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Shleshmatmak: बेहद गुणकारी है श्लेष्मातक- Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Cordia dichotoma Forst.f. (कॉडिया डाईकोटोमा) Syn-Cordia myxa Forst.f., Cordia obliqua Willd.      

कुल : Boraginaceae (बोराजिनेसी)

अंग्रेज़ी नाम : Sebastian tree (सेबेस्टीएन ट्री)

संस्कृत-बहुवार, शीत , उदाल, बहुवारक, शेलु , श्लेष्मातक, भूतवृक्षक, शैलु, गन्धपुष्प, पिच्छिल; हिन्दी-लिसोड़ा, लिसारा, छोरा लसोरा; उर्दू-लसोरा (Lasora); उड़िया-अम्बाटा (Ambata), अमोभोटो (Amobhoto), बोहुरोलो (Bohurolo); कन्नड़-छल्लंगयी (Challangayi), छल्ले (Challe), सोल्ले (Solle); कोंकणी-नील्ती (Nilti);  गुजराती-बरघन्द (barghand), गुंदो (Gundo), पिस्तान (Pistan); तेलुगु-बोटूका (Botuka), चीन्ना (Chinna), चित्र नक्केरु (Chitra nkkeru); तमिल-कलवीरुसू (Kalvirusu), ररिवली (Rarivali); बंगाली-बोहरी (Bohari), लशोरा (Lashora), बहुवार (Bahuvar); नेपाली-बोहोरी (Bohori), मुक (Muk); पंजाबी-लस्वारा (Laswara); मराठी-भोकरा (Bhokara), चोकरी (Chokari), शेलू (Shelu); मलयालम-अरी (Ari), वीरुशाम (Virusham), काराती (Karati), वीडी (Vidi)।

अंग्रेजी-इण्डियन चेरी (Indian cherry), क्लेमी चेरी (Clammy cherry), सीबेस्टीएन प्लम (Sebestian plum); अरबी-सपिष्तन (Sapistan) फारसी-सपिष्तन (Sapistan), सुगपिसतन (Sugpistan); ।

लघु श्लेष्मातक के नाम

संस्कृत-लघुश्लेष्मातक; हिन्दी-गोंडी, गोंदनी, गुण्डी; कन्नड़-किरिचल्ले (Kirichallae); कोंकणी-गुंडी (Gundi); गुजराती-गुन्डी (Gundi); तमिल-नरूविलि (Naruvili); तेलुगु-छिन्नविरिणी (Chinnavirini), चिनाबोटुफू (Chinabotufu); पंजाबी-गोंदी (Gondi); मराठी-गोंदिनी (Gondini); मलयालम-वेरी (Veri), वेराशम (Verasham)।

अंग्रेजी-नैरो लीव्ड सेपीस्टेन (Narrow leaved sapistan), ग्रे लीव्ड सॉसरबेरी (Grey leaved saucerberry)।

परिचय

समस्त भारत में यह मुख्यत अर्ध पर्णपाती वनों में लगभग1000 मी की ऊँचाई तक इसके सदाहरित वृक्ष पाये जाते हैं। इसकी दो प्रजातियां 1. श्लेष्मातक (Cordia dichotoma Forst.f.) तथा 2. लघु श्लेष्मातक (Cordia gharaf (Forst.) Ehrenb ex Aschers.) पाई जाती हैं जिनका प्रयोग चिकित्सा में जाता है।

