स्वास्थ्य का अर्थ है सुव्यवस्थित क्रम तथा व्याधि का अर्थ है विकार या अव्यवस्थित क्रम। हमारे शरीर में स्वास्थ्य एवं विकार लगातार एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। आयुर्वेद में स्वास्थ्य की अवधारणा व्याधि की समझ के आधारभूत है जहाँ व्याधि का अर्थ है अव्यवस्थित क्रम अर्थात् स्वास्थ्य से वंचित करना। इसलिए रोगों पर विचार-विमर्श करने से पहले हमें यह जानना जरूरी है कि स्वास्थ्य क्या है- जब पाचकाग्नि संतुलित अवस्था में हो हमारे शरीर के तीनों दोष (वात-पित्त-कफ) संतुलित हों, तीनों मल संतुलित हों और सही मात्रा में विर्सजित हों, हमारी इन्द्रियां सामान्य क्रिया करती हों एवं हमारा शरीर, मन और आत्मा सामन्जस्य बनाकर कार्य करते हों तो इस अवस्था को स्वास्थ्य कहते हैं। जब इनमें से किसी भी दोष, धातु का संतुलन बिगड़ जाता है तो रोगोत्पत्ति या व्याधियों की उत्पत्ति का क्रम शुरू हो जाता है। अर्थात् शरीर व मन का असंतुलित होना ही विकार है। शरीर व मन में नाना प्रकार के रोग होते हैं। आयुर्वेद में इनका सर्वांगीण विवेचन करते हुए इनकी चिकित्सा का वर्णन किया है। आयुर्वेदीय ग्रन्थों में विविध रोगों का वर्गीकरण अनेक आधारों पर किया गया है, जिसे यहाँ तालिका द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है-
- दोष व कर्मों के आधार पर
(i) दोषज रोग- अनुचित आहार-विहार (अपथ्य) के सेवन से वात, पित्त व कफ दोषों में विकार (वृद्धि या क्षय) आ जाता है। इसके परिणामस्वरूप, क्रमशः वातिक, पैत्तिक और कफज रोग उत्पन्न होते हैं।
(क) सुखसाध्य- उपरोक्त विशेषताओं से युक्त रोग सुखसाध्य अर्थात् सुविधापूर्वक ठीक होने वाले माने जाते हैं।
(ख) कृच्छ्रसाध्य- जिस रोग में हेतु, पूर्वरूप और रूप मध्यम कोटि के हो, काल, प्रकृति और दूष्यों में से कोई एक प्रकुपित दोष के समान गुण वाला हो, रोगी गर्भिणी, त्री, बालक या वृद्ध हो, रोग कुछ उपद्रव युक्त हो, रोग मर्म, सन्धि आदि स्थानों में उत्पन्न हो, चतुष्पाद अनुकूल न हो, रोग की गति द्विमार्गी हो तथा रोग कुछ पुराना हो तो कृच्छ्रसाध्य (कठिनाई से ठीक होने वाला) माना जाता है।
(ii) कर्मज रोग- जो रोग पूर्व जन्म में किए गए पाप कर्मों या इस जन्म में भी जाने-अनजाने में किये गये गलत कर्मों के फल स्वरूप उत्पन्न होते हैं,* वे कर्मज या अदृष्ट-कर्मज रोग कहलाते हैं। इस प्रकार के रोगों में कोई विशेष दोष कुपित नहीं होता, परन्तु रोगी कष्टप्रद रोग से ग्रस्त रहता है। ये रोग अचानक उत्पन्न होते हैं तथा अनेक प्रकार की चिकित्सा करने पर भी शान्त नहीं होते। कष्टभोग कर लेने से व पुण्यकर्मों के अनुष्ठान के द्वारा ही पापकर्मों का फल नष्ट होता है। अतः इन रोगों का उपचार- दान, दया, द्विज-देवता, विद्वानों व गायों की सेवा, जप, तप, दीन-दुखी व गरीबों की सेवा, उनके स्वास्थ्य एवं शिक्षा आदि हेतु दान इत्यादि पुण्य कर्मों द्वारा किया जाता है। ये ही वे पुण्य कर्म हैं, जिनसे कर्मज रोग ठीक हो जाते हैं।
