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Surankand: नव जीवन दे सकती है सूरनकन्द- Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Amorphophallus paeoniifolius (Dennst-Nicolson) (एमोर्फोपेफलस् पैओनीफोलियस)

Syn-Amorphophallus campanulatus (Roxb.) Bl. ex. Decne.

कुल : Araceae (ऍरेसी)

अंग्रेज़ी में नाम : Elephant yam (ऐलिफैन्ट याम)

संस्कृत-सूरण , अर्शोघ्न , कन्द, ओल, कन्दल; हिन्दी-सूरनकन्द, जमीकन्द, जिमिकन्द, ओल; कोंकणी-सूमा (Suma), सुरना (Surna); कन्नड़-सुवर्णा-गेडडे (Suvarna-gedde), सूरण (Suran); गुजराती-सूरण (Suran); तेलुगु-थीयाकन्धा (Thiya-kandha), कन्द (Kanda), कन्दगोडडा (Kandgodda); तमिल-काराक्कारानाई (Karakkaranai), कणैकिलंगु (Kaneikilangu), करुनाकालंग (Karunakkalang); बंगाली-ओला (Ola), ओल (Ol); मराठी-जंगली सूरण (Jangli suran), सूरण (Suran); मलयालम-कीजहान्ना (Kizhanna), करुनाकरग (Karunakarang)।

फारसी-ओला (Ola), जमीकन्द (Zaminkand)।

परिचय

भारत के सभी मैदानी भागों में इसकी खेती की जाती है। इसकी चार प्रजातियां होती है। जिनका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। सूरन को समस्त कन्द शाकों में श्रेष्ठ कहा गया है। सूरन अर्श में अत्यन्त लाभप्रद होता है। सूरण की समस्त प्रजातियों के कन्द में आक्जलेट पाया जाता है जिसके कारण कच्चे सूरन का सेवन करने से मुखपाक, कण्ठदाह तथा कण्डू आदि उपद्रव उत्पन्न होते है। अत सूरन को अच्छी तरह पकाकर ही इसका सेवन करना चाहिए।

  1. 1. Amorphophallus paeoniifolius (Denst.) (सूरण)

इसका 30 सेमी से 1 मी ऊँचा दृढ़ क्षुप होता है। इसके पत्र 30-90 सेमी व्यास के, अनेक भाग में विभक्त, हरित रंग का एवं छत्र की तरह फैला हुआ रहता है। इसके कन्द प्राय चैत्र-वैशाख मास में लगाए जाते हैं तथा आश्विन शुक्ल पक्ष से लेकर फाल्गुन के अन्त तक ये खोदे जाते हैं। इस प्रकार प्राय 6 मास तक ये सुविधा से प्राप्त होते हैं। कन्द की परिपूर्णता के लिए यह 3 या 6 वर्ष तक भी नहीं खोदा जाता। ऐसे

परिपूर्ण हुए इसके बहुत बड़े-बड़े कन्द, हाथी के पग या उससे भी मोटे, गोल, चक्राकार होते हैं, किन्तु इसके लिए सानूकुल एवं उचित सिंचाई की आवश्यकता होती है। ये कन्द गहरे बादामी रंग के, ऊपर के भाग में दबे हुए होते है। इसके कन्द से अनेक श्वेत वर्ण की जड़े निकली हुई होती है। इसके कन्द का प्रयोग शाक व अचार बनाने के लिए किया जाता है।

  1. 2. Amorphophallus bulbifer (Roxb.) Blume (मन्दगर सूरन)- इसका पौधा सूरण के समान दिखने वाला परन्तु सूरण से बड़ा होता है। इसके कन्द सूरण से बड़े होते हैं। कई स्थानों पर इसके कंद का प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है। इसके कंद को अच्छी तरह उबालने के पश्चात् इसका प्रयोग करना चाहिए। सूरण के स्थान पर इसका प्रयोग किया जाता है परन्तु यह सूरण से कम गुणकारी होता है।
  2. 3. Amorphophallus margaritifer (Roxb.)Kunth (बहुपर्ण सूरण)- इसका पौधा सूरण से छोटा होता है। इसके पत्र तथा कन्द सूरण की अपेक्षा छोटे होते हैं। इसके कन्द का प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

सूरन कटु, कषाय, उष्ण, लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, कफवातशामक, अर्शोघ्न, वाजीकरण, दीपन, रुचिकारक, विष्टम्भी, पाचन, स्रंसन, कण्डुकारक, विशद तथा पथ्य होता है।