  1. श्लेष्मातक (Cordia dichotoma Forst.f.) इसका वृक्ष लगभग 14 मी उढचाँ तथा सदा हरित होता है। इसकी छोटी शाखाएं लाल रंगयुक्त भूरे वर्ण की होती हैं। इसके पत्र छोटे तथा चिकने होते हैं, जो पूरे बढ़ने पर कुछ खुरदरे हो जाते हैं। इसके पुष्प श्वेत वर्ण के होते हैं। इसके फल गुच्छों में लगते हैं जो कच्ची अवस्था में हरे तथा पकने पर गुलाबी पीले हो जाते हैं। इसके बीज पारदर्शी, चिपचिपे, मधुर, खाद्य फलभित्ति से घिरे हुए होते हैं।
  2. लघु श्लेष्मातक (Cordia gharaf (Forst.) Ehrenb ex Aschers.) इसक वृक्ष श्लेष्मातक से छोटा होता है। इसके पुष्प श्वेत वर्ण के तथा छोटे होते हैं। इसके फल पक्वावस्था में पीत अथवा रक्ताभ भूरे वर्ण के, चिकनी पारभासी खाद्य फलभित्ति युक्त होते हैं।

उपरोक्त वर्णित श्लेष्मातक की मुख्य प्रजाति के अतिरिक्त निम्नलिखित प्रजाति का प्रयोग भी चिकित्सा में किया जाता है।

Cordia macleodii Hook.f. & Thomson (वन्य श्लेष्मातक, दहिमान)- यह लगभग 3-8 मी तक ऊँचा मध्यमाकार वृक्ष होता है। इसकी शाखाएं सफेद रोमों से आवृत होती है। फूल सफेद तथा सुगन्धित होते है। फल अण्डाकार होते हैं। इसके पञ्चाङ्ग का प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। इसकी लकड़ी का प्रयोग मथानी बनाने के लिए किया जाता है। इसकी लकड़ी अत्यधिक ठोस होती है इस कारण इसमें दीमक नहीं लगती तथा कहा जाता है कि इसकी लकड़ी को घर में रखने से शान्ति रहती है तथा घर में किसी प्रकार के जहरीले जानवर नहीं आते। इसका प्रयोग स्त्राr रोग, उदर विकार, रक्त विकार, श्वास, त्वचा रोग तथा विभिन्न विकारों की चिकित्सा में किया जाता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

श्लेष्मातक

लिसोड़ा मधुर, तिक्त, कटु, कषाय, शीत, लघु, पिच्छिल तथा कफपित्तशामक होता है।

यह केश्य, पाचक, विष्टम्भी, ग्राही, स्निग्ध, विषघ्न, विष, स्फोट, व्रण, विसर्प, कुष्ठ, कृमि, शूल तथा आमदोष नाशक होता है।

इसका कच्चा फल रूक्ष, शीतल, मधुर, तिक्त, लघु, वातवर्धक, रुचिजनक, पित्तकफशामक, विष्टम्भी, रक्तदोष तथा दृष्टिविकार शामक होता है।

इसकी छाल रक्तपित्त तथा अतिसार शामक होती है।

इसके पक्व फल मधुर, शीत, गुरु, स्निग्ध, वातपित्त शामक, पुष्टिकारक, विष्टम्भकारक, कफवर्धक; वृष्य, बहुव्रण, विस्फोट, रक्त विकार तथा क्षयनाशक होते हैं।

इसके बीज कृमिघ्न होते हैं।

लघु श्लेष्मातक

छोटा लिसोड़ा मधुर तथा किंचित् शीत होता है।

यह वात को प्रकुपित करने वाला, स्वर्ण का मारण करने वाला तथा कृमिनाशक होता है।

इसकी काण्ड त्वक् कषाय, कटु, मृदुकारी तथा मूत्रल होती है।

इसके पत्र कषाय, पोषक, शीतल, कामोत्तेजक, मृदुकारी तथा मूत्रल होते हैं।

इसके फल शीतल, कषाय, कृमिघ्न, विषशामक, बलकारक, कामोत्तेजक, पोषक, मृदुकारी, मूत्रल, स्नेहक एवं कफनिसारक; श्वेतप्रदर, शुक्रमेह, मधुमेह, तृष्णा, अरुचि एवं मूत्रदाहशामक होते हैं।