(iii) दोष-कर्मज रोग- जो रोग इस जन्म के अपथ्य सेवन तथा पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं, वे दोष-कर्मज रोग कहलाते हैं। इस प्रकार के रोग थोड़े से निदान (कारण) के परिणामस्वरूप भी बहुत दारुण रूप में उत्पन्न होते हैं। कभी सामान्य दोषों की वृद्धि में भी रोग की विकट स्थिति हो जाती है। इनकी चिकित्सा रोगोत्पादक कारण के अनुसार की जाती है। इसके अतिरिक्त, पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के फलस्वरूप भी रोगी को कष्ट भोगना पड़ता है। इससे बचने के लिए पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए।
दोषज रोगों को भी दो भागों में विभक्त किया गया है-
दोषों व कर्मों के आधार पर रोगों का वर्गीकरण
(क) सामान्यज रोग- जो रोग किसी भी दोष के प्रकोप से उत्पन्न हो सकते हैं। यथा-ज्वर, अतिसार, गुल्म आदि।
(ख) नानात्मज रोग- जो रोग केवल अपने ही उत्पादक दोष विशेष से उत्पन्न होते हैं, किसी अन्य दोष से नहीं। इस प्रकार के रोगों की निश्चित संख्या तो नहीं हो सकती। तथापि ग्रन्थों में इस श्रेणी के वातिक रोग 80, पैत्तिक रोग 40 तथा कफज रोग 20 माने गये हैं।
- चिकित्सा के आधार पर
(i) साध्य रोग
ऐसा रेग जो किसी एक दोष के प्रकोप से उत्पन्न हो, जिसके पूर्वरूप (रोग से पूर्व के लक्षण) और रूप (अभिव्यक्ति लक्षण) अल्प मात्रा में हों, दूष्य व दोष के समान गुण वाले न हों, रोगी की प्रकृति और कुपित दोष एक जैसे न हों (जैसे- वात प्रकृति में वातज रोग), काल (ऋतु) प्रकुपित दोष के समान गुण वाला न हो, देश अनुकूल हो, रोग की गति एक ही मार्ग में हो, रोग नया हो व उपद्रवरहित हो, शरीर सब प्रकार की चिकित्सा (वमन, विरेचनादि) को सहन कर सकने वाला हो, रोगी की पाचन-शक्ति व चयापचय (Metabolic process) की शक्ति तीव्र हो तथा चतुष्पाद (चिकित्सक, रोगी, औषधि या चिकित्सा तथा परिचारक) निर्दिष्ट गुणों से युक्त हों, तो वह रोग साध्य होता है। ये साध्य रोग भी दो प्रकार के है-
(ii) याप्य (औषध लेने तक दबे रहने वाले) रोग-
कुछ रोग औषधि का सेवन करने से कुछ ठीक हो जाते हैं या दब जाते हैं अथवा उनकी तीव्रता कम हो जाती है, परन्तु जैसी ही औषधि छूटी या कुछ भी अपथ्य सेवन हुआ तो पुनः बढ़ जाते हैं, ऐसे रोग याप्य कहलाते हैं। कभी-कभी औषध-सेवन के बिना भी ये रोग कुछ समय तक के लिये ठीक प्रतीत होते हैं। जो रोग मेद-अस्थि, आदि गम्भीर धातुओं में स्थित हो; दो से अधिक धातुओं में रहा हो; मर्मस्थल और सन्धियों में स्थित हो; एक वर्ष से अधिक पुराना (जीर्ण) हो; नित्य चलते रहने वाला हो; और द्विदोषज (दो दोषों के प्रकोप से उत्पन्न) हो, वह याप्य श्रेणी में आता है। याप्य रोगों में रोगी का आयुष्य-दोष न होने के कारण उसकी मृत्यु नहीं होती।
(iii) असाध्य रोग
