योग का सम्बन्ध
योग साधना में जहाँ भी चक्रों की चर्चा होती है। वहाँ पर योग साधक ऐसा मानने लगते है कि कुण्डलिनी जागरण से ही चक्रों का सम्बन्ध है। वस्तुतः ऐसा नहीं है, कुण्डलिनी जागरण तत्र योग की एक क्रिया या साधना की विधि है। वर्तमान में अष्ट चक्रों की शक्ति व उसकी जागरण की विधि तत्रसाधना कुण्डलिनी योग परम्परा में ही प्रचलित या वर्णित है, अर्वाचीन कई योगाचार्य़ों या योगियों ने अनेक योग पद्धतियों के साथ कुण्डलिनी शक्ति को जोड़ने का प्रयत्न किया। परन्तु इसका स्पष्ट ज्ञान न होने के कारण अष्टचक्रों के सन्दर्भ में निश्चित रूप से वे कहीं न कहीं भमित ही रहे। इसीलिए कई योग पद्धतियों से साधना करने वाले साधक अष्ट चक्रों को ही अस्वीकार करते हैं परन्तु अष्ट चक्र का सम्बन्ध साधना की विधि से नहीं अपितु शरीर में स्थित अदृश्य शक्तियों के केन्द्रों से है।
अष्ट चक्र व योग की विविध साधना की विधियाँ-
अष्ट चक्र शरीर में विद्यमान विभिन्न सूक्ष्म व अदृश्य ऊर्जा या शक्ति के केन्द्र का नाम है। हमारे शरीर में स्थित इन चक्रों को ही जीवनी शक्ति केन्द्र भी कहते हैं, ये चक्र ही शरीर में प्राण शक्ति के केन्द्र हैं। इन शक्ति केन्द्रों का सम्बन्ध शरीर विज्ञान का एक अभिन्न अंग है। इन शक्ति के केन्द्रों को विविध तरह के योग साधना, तप, संयम, सदाचार आदि के द्वारा भी उन्नत व जागृत किया जा सकता है। इन शक्ति केन्द्रों ’अष्ट चक्रों‘ का जागरण व शक्ति का उर्ध्वारोहण का सम्बन्ध व्यक्ति की पवित्रता व मानसिक स्थिति पर निर्भर है, जिस व्यक्ति का मन जितना शुद्ध व पवित्र होता है, उसका चेतना का स्तर उतना ही ऊंचा हो जाता है। चेतना को जगाने के लिए विविध प्रकार की सेवा साधना के साथ महर्षि पतंजलि प्रणीत अष्टांगयोग व प्राणायाम की अनेक विधियाँ बहुत प्रभावकारी हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुण्डलिनी योग के अलावा भी इन शक्ति केन्द्रों के शक्ति जागरण की अनेक यौगिक विधाएं व साधनाएँ पहले से ही प्रचलन में हैं। इस तरह ’चक्रों‘ का जागरण सात्त्विकी साधना (अष्टांग योग) अन्य उपासना वैराग्य व त्याग आदि द्वारा सम्भव है। इस तरह योग साधना के द्वारा जब व्यक्ति की आन्तरिक शक्ति, चक्रों में स्थित शक्ति का मूलाधार में जागृत होकर वह उर्ध्वागमन करते हुए स्वाधिष्ठान, मणिपूर आदि चक्रों में होते हुए सहस्रार तक पहुँचती है। इस तरह शक्ति के जागरण से वह शक्ति जिस चक्र तक भी पहुँचे वहाँ साधक की तप व योग साधना से शक्ति का जागरण होने की वजह से उसका पतन या उस शक्ति का पुनः निम्न चक्रों की ओर आने की सम्भावना नहीं रहती है। शक्ति के जागरण से जो शरीर मन में परिवर्तन से वह अविचलित होता है।
अष्टांगयोग साधनाविधि साधक को साधना में उन्नति व अष्ट चक्रों में स्थित शक्तियों के जागरण के लिए शुरू में कठिन साधना की आवश्यकता होती है पर जब साधक साधना में उन्नति करने लगता है, तब अनायास व्यक्ति के मन में पवित्रता बढ़ती जाती है और जीवन में उच्चता व मर्यादाओं का पालन करने लगता है, तब उसकी जीवनी शक्ति की वृद्धि होती है। वहीं आन्तरिक ऊर्जा शक्ति उर्ध्व गामिनी होकर मणिपूर, अनाहत् (हृदय) चक्र में होते हुए विशुद्ध चक्र में पहुँच जाती है तब व्यक्ति को आनन्द का अनुभव होने लगता है, वह तनावों से मुक्त व अपने आपकों आन्तरिक शक्ति से युक्त पाता है। अन्दर का उत्स्हा व शक्ति बढ़ने लगती है। विकारों का शमन होने लगता है, मन शान्त होता है, साधक समाधि की अनुभूति करने लगता है। वहीं चेतना शक्ति जब आज्ञाचक्र से मनश्चक्र या सहस्रार चक्र में स्थित होने लगती है तब उस समय साधक सम्प्रज्ञात व असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति में पहुँच जाता है तब वह परमानन्द की अनुभूति प्राप्त करता है।
अष्टचक्र व कुण्डलिनी योग की विधि-