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. केश कृष्णीकरणार्थ (बालों को काला करने के लिए)-श्लेष्मातक फल मज्जा को कांजी से पीसकर छिद्रयुक्त लौह पात्र में भर कर धूप में तपा कर अधपातन-विधि से प्राप्त तैल का नस्य तथा अभ्यंग (मालिश) करने से केश शीघ्र काले होते हैं तथा आँख, कान, ग्रीवा आदि रोगों का भी शमन होता है।
  2. पलित रोग (बालों का पकना)-समभाग श्लेष्मातक, बहेड़ा, बन्दाक, गम्भारी तथा हरीतकी के कल्क से सिद्ध तैल का नस्य लेने से पलित (बालों का पकना) रोग का शमन होता है। इस अवधि में भोजन में सिर्पैं गाय के दूध का प्रयोग करना चाहिए।
  3. शिरोरोग-लौह पात्र में श्लेष्मातक के बीजों के अंतसार को कांजी के साथ पीसकर, धूप में तप्त कर प्राप्त तैल को नस्य एवं अभ्यंग के लिए प्रयोग करने से मुख तथा सिर के अनेक रोगों में लाभ प्राप्त होता है।
  4. शिरशूल (सिर दर्द)-श्लेष्मातक पत्र को पीसकर लेप करने से शिरशूल (सिर दर्द) विस्फोट, व्रण में लाभ होता है।
  5. कंठमाला-लिसोड़ा के पत्तों को हल्का गुनगुना करके कंठमाला पर बांधने से 10 दिन में कंठमाला में लाभ होता है।
  6. कास (खांसी)-श्लेष्मातक तथा शाल्मली के पत्तों को तवे पर गर्म करते हुए जलाकर, जले हुए पत्तों को पीस कर, थोड़ा सेंधानमक तथा मधु मिलाकर सेवन करने से कास (खांसी) का शमन होता है।
  7. 10-15 मिली लिसोड़ा पत्र क्वाथ को पीने से खांसी में लाभ होता है।
  8. फूफ्फूस विकार-लिसोड़ा फल का क्वाथ बनाकर 10-15 मिली मात्रा में सेवन करने से फूफ्फुस विकारों में लाभ होता है।
  9. (प्रतिश्याय) जुकाम-श्लेष्मातक छाल का क्वाथ बनाकर 10-15 मिली मात्रा में पीने से प्रतिश्याय (जुकाम) अजीर्ण, ज्वर में लाभ होता है।
  10. अतिसार-श्लेष्मातक की 1-2 ग्राम कोमल कोपलों को पीसकर खिलाने से अतिसार में लाभ होता है।
  11. उदर विकार-श्लेष्मातक के पत्रों को पीसकर उदर पर बांधने से उदर विकारों का शमन होता है।
  12. मूत्रकृच्छ्र-श्लेष्मातक छाल का हिम बनाकर 10-15 मिली मात्रा में पीने से मूत्रकृच्छ्र में लाभ होता है।
  13. उपदंश-श्लेष्मातक के गुठली रहित कच्चे फल चूर्ण (2-4 ग्राम) से अजा दुग्ध (200 मिली) को पकाकर उसमें मिश्री मिलाकर पीने से उपदंश में अंतव्रण जन्य वेदना का शमन हो जाता है।
  14. कफजविसर्प-आरग्वध पत्र तथा श्लेष्मातक त्वक् को समान मात्रा में लेकर पीसकर लेप करने से विसर्प का शमन होता है।
  15. मसूरिका-मसूरिका का प्रभाव यदि नेत्रों पर हो तब श्लेष्मातक छाल को पीसकर लेप तथा अंजन करना चाहिए। स्नानादि के लिए भी खदिर तथा श्लेष्मातक से सिद्ध जल का प्रयोग करना चाहिए।
  16. दद्रु (दाद)-श्लेष्मातक तथा शल्लकी के क्वाथ से दद्रु (दाद) को निरन्तर धोते रहने से धीरे-धीरे लाभ होता है।
  17. बीज मज्जा चूर्ण को तैल में मिलाकर लेप करने से दद्रु (दाद) का शमन होता है।
  18. त्वक्-विकार-श्लेष्मातक काण्डत्वक् को पीसकर लगाने से रोमकूप शोथ तथा विसर्प में लाभ होता है।
  19. खुजली-श्लेष्मातक की छाल को पीसकर लगाने से कण्डू का शमन होता है।
  20. दद्रु-श्लेष्मातक की फल मज्जा को पीसकर लगाने से दद्रु का शमन होता है।
  21. बदगांठ-श्लेष्मातक के पत्रों को पीसकर गुनगुना करके बदगांठ पर बांधने से लाभ होता है।
  22. रक्तपित्त-श्लेष्मातक का शाक बनाकर, घृत में भूनकर, आँवला स्वरस मिलाकर सेवन करना रक्तपित्त में पथ्य है।
  23. लूताविष-सभी प्रकार के लूता विष में श्लेष्मातक त्वचा तथा अक्षीव पिप्पली का पान अभ्यंग, अंजन आदि में उपयोग करना चाहिए।
  24. विष-श्लेष्मातक मूल, त्वक् तथा पत्रों का स्वरस (5-10 मिली) पीने से रक्तधातुगत विष का प्रभाव नष्ट होता है।

