Categories: जड़ी बूटी

Rakt Chandan: बेहद गुणकारी है रक्त चन्दन- Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Pterocarpus santalinus Linn.f. (टेरोकार्पस सैन्टेलिनस) Syn-Lingoum santalinum (Linn.f.) Kuntze

कुल : Fabaceae (फैबेसी)

अंग्रेज़ी नाम : Red Sandal Wood

(रैड सैनडल वुड)

संस्कृत-रक्तचंदन, रक्ताङ्ग, तिलपर्ण, रक्तसार, प्रवालफल, लोहित चंदन, मलयज; हिन्दी-लाल चंदन, रक्तचंदन; उड़िया- रक्तचंदन (Raktachandan), इन्द्राsचन्दोनो (Indrochandono); कन्नड़-रक्तशंदन (Raktashandana), होने (Hone); बंगाली-रक्तचंदन (Raktchandan); गुजराती-रतांजली (Ratanjali); तेलुगु-रक्तचंदनम् (Raktchandanam); तमिल-शेन् चंदनम् (Shen chandanam), अट्टी (Atti), सिवप्पु चंदनम (Sivappu chandanam); नेपाली-रक्तचंदन (Raktachandan); पंजाबी-लाल चन्दन (Lal chandan); मराठी-रक्तचंदन (Raktchandan), लाल चन्दन (Lal chandan); मलयालम-रक्तशंदनम् (Raktshandanam), पत्रान्गम (Patrangam), तिलपर्णी (Tilparnni)।   

अंग्रेजी-रूबीवुड (Ruby wood), इण्डियन सैनडलवुड (Indian sandal wood); अरबी-संदले अहमर (Sandale ahmar), सैन्डुलम्र (Sandulhamra), उन्डम (Undum); फारसी-संदले सुर्ख (Sandale surkh), बुकम (Buckum)।

परिचय

प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टुओं व संहिताओं में चन्दन के तीन भेदों का वर्णन प्राप्त होता है। सुश्रुत-संहिता के पटोलादि, सारिवादि तथा प्रिंग्वादि-गणों में रक्त-चन्दन का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त भावप्रकाश-निघण्टु में रक्त, श्वेत तथा पीत तीन प्रकार के चन्दनों का उल्लेख किया गया है। यह दक्षिणी भारत में मुख्यत दक्षिण-आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्वी कर्नाटक, उत्तरी तमिलनाडू, अण्डमान एवं महाराष्ट्र के शुष्क, पहाड़ी स्थानों में लगभग 150-900 मी तक की ऊँचाई पर पाया जाता है। कुछ विद्वान् रक्त-चन्दन के स्थान पर कुचन्दन या पंत्राग का ग्रहण करते है, परन्तु यह तीनों आपस में बिल्कुल भिन्न हैं। यद्यपि रक्त चन्दन तथा पंत्राग के वृक्षों में कुछ समानता पाई जाती है तथा कई स्थानों पर चन्दन के स्थान पर पंत्राग की लकड़ी का औषधकर्म हेतु प्रयोग किया जाता है। तथापि यह दोनों आपस में बिल्कुल भिन्न है।

इसका 8-11 मी ऊँचा, मध्यमाकारीय, सघन शाखा-प्रशाखायुक्त, पर्णपाती वृक्ष होता है। इसकी शाखाएँ धूसर वर्ण की होती हैं। इसकी छाल 1-1.5 सेमी मोटी, कृष्णाभ-भूरे वर्ण की तथा क्षत होने पर गहरे रक्तवर्णी निर्यास-युक्त होती है। इसकी अन्तकाष्ठ गहरे रक्तवर्ण या गहरे-बैंगनी वर्ण की होती है। इसके पत्र संयुक्त, 10-18 सेमी लम्बे, अण्डाकार, गोल तथा प्रत्येक पर्णवृन्त पर प्राय तीन-तीन या पांच-पांच पत्रक होते हैं। इसके पुष्प 2 सेमी लम्बे, सुगन्धित, द्वि-लिंगी, पीतवर्ण के, छोटे, लगभग 5 मिमी लम्बे पुष्पवृंत पर लगे होते हैं। इसकी फली 3.8-5 सेमी व्यास की होती है। बीज संख्या में 1-2, वृक्काकार, 1-1.5 सेमी लम्बे, रक्ताभ भूरे वर्ण के, चिकने तथा चर्मिल होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से मई तक होता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