यह अर्श, प्लीहारोग, गुल्म, कृमि, श्वास, कास, छर्दि, शूल तथा अरोचक नाशक होता है।

सूरण शाक रक्तपित्त प्रकोपक होता है।

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. कर्णमूल शोथ-वन सूरण को पानी में घिसकर या सूखे हुए कंद को पानी के साथ पीसकर लगाने से कर्णमूलशोथ में लाभ होता है।
  2. उदररोग-10-12 ग्राम जंगली सूरण कल्क को दही के मध्य रखकर या दही लपेट कर निगल जाने से उदररोग का शमन होता है।
  3. उदरशोथ-सूरन का शाक बनाकर सेवन करने से उदरशोथ का शमन होता है।
  4. उदर विकार-सूरन की नवीन पत्तियों का शाक बनाकर सेवन करने से उदरविकारों का शमन होता है।
  5. अर्श-सूरण पर मिट्टी की मोटी परत लगाकर, सूखने पर आग में अच्छी तरह पका कर, पकने पर मिट्टी हटा कर, साफ कर तैल में भून कर बनाएं मिलाकर खाने से अर्श में अतिशय लाभ होता है।
  6. 2-4 ग्राम सूरणकंद चूर्ण में समभाग कुटज त्वक् चूर्ण को मिलाकर तक्र के अनुपान के साथ सेवन करने से अर्श में लाभ होता है।
  7. पुटपाक विधि से प्राप्त 50 मिली सूरण स्वरस में 10-12 मिली तिल तैल और 1 ग्राम बनाएं मिलाकर पीने से अर्श रोग में लाभ होता है।
  8. (कल्याणक लवण) समभाग शुद्ध भल्लातक, त्रिफला, दंती, चित्रकमूल तथा सूरण में दो गुना मिलाकर बनाएं, मिट्टी के घड़े में बंद कर, उपलों की मंद अग्नि में पकाकर प्राप्त लवण का मात्रापूर्वक सेवन अर्श में प्रशस्त है।
  9. एक मास तक अन्य कोई आहार न देकर केवल सूरण का शाक आदि रूप में सेवन करना चाहिए और तक्र पिलाना चाहिए, केवल इसी आहार पर रहने से अर्श का शमन होता है।
  10. अर्श-सूरण आदि औषधियों से निर्मित बाहुशाल गुड़ का मात्रानुसार सेवन करने से अर्श, गुल्म, वातोदर, आमवात, प्रतिश्याय, क्षय, ग्रहणी, पीनस, हलीमक, पाण्डु तथा प्रमेह रोगों में लाभ होता है।
  11. सूरणपिण्डी का उपयोग अर्श की चिकित्सा में किया जाता है।
  12. बृहत् सूरण वटक का सेवन करने से अर्श, ग्रहणी, श्वास-कास, क्षय, प्लीहा, श्लीपद, शोथ, भगन्दर तथा पलित रोग का शमन होता है। यह योग वृष्य, मेधावर्धक, अग्निवर्धक तथा रसायन होता है।
  13. अर्श-जंगली सूरण के चूर्ण को घी में भूनकर, मूली के रस में घोंटकर, 250 मिग्रा की गोलियां बनाकर प्रातसायं 2-2 गोली खिलाने से अर्श में लाभ होता है।
  14. संधिवात-सूरन घनकंद को पीसकर जोड़ों पर लेप करने से संधिवात का शमन होता है। (लेप करने से पहले संधियों में तैल लगा लेना चाहिए।)
  15. श्लीपद-सूरणकन्द कल्क में मधु तथा घी मिलाकर लेप करने से वल्मीक और श्लीपदजन्य शोथ का शमन होता है।
  16. अर्बुद (रसोली)-अग्नि पर भूने हुए सूरणकन्द में घी और गुड़ मिलाकर, पीसकर लेप करने से अर्बुद का शमन होता है।
  17. मेदजन्य-ग्रन्थि-अच्छे पके हुए सूरण के कन्द को सोंठ और जल के साथ भलीभाँति पीसकर ग्रन्थियों पर उसका बारम्बार लेप कराना चाहिए। सात दिन तक लेप करने से ग्रन्थियाँ नष्ट हो जाती हैं।

प्रयोज्याङ्ग  : घनकंद।

मात्रा  : कल्क 10-12 ग्राम। स्वरस 50 मिली। चिकित्सक के परामर्शानुसार।

विशेष  : सूरण को सम्पूर्ण कन्दशाकों में श्रेष्ठ समझा जाता है, किन्तु यह दद्रु, कुष्ठ तथा रक्तपित्त के रोगियों के लिए हितकर नहीं होता है।