लघु श्लेष्मातक के प्रयोग

  1. शिरशूल-लघु श्लेष्मातक के पत्तों को पीसकर मस्तक पर लगाने से शिरशूल का शमन होता है।
  2. दंतशूल (दांत दर्द)-लघु श्लेष्मातक का क्वाथ बनाकर गरारा करने से दंतशूल (दांत दर्द) एवं मुखव्रण (मुख के छाले) का शमन होता है।
  3. मुख-विकार-लघु श्लेष्मातक की छाल का काढ़ा बनाकर गरारा करने से मुख-विकारों का शमन होता है।
  4. कण्ठ-प्रदाह-लघु श्लेष्मातक की छाल का क्वाथ बनाकर गरारा करने से कण्ठ प्रदाह का शमन होता है।
  5. कास (खांसी)-लघु श्लेष्मातक फल क्वाथ (10-15 मिली) का सेवन करने से शुष्क कास (सूखी खांसी) में लाभ होता है।
  6. अतिसार-10-15 मिली लघु श्लेष्मातक की छाल के क्वाथ का सेवन करने से अतिसार व जीर्ण ज्वर में लाभ होता है।
  7. विबंध-पक्व फलों का सेवन करने से मलबंध एवं उदरकृमियों (पेट के कीड़ों) का शमन होता है।
  8. त्वक् विकार-लघु श्लेष्मातक के पत्र को पीसकर लगाने से व्रण पिडका आदि त्वक् विकारों का शमन होता है।
  9. लघु श्लेष्मातक की छाल तथा पत्रों को पीसकर लगाने से दद्रु का शमन होता है।
  10. व्रण (घाव)-लघु श्लेष्मातक के पत्रों को जलाकर उसकी भस्म बना लें, इस भस्म में घृत मिलाकर घाव पर लगाने से घाव जल्दी भर जाता है।
  11. कण्डू (खुजली)-लघु श्लेष्मातक के तने की छाल को पीसकर लगाने से कण्डू का शमन होता है।
  12. दौर्बल्य (कमजोरी)-लघु श्लेष्मातक के पत्र तथा फल का प्रयोग सामान्य दौर्बल्य की चिकित्सा में किया जाता है।

प्रयोज्याङ्ग  :फल, बीज, पत्र तथा छाल।

मात्रा  :त्वक् हिम 10-15 मिली। त्वक् क्वाथ 15-20 मिली। स्वरस 5-10 मिली। चूर्ण 2-4 ग्राम। चिकित्सक के परामर्शानुसार।