर जैसे एक ही स्थान में 1-4 की संख्या में लगे हुए होते हैं। कच्ची अवस्था में हरे वर्ण के तथा लम्बे  श्वेत रोमों से युक्त होते हैं और जैसे-जैसे पकते जाते हैं, इनके रोम कम होते जाते हैं। पूर्णत पक जाने पर चमकते हुए लाल रंग के तथा श्वेत वर्ण की लम्बी धारियों से युक्त होते हैं। प्रत्येक फल में चपटे, पीले या श्वेत रंग के 5-8 बीज होते हैं।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

अगमकी मधुर, तिक्त तथा पित्तशामक होती है।

यह पित्त तथा दाह, व्रण शामक होती है।

इसकी मूल कफहर, कास, श्वास, दन्तशूल, गुल्म तथा शूल शामक होती है।

यह वेदनाहर, वातानुलोमक तथा आध्मानरोधी होती है।

इसके बीज स्वेदजनक होते हैं।

इसके प्ररोह तथा पत्र मृदु विरेचक होते हैं।

इसके फल मूत्रबहुलता, अर्श, मूत्रकृच्छ्रता तथा राजयक्ष्मा में हितकर होते हैं।

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. शिरशूल-अगमकी मूल को पीसकर मस्तक पर लगाने से शिरशूल का शमन होता है।
  2. दंतशूल-अगमकी मूल को चबाकर थूक देने से दंतशूल का शमन होता है।
  3. श्वास-कास-1 ग्राम अगमकी के पञ्चाङ्ग चूर्ण में शहद मिलाकर सेवन करने से श्वास-कास में लाभ होता है।
  4. 2-3 ग्राम पञ्चाङ्ग का क्वाथ बनाकर सेवन करने से श्वास-कास में लाभ होता है।
  5. उदर विकार-1 ग्राम अगमकी पञ्चाङ्ग चूर्ण में शहद मिलाकर सेवन करने से दाह, अजीर्ण, आध्मान, शूल तथा विबन्ध में लाभ होता है।
  6. अफारा-अगमकी मूल का क्वाथ 15-20 मिली मात्रा में बनाकर पिलाने से अफारा में लाभ होता है।
  7. उदरविकार-अगमकी मूल का शीत कषाय (10-20 मिली) पिलाने से उदर विकारों का शमन होता है।
  8. पञ्चाङ्ग का क्वाथ बनाकर पिलाने से मधुमेह में लाभ होता है तथा रक्त का शोधन होता है।
  9. कटिशूल-अगमकी बीजों को पीसकर कटि पर लेप करने से कटिशूल का शमन होता है।
  10. व्रण-अगमकी पञ्चाङ्ग को पीसकर व्रण पर लेप करने से व्रण जल्दी भर जाता है।
  11. पत्रों की पुल्टिस बनाकर बांधने से फोड़ा पककर फूट जाता है।
  12. मूल को गोमूत्र के साथ घिसकर लगाने से जीर्ण व्रण का रोपण तथा शोधन होता है।
  13. बीज को पीसकर फोड़े में लगाने से फोड़ा पककर फूट जाता है तथा पूय का निस्सरण हो जाता है।
  14. सर्वाङ्ग शूल-अगमकी के बीज को पीसकर लेप करने से सर्वांङ्ग शूल का शमन होता है।
  15. 500 मिग्रा सूखे हुए बीजों में गिलोय तथा तुलसी मिलाकर काढ़ा बनाकर पीने से जीर्ण ज्वर में लाभ होता है।

प्रयोज्याङ्ग  : पञ्चाङ्ग, मूल, नवीन प्रतान, पत्र, फल, बीज एवं बीज तैल।

मात्रा  : मूल (शीत कषाय) 10-20 मिली। पञ्चाङ्ग 1-2 ग्राम। क्वाथ 15-20 मिली। चिकित्सक के परामर्शानुसार।

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