परन्तु कुण्डलिनी योग में साधक के अल्प प्रयत्न से भी पूर्वजन्म के पुण्य या गुरु की कृपा व गुरुपरम्परा से मूलाधार स्थित शक्ति का जागरण हो सकता है। उसकी शक्ति को कुण्डलिनी योग की परम्परा के साधक
’कुण्डलिनी शक्ति‘ के रूप में जानते हैं।
’कुण्डलिनी योग‘ की साधना से ’शक्ति चक्रों‘ का जागरण बिना गहन साधना या संयम आदि के अल्प प्रयत्न के भी शीघ हो जाता है, उससे शरीर के अनेक तरह की क्रियाएं व कम्पन्न व विद्युतीय तरंगों व झटकों का अनुभव होता है। एक तरह से कुण्डलिनी जागरण विविध तरह के अनुभव व ज्ञान स्वतः ही होने लगते हैं।
परन्तु साधक कुण्डलिनी जागरण होने के बाद संयम, सदाचार आदि का पालन नहीं करता है तब वह शक्ति उर्ध्वगामी नहीं होती है। होती भी है तो पुनः उस शक्ति का अधोगति (निम्नगामी) होने की सम्भावना बनी रहती है।
अष्टांग योग साधना विधि द्वारा ’शक्ति‘ के जागरण होने पर बाह्य स्थूल क्रियाएं कम होती हैं, आन्तरिक परिवर्तन ज्यादा होता है। कुण्डलिनी योग द्वारा कुण्डलिनी शक्ति से प्रारम्भ में आन्तरिक परिवर्तन कम किन्तु शरीर गत स्थूल क्रियाओं का अत्यधिक अनुभव होता है। दोनों साधना विधियों में यही मौलिक भेद है।
कुण्डलिनी साधना का लक्ष्य भी मूलाधार चक्र में स्थित ’कुण्डलिनी शक्ति‘ को जागृत करके विभिन्न चक्रों को भेदन करते हुए उस कुण्डलिनी शक्ति का उर्ध्वारोहण करते हुए सहस्रार में स्थित भगवान शिव-शक्ति (ब्रह्म) से इसका मिलन कराना है। कुण्डलिनी शक्ति का जागरण तथा उस का सहस्रार तक पहुँचा कर (शिव से मिलन का परिणाम) समाधि अवस्था एवं आध्यात्मिक अनुभव को प्राप्त करना है। इस प्रकार दोनों साधना की अन्तिम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार व कैवल्य की प्राप्ति है।
कुण्डलिनी योग व उसकी जागरण की विधि
वर्तमान में अष्टचक्रों से सम्बन्धित प्रचलित योग विधि का नाम कुण्डलिनी योग है। यहाँ कुण्डली का अर्थ ’कुण्डली मारे हुए मूलाधार में स्थित‘ रहस्यमय शक्ति है। वह ऊर्जा अथवा शक्ति है जो मूलाधार में चक्र में सोयी रहती है। चूंकि यह सर्प की भांति कुण्डली मारे हुए है। इसलिए इसे सर्पशक्ति या ’कुण्डलिनी शक्ति‘ कहते हैं।
कुण्डलिनी जागरण एक विधि है, जिसे गुरु परम्परा से शीघ प्राप्त किया जा सकता है। कुण्डलिनी जागृत होने पर विविध तरह की क्रियाएं हाथों से विभिन्न मुद्राएं, प्राणायाम या आसन आदि शरीर में स्वतः ही होने लगती है, अनेक ध्वनियाँ निकलने लगती हैं, शरीर में विद्युतीय झटकों की तरह के या ऊर्जा का अनुभव होने लगता है। यह सब क्रियाएं कुण्डलिनी जागर के चिन्ह है, ये सभा को नहीं होता है और जिन्हें होता है सबको एक तरह का नहीं अपितु अलग-अलग तरह का होता है। यह क्रियाएं साधक के मन में जिज्ञासा पैदाकर साधना के प्रति रुचि पैदा करने में सहयोगी होती है, ऐसा हमने स्वयं अनुभव किया है, पर यह साधक को समझना चाहिए कि यह साधना का प्रारम्भ मात्र है, अन्तिम लक्ष्य नहीं। इस तरह जिस गुरु की पहले से ही कुण्डलिनी जागृत है, ऐसे गुरु की कृपा या पूर्व जन्म कृत पुण्य कर्म़ों के फल स्वरूप बिना अधिक तप, साधना या प्रयत्न के भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। इसलिए इसे गुरुपरम्परा से प्राप्त किया जाने वाला ज्ञान कहा जाता है।