जो रोग किसी भी प्रकार की चिकित्सा से ठीक नहीं हो पाते, वे असाध्य रोग कहलाते हैं। उपरोक्त याप्य रोगों की विशेषताओं के साथ-साथ जो रोग त्रिदोषज (तीनों दोषों के एक साथ प्रकोप से उत्पन्न) हो, जिसमें किसी प्रकार की चिकित्सा से लाभ न मिलता हो, जो सब मार्ग़ों में फैला हो, बहुत उपद्रवों से युक्त हो, जो रोग जीर्ण हो तथा उग्र प्रकृति का हो, यदि रोगी की पाचनशक्ति व संकल्पशक्ति क्षीण हो गई हो, रोगी बेचैनी व क्षीणता अनुभव करे, मेरा क्या होगा? इत्यादि रूप में चिन्तित मनोवृत्ति वाला हो तथा रोगी के शरीर में अरिष्टसूचक (मरणसूचक) लक्षण उत्पन्न हो गए हों, ऐसी स्थिति में रोग असाध्य माना जाता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि असाध्य माने जाने वाले रोग हमेशा असाध्य नहीं रहते। ऐसे रोगों की चिकित्सा का आविष्कार होने पर ये भी साध्य हो सकते हैं। उदाहरणार्थ तपेदिक, फलकोश (अण्ड की थैली) की आत्रवृद्धि जैसे रोगों को पूर्व समय में असाध्य माना जाता था। परन्तु आजकल इन रोगों तथा इस प्रकार के अन्य अनेक रोगों की औषधि व शल्य (Surgery) द्वारा सफल चिकित्सा की जाती है। अतः ये रोग भी साध्य हो गए हैं। इसी तरह आधुनिक चिकित्सा पद्धति में असाध्य माने जाने वाले कुछ रोग आयुर्वेद के द्वारा ठीक हो जाते हैं।
साधारण व साध्य माने जाने वाले रोगों की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रोग तो शत्रु, विष अथवा अग्नि के समान घातक होता है। प्रारम्भ में छोटे से छोटे और साधारण से साधारण माने जाने वाले रोग की भी यदि ठीक समय पर चिकित्सा न की जाए, तो वह शक्तिशाली बन जाता है और धीरे-धीरे असाध्य हो जाता है। उदाहरणतः जुकाम को एक सामान्य व छोटा सा रोग माना जाता है, परन्तु यदि बहुत समय तक यह रोग शरीर में अपना स्थान बनाये रखे तो इससे कास, श्वास तथा यहाँ तक कि क्षय रोग भी बन सकता है।
चिकित्सा के आधार पर रोगों का वर्गीकरण
- मूल रोग और उपद्रव
अनेक बार रोग अपने दोष और दूष्य (धातु व मल) के विकार तक सीमित न रहकर स्वतंत्र रूप से नई समस्या पैदा कर देते हैं अर्थात् एक मूल रोग उत्पन्न होने के पश्चात् उसी रोग के मूल कारण से कोई नया रोग उत्पन्न हो जाता है। यह नया रोग, मूल रोग की चिकित्सा से ठीक हो जाता है, इस समस्या अथवा रोग को उपद्रव (Complication) कहते हैं। रोग की चिकित्सा करते समय चिकित्सक को इसका ध्यान रखना आवश्यक है। जो रोग आरम्भ से ही उत्पन्न हुआ हो तथा किसी व्याधि का न तो पूर्वरूप हो और न उपद्रवरूप, उसे मूल रोग कहते हैं।
- शारीरिक और मानसिक रोग
आयुर्वेद के अनुसार जितने भी रोग हैं उनके अधिष्ठान (आश्रय स्थान) दो हैं- शरीर और मन। अर्थात् कुछ रोग मूलतः शरीर में उत्पन्न होते हैं तथा कुछ मूलतः मन में। इसके अतिरिक्त कुछ रोग शरीर और मन, दोनों में ही आश्रित होते हैं। मूल की पहचान करने पर ही इनके आश्रय को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जा सकता है। जो शरीर में उत्पन्न होने के पश्चात् मन को व्यथित करते हैं, वे शारीरिक रोग तथा जो मन में उत्पन्न होने के पश्चात् शरीर को व्यथित करते हैं, वे मानसिक रोग कहलाते हैं। इस प्रकार इनमें मुख्यतः यही अन्तर है कि प्रादुर्भाव के समय प्रथम विकृति एवं कष्ट उस आश्रयविशेष अर्थात् शरीर अथवा मन में ही होता है। इसी आधार पर इन्हें क्रमशः शारीरिक और मानसिक रोग कहते हैं। इनके अतिरिक्त उन्माद (Insanity), अपस्मार (Epilepsy) आदि रोग उभयाश्रित माने जाते हैं। क्योंकि ये शरीर और मन दोनों का आश्रय लेकर पनपते हैं। शारीरिक और मानसिक रोग जब जीर्ण या पुराने (Chronic) हो जाते हैं, तो ये एक दूसरे से मिल जाते हैं।
