वानस्पतिक नाम : Tridax procumbens Linn. (ट्राइडेक्स प्रोकम्बेन्स)
Syn. Balbisia canescens Rich.
कुल : Asteraceae (ऐस्टरेसी)
अंग्रेज़ी में नाम : Mexican daisy (मैक्सिकन डेसी)
संस्कृत-संधानकरणी, व्रणरोपा, व्रणारी; हिन्दी-सदाहरी, परदेशी लांगली, देशी संजीवनी खल-मुरिया, तल-मुरिया, पथरचूर, पथरफोड़,
पाषाणभेद, संजीवनी बूटी; कन्नड़-गब्बु सना सावन्थी (Gabbu sanna savanthi), नेट्टु गब्बु सावन्थी (Nettu gabbu savanthi); तमिल-वेटटुक्काया (Vettukkaya), थालई (Thalai); तेलुगु-गड्डीचामन्थी (Gaddichamanthi); मलयालम-रूमपुट कनचिंग बजु (Rumput kanching baju)।
अंग्रेजी-ट्रॉयडॉक्स डेसी (Troidex daisy), कोट बटन (Coat buttons)।
परिचय
समस्त भारत में लगभग 2400 मी की ऊँचाई पर यह खरपतवार के रूप में पाया जाता है। यह 60 सेमी ऊँचा, दृढरोमी, भूशायी, शाकीय पौधा है। इसके पत्र अण्डाकार, 2-7 सेमी लम्बे एवं 1-4 सेमी चौड़े होते हैं। इसके पुष्प छोटे तथा पीत वर्ण के होते हैं।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
इसका पत्र स्दंरोधी, केश्य, कवकरोधी तथा कृमिनाशक होता है।
इसका पत्र-स्वरस वाजीकारक, पूयरोधी, कृमिनाशक एवं परजीवीनाशक होते हैं।
यह अम्ल, कषाय, तिक्त, शीत, गुरू तथा स्निग्ध होता है।
इसमें यकृत्रक्षात्मक, व्याधिक्षमत्व नियामक, प्रमेहरोधी, सूक्ष्मजीवाणुरोधी तथा कैंसररोधी प्रभाव होता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग।
मात्रा : चिकित्सक के परामर्शानुसार।
नोट : इसके पत्रों का प्रयोग सब्जी के रूप में किया जाता है।
विशेष : भृंगराज के स्थान पर इसका प्रयोग किया जाता है। यह पौधा देश के सभी प्रान्तों में विशेषतया दक्षिणी भारत, उत्तरी भारत, बंगाल, आसाम तथा हिमालयी क्षेत्रों में 5000 फिट की ऊँचाई तक पाया जाता है। परम्परागत चिकित्सा करने वाले लोग रक्तरोधक के रूप में इसका प्रयोग करते हैं। खेतों व जंगलों में काम करने वाले लोगों को यदि क्षत या व्रण हो जाए तथा रक्त निकलने लगे तो वह इसके स्वरस को या इसके पत्तों को पीसकर व्रण पर लगा लेते हैं इससे रक्त रूक जाता है तथा व्रण का शोधन व रोपण भी शीघ्र हो जाता है। इतना गुणकारी पौधा होते हुए भी शात्रों में इसका वर्णन प्राप्त नहीं होता यह बहुत ही विस्मित करने वाली बात है। जब हमने इसके औषधीय गुणों व प्रयोगों के संदर्भ में जानकारी संग्रहित करने का प्रयत्न किया तो कई विचित्र जानकारियां प्राप्त हुई जिनमें विशेषकर स्वामी ओमानन्द जी गुरूकुल झज्झर हरियाणा द्वारा प्राप्त जानकारी विशेष ज्ञातव्य है। स्वामी जी महाराज ने पथरचूर को संजीवनी के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने इसके क्वाथ में कुछ अन्य औषधियों को मिलाकर संजीवनी तैल का निर्माण किया तथा कई हजार रोगियों पर इसका प्रयोग किया। यह तैल जीर्ण व्रण, क्षत तथा मोच आदि में अत्यन्त लाभकारी है। इसके अतिरिक्त खेतों में हल चलाते समय यदि बैलों को फाली लग जाती है तो इस तैल को लगाने से व्रण का सफलतापूर्वक रोपण हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस तैल को जले-कटे व पुराने बिगड़े हुए घावों पर लगाने से भी अत्यन्त लाभ होता है।
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