यदि साधक तीव्र जिज्ञासु हो व प्राणायाम (भत्रिका, नाड़ी शोधन, कपालभाति, अनुलोम-विलोम) आदि को तीव्र गति से लम्बे समय तक नियमित रूप से करता है तब भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। स्वयं साधना करने से कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो भी कुण्डलिनी योग परम्परा में ऐसा माना जाता है कि पूर्व जन्म में गुरु की कृपा से जागृत शक्ति ही अभी जागृत हुई है। परन्तु वहाँ सावधानी की बहुत आवश्यकता होती है। गुरु परम्परा में भी जो कुण्डलिनी शक्ति जागरण की विधि है उसमें मुख्य रूप से अनेक तरह के प्राणायामों की क्रियाओं को ही कराया जाता है। इसके सन्दर्भ में हठयोग प्रदीपिका में भी कहा है कि- जिस प्रकार डण्डे की मार खाकर जैसे साँप सीधा डण्डे की आकृति वाला हो जाता है, इसी प्रकार जालंधर बन्ध करके वायु को ऊपर ले जाकर कुम्भक का अभ्यास करें। उसके बाद साधक धीरे-धीरे श्वास छोड़ें, कभी भी वेग से न छोड़ें। महासिद्धों द्वारा बतायी गयी इस महामुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति सहस सीधी (जागृत) हो जाती है।
तत्र ग्रन्थों या हठयोग आदि शात्रों के अनुसार कुण्डलिनी जागरण की विद्या में दक्ष व गुरु-िशष्य परम्परा से दीक्षित योग्य गुरु की कृपा व उसके सान्ध्यि में ही कुण्डलिनी योग की परम्परा द्वारा कुण्डलिनी शक्ति जागृत करने का सबसे सरल व प्रामाणिक उपाय है।
कुण्डलिनी जागृत होने के बाद यदि कुण्डलिनी को सहस्रार तक पहुँचाकर उसे स्थित रखना है या समाधि को प्राप्त करना है, तब साधक को विकारों का त्याग करना पड़ता है। कुण्डलिनी जागृत होने के बाद साधक
निरन्तर उसका अभ्यास करता है, तब उसके विकार स्वतः समाप्त होने लगते है। यदि साधना काल में साधक अपने विकारों को योग के द्वारा समाप्त नहीं करता है तब वह शक्ति पुनः निम्न चक्रों में पतन की सम्भावना रहती है। या यों कहा जा सकता है कि कुण्डलिनी शक्ति के जागरण से योग साधना की शुरूआत शीघ होती है परन्तु बाद में कुण्डलिनी शक्ति के उर्ध्वारोहण व सहस्रार तक पहुँचाने के लिए ज्याद सावधानी तथा साधना व संयम की आवश्यकता होती है। इसलिए नियमित ध्यान, सकारात्मक विचार, शुभसंकल्प, प्राणायाम योग की अनेक विधियाँ ही मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी शक्ति को स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र आदि का भेदन करते हुए उन शक्तियों का उर्ध्वारोहण कर सहस्रार तक पहुँचाकर समाधिष्य सुख व परमानन्द का अनुभव किया जा सकता है।
योग साधक के गुण
साधक को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा अन्य सभी तरह के दुर्गुणों से बचते हुए योग साधना में आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि जितना व्यक्ति दुर्गुणों से मुक्त होता जाता है, उतना ही उसमें सत्गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए साधक को संयम में रहना चाहिए, उसे व्यवहार में विनम्र, मृदुभाषी, शिष्ट, नम्र तथा दयालु होना चाहिए। उसके भीतर अध्यवसाय, हट संकल्प, असीमित धैर्य तथा सेवा की भावना, सहनशीलता, करुणा, मिताहार करने वाला, निष्कपट तथा साधना में दृढ रहने का गुण होना चाहिए। उसे आत्म संयमी, शुद्ध तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित होना चाहिए। गुरु के समक्ष साधक को अपना हृदय पूरी तरह खुला रखना चाहिए, श्रद्धा एवं प्रेम के साथ अपने गुरु के आज्ञा का पालन कर अपने अहंकार, अज्ञानता से मुक्त, स्पष्ट तथा अनौपचारिक होना चाहिए।
योग साधना के अयोग्य व्यक्ति
जो सिर्फ इन्द्रिय सुखों को ही परम सुख मानकर उसी में लिप्त हैं, जो अभिमानी, अहंकारी, बेईमान, धूर्त तथा विश्वासघाती हैं, जो लोगों को अपमानित व अनादर करने में सुख का अनुभव करता है, जो आलस्य में पड़ा-पड़ा बड़े-बड़े मनोरथों को ही करता है, पुरुषार्थ नहीं करता। जो क्रूर है, जो अति भोजी, भक्ष्य-अभक्ष्य का ख्याल न करने वाला व इन्द्रियों का दास है, जिसमें अनेक गन्दी आदतें हैं, वह अध्यात्म पथ के अयोग्य है। ऐसा व्यक्ति योग का शारीरिक पक्ष आसन, व्यायाम आदि के द्वारा मात्र शारीरिक लाभ तो प्राप्त कर सकता है, परन्तु साधना में कभी उच्च स्थिति या सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। न कभी आत्मसाक्षात्कार द्वारा साहस, शक्ति, बल, ज्ञान व परमानन्द को प्राप्त कर सकता है।