शारीरिक रोगों में वात, कफ, पित्त, रक्त आदि प्रथमतः कुपित होते हैं। बाद में मन को भी कष्ट व पीड़ा होती है। इनमें दोषों का शमन करके ही चिकित्सा करनी होती है। ज्वर, अतिसार आदि रोग शारीरिक रोग हैं। जबकि मानसिक रोगों में रजोगुण व तमोगुण के प्रभाव से उत्पन्न मुख्य कारणों को दूर करना होता है। काम, क्रोध, भय, दैन्य, उद्वेग, चिन्ता आदि अनेक रोग, जो इष्ट की अप्राप्ति और अनिष्ट की प्राप्ति से उत्पन्न होते हैं, मानसिक रोग हैं।
- निज और आगन्तुज रोग
उपरोक्त शारीरिक और मानसिक रोग भी दो प्रकार के हैं- निज और आगन्तुज। क्योंकि कुछ रोग स्वाभाविक रूप से निद्रा, पिपासा आदि के फलस्वरूप अथवा दोषों के प्रकोप व विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं, अतः उन्हें निज रोग कहते हैं। जबकि कुछ रोग बाह्य आघात, चोट, हिंसक पशुओं के आक्रमण में उनके नख, दन्त आदि के आघात से होते हैं, इन्हें बाह्य अथवा आगन्तुज रोग कहते हैं। ये दोनों ही प्रकार के रोग एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। क्योंकि पहले से विद्यमान निज रोगों को बढ़ाने में आगन्तुक कारण (जीवाणु, कृमि आदि) भी सहायक बन जाते हैं तथा आगन्तुज (अभिघात से उत्पन्न ज्वर आदि) रोगों को शरीर के दोष प्रकुपित होकर निज रोग बना देते हैं।
वस्तुतः इन सभी रोगों में पहले अथवा बाद में दोष प्रकुपित हो जाते हैं। अतः इनकी चिकित्सा करते समय सभी दोषों को साम्यावस्था में लाना आवश्यक होता है। हाँ, चिकित्सा के समय रोग के अधिष्ठान एवं कारण के अनुसार उसकी प्रधानता को देखते हुए उचित चिकित्सा क्रम निर्धारित किया जाता है।
जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि रोगों की उत्पत्ति दोषों के प्रकोप से होती है। कुपित हुए ये दोष धातुओं एवं मलों आदि को भी क्षीण व विकृत करते हैं। इसके साथ यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यदि कोई भी एक दोष प्रकुपित होता है, तो वह न्यून अथवा अधिक मात्रा में दूसरे दोषों को भी प्रकुपित कर देता है।
त्रिविध रोग
आयुर्वेद के अनुसार जगत् में आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक, ये त्रिविध (तीन प्रकार के) दुख होते हैं। संसार में विद्यमान इन दुखों के आधार पर भी रोगों का विभाजन किया गया है। ये रोग हैं- (1) आध्यात्मिक, (2) आधिभौतिक एवं (3) आधिदैविक। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1.आध्यात्मिक रोग- जो रोग मनुष्य के अपने शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, वे इस श्रेणी में आते हैं। ये निम्नलिखित तीन प्रकार के हैं-
(i) आदिबलज अथवा वंशज- माता-पिता के शुक्र और आर्त्तव में पाये जाने वाले दोषों के कारण, जो रोग उत्पन्न होते हैं, वे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। ये दो प्रकार के हैं- (क) मातृज अर्थात् माता से उत्पन्न होने वाले तथा (ख) पितृज अर्थात् पिता से उत्पन्न होने वाले। कुष्ठ, बवासीर, श्वास (दमा) आदि इसी श्रेणी के रोग हैं। इन्हें वंशानुगत रोग भी कहते हैं।
