वानस्पतिक नाम : Brassica campestris Linn. var. sarson Prain (ब्रैसिका कैम्पेस्ट्रिस भेद-सरसों)
कुल : Brassicaceae (बैसीकेसी)
अंग्रेज़ी में नाम : Yellow sarson (येलो सरसों)
संस्कृत-सर्षप, कटुस्नेह, सिद्धार्थ, तुन्तुभ, भूतघ्न; हिन्दी-सरसों, सरिसों, सर्सो; कन्नड़-आवालु (Aavalu); गुजराती-शरशब (Sharshab), शरशव (Sharshav); तमिल-सरसों (Sarson); तेलुगु-पच्चावलु (Pachhaavaalu); बंगाली-सरीसा (Sarisa); पंजाबी-सरसों (Sarson); मराठी-शिरशी (Shirshi)।
अंग्रेजी-इण्डियन कोल्जा (Indian colza); अरबी-उर्पैं अवयद खर्दे (Urfe avyad kharde); अजयज हुर्फ (Ajyaj hurf) फारसी-सर्षक (Sarshak), सरशफ (Sarshaf)।
परिचय
समस्त भारत में इसकी खेती की जाती है। सरसों का उपयोग आयुर्वेद में प्राचीनकाल से हो रहा है। चरकसंहिता में कण्डूघ्न, आस्थापनोपग तथा शिरोविरेचनोपग महाकषाय में सरसों का उल्लेख प्राप्त होता है। आचार्य चरक ने सरसों के शाक को अधम माना है। इसके अतिरिक्त आयुर्वेदीय संहिता तथा निघण्टुओं में अपस्मार, उन्माद आदि व्याधियों के उपचार के लिए सरसों का उपयोग नस्य तथा अभ्यंग के रूप में किया गया है।
इसके बीज छोटे, चिकने, गोलाकार, 1.2-1.5 मिमी व्यास के, पाण्डुर अथवा गहरे पीताभ-भूरे वर्ण के होते हैं। इनके बीजों से तैल निकाला जाता है। इसकी मूल वर्षायु, पतली तथा कंदीय होती हैं।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
सरसों कटु, तिक्त, उष्ण, तीक्ष्ण, लघु, स्निग्ध (किञ्चित्-रूक्ष), कफवातशामक तथा पित्तवर्धक होती है।
यह लेखन, वर्णकारक, रक्षोघ्न, शिरोविरेचनोपग, आमपाचक, जन्तुघ्न, वेदनास्थापक, स्नेहन, दीपन, विदाही, कृमिघ्न, संग्राही, हृद्य, रुचिकारक, रक्तपित्तवर्धक, पुंस्त्वघ्न्, दोषोत्क्लेशक, अचक्षुष्य (दृष्टिनाशक), कण्डुघ्न तथा आस्थापनोपग होती है।
इसका प्रयोग कण्डू, कृमि, त्वग्रोग, प्रतिश्याय, अरुचि, शूल, वातरक्त, व्रण, गुल्म, अर्श, ग्रहणी, कुष्ठ, शर्करा, अश्मरी, हिक्का, कास, श्वास, विष, पार्श्वशूल तथा उपदंश में लाभप्रद है।
इसका शाक मधुर, कटु, क्षारीय, गुरु, विदाहि, मल-मूत्र की मात्रा को कम करने वाला, अहितकर, रूक्ष, संग्राही, तीक्ष्ण, उष्ण, त्रिदोषप्रकोपक, रुचिकारक तथा वीर्यनाशक होता है।
इसका तैल लघु, कटु, दीपन, चक्षुष्य, उष्ण, तीक्ष्ण, रक्त तथा पित्त को दूषित करने वाला, कृमि, कण्डु, कुष्ठ, कफ, मेद, वात, शुक्र, अर्श, प्रमेह, कर्णरोग, शिरोरोग, श्वेत कुष्ठ तथा दुष्ट व्रण शामक होता है।
यह दोषकारक तथा शोषकारक होने से वस्तिकर्म में अनुपयोगी है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : पत्र, बीज तथा तैल।
मात्रा : चूर्ण 1-2 ग्राम चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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