लाल चन्दन, मधुर, तिक्त, शीत, लघु, रूक्ष, कफपित्तशामक, चक्षुष्य, वृष्य, रक्षोघ्न, बलकारक तथा वर्णकारक होता है।

यह छर्दि, तृष्णा, रक्तपित्त, ज्वर, व्रण, विष, भूत, कास, भान्ति तथा जन्तुनाशक होता है।

इसका काष्ठ स्तम्भक, बलकारक, ज्वरघ्न, कृमिघ्न, नियतकालिक व्याधिहर (Antiperiodic), स्वेदजनन तथा विषनाशक होता है।

यह उद्वेष्टनरोधी, स्दंक, सूत्रकृमिनाशक, शोथरोधी, संधिशूलहर, केन्द्राrय-तंत्रिकातंत्र अवसादक, आक्षेपहर, पुंस्त्वरोधी (Antiandrogenic), जीवाणुरोधी, ज्वरघ्न तथा अनूर्जतारोधी (Antiallergic) होता है।

औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि

  1. शिरोवेदना-रक्तचन्दन, उशीर, मुलेठी, बला, व्याघनखी तथा कमल इन 6 द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर दूध में पीसकर माथे पर लगाने से शिरशूल का शमन होता है।
  2. अर्धावभेदक-रक्त चन्दन की अन्तकाष्ठ को पीसकर मस्तक में लगाने से आधीसीसी की वेदना का शमन होता है।
  3. लालचन्दन, नमक तथा सोंठ को जल में घिसकर मस्तक पर लेप करने से सिर दर्द मिटता है।
  4. नेत्ररोग-लालचंदन को जल, शहद, घी अथवा तैल में घिसकर नेत्रों में लगाने से एक सप्ताह में जीर्ण काला मोतिया रोग में लाभ होता है।
  5. चन्दन 1 भाग, सेंधानमक 2 भाग, हरड़ 3 भाग तथा पलाश पत्र-स्वरस 4 भाग इनको मर्दन कर अंजन बनाकर प्रयोग करने से नेत्र रोगों में लाभ होता है।
  6. लाल चंदन के काष्ठीय भाग को जल में घिसकर, नेत्र के बाहर चारों तरफ लगाने से नेत्रशोथ में लाभ होता है।
  7. दन्तशूल-लालचंदन की अन्तकाष्ठ को पीसकर दांतों पर मलने से दंतशूल का शमन होता है।
  8. हिक्का-लालचन्दन को दुग्ध में घिसकर 1-2 बूंद नाक में डालने से हिक्का बन्द हो जाती है।
  9. पित्तातिसार-दारुहरिद्रा, धमासा, बेलगिरी, सुगन्धबाला तथा लाल चन्दन (2-4 ग्राम चूर्ण) अथवा लाल चन्दन, सुंधबाला, नारगमोथा, भूनिम्ब तथा धमासा चूर्ण का सेवन करने से आमदोष का पाचन होकर पित्तातिसार में लाभ होता है।
  10. रक्तातिसार-लालचन्दन का क्वाथ बनाकर 20-40 मिली क्वाथ में मधु मिलाकर पिलाने से रक्तातिसार बंद होता है।
  11. छर्दि-लाल चंदन के काष्ठीय-भाग को मधु में घिसकर चटाने से उलटी बंद हो जाती है।
  12. प्रवाहिका-लालचन्दन का क्वाथ बनाकर पीने से प्रवाहिका का शमन होता है।
  13. रक्तार्श-लाल चन्दन के पत्र अथवा छाल से बने काढ़े (20-40 मिली) का सेवन करने से अर्श में लाभ होता है।
  14. अनार का छिल्का, लालचंदन, चिरायता, धमासा तथा सोंठ का काढ़ा बनाकर 10-20 मिली काढ़े में गाय का घी मिलाकर पीने से रक्तार्श (खूनी बवासीर) में लाभ होता है।
  15. प्रदर-रक्त चन्दन आदि द्रव्यों से बने पुष्यानुग चूर्ण को खाने से प्रदर में अत्यन्त लाभ होता है।
  16. भग्न-मंजिष्ठा, मुलेठी, लाल चन्दन तथा शालि चावल को पीसकर शतधौत घृत में मिलाकर भग्न (हड्डी टूटना) पर लेप करने से लाभ होता है।