(ii) जन्मबलज अथवा जन्मजात- गर्भावस्था के दौरान माता के अनुचित आहार-विहार करने से, अन्य असावधानी एवं विकारों से इस प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे- जन्म से अन्धापन, पंगुता, गूंगापन, नपुंसकता, तुतलाना या हकलाना, बौनापन आदि।
(iii) दोषबलज- मनुष्य के अपने अनुचित आहार-विहार आलस्य प्रमाद व अन्य लापरवाही आदि की वजह से वात आदि दोष कुपित हो जाते हैं। परिणामतः जो रोग उत्पन्न होते हैं, वे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं, ये भी दो प्रकार के हैं-
(क) आमाशयोत्थ- ये रोग उदर और छोटी आँत के ऊपरी भाग से उत्पन्न होते हैं, जैसे- कास, श्वास, यकृत्-वृद्धि आदि।
(ख) पक्वाशयोत्थ- ये रोग बड़ी आँत से उत्पन्न होते हैं, जैसे कब्ज, मलावरोध, अफारा आदि।
2.आधिभौतिक रोग- इन्हें संघातबलज अथवा आगन्तुज रोग भी कहा जाता है। जो रोग किसी बाह्य कारण से उत्पन्न होते हैं, वे इस श्रेणी में आते हैं। ये भी दो प्रकार के है-
(i) व्यालज- आक्रामक बने ग्राम्य अथवा हिंस्र प्रकृति के जंगली जानवरों के आक्रमण से होने वाले रोग तथा विषैले प्राणियों के आक्रमण व काटने से होने वाले रोग, जैसे सींग या नखों के प्रहार से हुए घाव, बिच्छू व सांप आदि के विष का प्रभाव, कुत्ते के काटने से चढ़ा विष एवं अनेक तरह के बैक्टिरिया (जीवाणु) एवं वायरस
(विषाणु) आदि से होने वाले रोग इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।
(ii) शत्रज- शत्रों के प्रहार से होने वाले घाव, चोट आदि। दुर्घटना (एक्सीडेन्ट) से होने वाले घाव व अस्थिभंग आदि, युद्ध में प्रयुक्त होने वाले बम, गोली आदि अत्रों के आघात से होने वाली व्याधियाँ भी शत्रज रोग कहलाती हैं।
3.आधिदैविक रोग- जो रोग प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होते हैं, वे इसी श्रेणी में आते हैं। इन्हें निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा गया है-
(i) कालबलज अथवा ऋतु-सम्बन्धी- ये रोग अधिक वर्षा, सर्दी अथवा गर्मी लग जाने और इन ऋतुओं में पैदा होने वाले मच्छर, सूक्ष्म रोगाणुओं व कीटाणुओं के परिणामस्वरूप हो सकते हैं। ये वातज (हवा के द्वारा होने वाले) तथा आतपज (धूप लग जाने से होने वाले) दो प्रकार के होते हैं-
(क) व्यापन्न ऋतुज रोग- ये रोग मौसम की विषमता के कारण उत्पन्न होते हैं, जैसे- गर्मी के मौसम में कभी अधिक और कभी कम गर्मी अथवा सर्दी में कभी अधिक ठण्ड व कभी कम ठण्ड आदि विषमताओं से उत्पन्न होने वाले रोग।
(ख) अव्यापन्न ऋतुज रोग- ये रोग सामान्य मौसम में ही उत्पन्न होते हैं। जब रोग मौसम की विषमता के कारण उत्पन्न हों, तो चिकित्सक को चाहिए कि पहले एकत्र की हुई औषधियों से ही रोग की चिकित्सा करे और जो रोग सामान्य मौसम के कारण ही उत्पन्न होते हैं, उनकी चिकित्सा मौसम के अनुरूप औषधियों से ही करनी चाहिए।
(ii) दैवबलसम्भूत रोग- आधिदैविक रोगों में ये दूसरे प्रकार के रोग हैं- जो देवताओं अर्थात् अग्नि, वात, आकाश, पृथ्वी, जल आदि तत्त्वों के प्रदूषण या प्रकोप से होते हैं। सभी प्राकृतिक आपदायें इसी श्रेणी में आती हैं क्योंकि ये रोग दैवीय प्रकोप से उत्पन्न होते हैं, अतः उनके क्रोध अथवा शाप से उत्पन्न माने जाते हैं। इन्हें भी दो प्रकार का माना गया है- (क) विद्युत् और अग्नि द्वारा उत्पन्न तथा (ख) बैक्टिरिया (विषाणु) द्वारा उत्पन्न (महामारी आदि)। ये दोनों प्रकार के रोग भी पुनः संसर्गज (स्पर्श आदि द्वारा उत्पन्न) और आकस्मिक (वात के माध्यम से फैलने वाले बैक्टिरिया आदि), दो प्रकार के माने गये हैं।
त्रिविध रोग, त्रिविध दुखों के आधार पर रोगों का वर्गीकरण
(iii) स्वभावबलज रोग- आधिदैविक रोगों में ये तीसरे प्रकार के रोग हैं, जो शरीर की स्वाभाविक वृत्तियों अथवा आवश्यकताओं से उत्पन्न होते हैं, यथा- भूख, प्यास, बुढ़ापा, काम, क्रोध, निद्रा आदि। कुछ ग्रन्थों एवं विद्वानों के अनुसार आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक, ये तीनों ही प्रकार के रोग निम्नलिखित सात भेदों में विभक्त होते हैं- (1) आदिबलज, (2) जन्मबलज, (3) दोषबलज, (4) संघातबलज, (5) कालबलज, (6) दैवबलज तथा (7) स्वभावबलज।
वे रोग जो शात्र में कहे गए कारणों (एक या एकाधिक दोषों के प्रकोप, क्षय आदि से) से उत्पन्न हों एवं जिनमें विकृत दोषों के स्पष्ट लक्षण हों तथा दोषशामक चिकित्सा से ठीक हों, उन्हे स्वतत्र रोग कहते हैं। इसके विपरीत जो रोग स्वतत्र रूप से उत्पन्न न होकर किसी अन्य रोग (मूल रोग) के कारणों से उत्पन्न हुआ हो, उसी मूल रोग की चिकित्सा से ठीक हो तथा अस्पष्ट लक्षणों वाला (अपने विशिष्ट लक्षणों वाला) हो, वह परतत्र रोग कहलाता है। परतत्र रोग भी दो प्रकार के हैं- (i) पूर्वरूप, (ii) उपद्रव। जो रोग मूलरोग के पहले उत्पन्न होते हैं, वे पूर्वरूप कहलाते हैं। यदि परतत्र रोग, स्वतत्र रोग की चिकित्सा से ठीक न हो, तो परतत्र रोग की अलग से चिकित्सा करनी चाहिए। यदि उपद्रव अधिक तीव्र हों, तो मूलरोग से पहले उपद्रवों की चिकित्सा करनी चाहिए।
इन समस्त प्रकार के रोगों के समूहों को निम्नलिखित दस प्रकार के समूहों में भी बाँटा गया है। इन्हें रोगानीक (रोगसमूह) के नाम से कहा गया है
- प्रभावभेद से-
(i) साध्य- ठीक होने वाले रोग।
(ii) असाध्य- ठीक न होने वाले रोग।
- बलभेद से-
(i) मृदु- अल्प बल वाले रोग।
(ii) दारुण- ठीक न होने वाले रोग।
- अधिष्ठानभेद से-
(i) मनोधिष्ठान- मन का आश्रय करके होने वाले मानस रोग।
(ii) शरीराधिष्ठान- शरीर का आश्रय करके होने वाले शारीरिक रोग।
- निमित्तभेद से-
(i) स्वधातुवैषम्यनिमित्त- शरीर को धारण करने वाले वात आदि दोषों, रस रक्त आदि धातुओं, आर्त्तव, स्तन्य आदि उपधातुओं तथा पुरीष-मूत्र-स्वेद आदि मलों के आधिक्य या क्षय (वैषम्य) से होने वाले निज रोग।
(ii) आगन्तुनिमित्त- अभिघात, कृमि आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न आगन्तुज रोग।
- आशयभेद से-
(i) आमाशयसमुत्थ- आमाशय को आश्रय करके होने वाले पित्तज व कफज रोग।
(ii) पक्वाशयसमुत्थ- पक्वाशय को आश्रय करके होने वाले वातज रोग।
रोग अथवा रोगी की परीक्षा से पूर्व तथा चिकित्सा-सम्बन्धी निर्णय लेने से पूर्व चिकित्सक को रोगों के इन सब प्रकारों का ज्ञान होना आवश्यक है।