  17. व्यंग-लालचंदन, मंजिष्ठा, कूठ, पठानी लोध्र, फूल प्रियंगु, बरगद के अंकुर तथा मसूर की दाल को पीसकर चेहरे पर लेप करने से व्यंग (झाँई) का शमन होता है तथा मुख की कांति बढ़ती है।
  18. विसर्प-कमल नाल, लालचन्दन, लोध्र, खस, कमल, नीलकमल, अनन्तमूल, आमलकी और हरीतकी को दूध में पीसकर लेप करने से पित्तज विसर्प रोग में लाभ होता है।
  19. विद्रधि-श्वेत और लाल चन्दन को दूध में पीसकर लेप करने से पित्तज-विद्रधि का शमन होता है।
  20. लाल चन्दन, मंजिष्ठा, हरिद्रा, मुलेठी और गेरू इन 5 द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर दूध में पीसकर लेप करने से रक्तज विद्रधि एवं आगन्तुज-विद्रधि में लाभ होता है।
  21. अग्निदग्धव्रण-वंशलोचन, प्लक्ष, लाल चन्दन, गेरू और गुडूची इन 5 द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर, घृत मिलाकर लेप करने से दग्धव्रण का रोपण होता है।
  22. व्रण-लाल चंदन की काण्डत्वक् को पीसकर घाव पर लगाने से घाव जल्दी भर जाते हैं।
  23. त्वक्-विकार-रक्त चन्दन के काष्ठीय-भाग को पीसकर, गुनगुना करके लगाने से त्वचा रोगों में लाभ होता है।
  24. विसर्प- समभाग लाल चंदन तथा नीलकमल का काढ़ा बनाकर 20-40 मिली काढ़े को पिलाने से विसर्प में लाभ होता है।
  25. पित्तज-शोथ-मुलेठी, लालचन्दन, मूर्वा, नरसल मूल, पद्माख, खस, सुगन्धवाला तथा कमल इन द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर जल में पीसकर लेप करने से पित्तजशोथ में लाभ होता है।
  26. ज्वर-लाल चन्दन, वासा, नागरमोथा, गुडूची तथा द्राक्षा से निर्मित 20-40 मिली हिम को पीने से ज्वर का शमन होता है।
  27. तृतीयक-ज्वर-लाल चंदन, धनिया, सोंठ, खस, पीपल तथा मोथा इनसे निर्मित क्वाथ (20-40 मिली) में मधु तथा मिश्री मिलाकर पीने से तृतीयक ज्वर में लाभ होता है।
  28. लाल चंदन के पत्र तथा छाल का काढ़ा बनाकर 20-40 मिली मात्रा में पीने से ज्वर का शमन होता है।
  29. लाल चंदन को घिसकर पानी में मिलाकर पिलाने से ज्वर तथा ज्वर के कारण होने वाली दाह का शमन होता है।
  30. रक्तपित्त-समभाग उशीर, कालीयक, पठानी लोध्र, पद्मकाठ, फूलप्रियंगु, कायफल त्वक्, शंख भस्म, स्वर्ण गैरिक तथा सब के बराबर लाल चंदन अथवा उशीर, कालीयक आदि को अलग-अलग समभाग लाल चन्दन के साथ चूर्ण बनाकर 1-3 ग्राम की मात्रा में लेकर चावल के धोवन में घोल कर शर्करा मिला कर पीने से रक्तपित्त, अस्थमा/ दम फूलना अत्यधिक तृष्णा तथा दाह में शीघ्र लाभ होता है।

प्रयोज्याङ्ग : अन्तकाष्ठ, पत्र, त्वक् तथा फल।

मात्रा : चूर्ण-3-5 ग्राम, क्वाथ-20-40 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।

और पढ़ें चन्दन से व्हाइटहेड्स का उपचार

आचार्य श्री बालकृष्ण

आचार्य बालकृष्ण, आयुर्वेदिक विशेषज्ञ और पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्तंभ हैं। चार्य बालकृष्ण जी एक प्रसिद्ध विद्वान और एक महान गुरु है, जिनके मार्गदर्शन और नेतृत्व में आयुर्वेदिक उपचार और अनुसंधान ने नए आयामों को छूआ है।

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