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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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वेग-निरोध से बचें (अधारणीय वेग)

यह अनुभव में आया है कि भूख लगने पर जब भोजन आदि नहीं किया जाता, तो एकदम कमजोरी आने लगती है, प्यास लगने पर पानी न पीने से शरीर बेजान सा हो जाता है तथा चक्कर, मूर्च्छा आदि भी आ सकते हैं। इसी प्रकार मूत्र का वेग होने पर यदि मूत्रत्याग न किया जाए, तो पेडू में दर्द होने लगता है, इसी प्रकार मल का वेग होने पर मलत्याग न करने से पेट में गैस, दर्द आदि लक्षण पैदा हो जाते हैं। इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर में कोई भी वेग होने पर उसका समय पर निस्तारण अवश्य किया जाना चाहिए, विलम्ब नहीं करना चाहिए। भूखप्यास लगना, मल-मूत्र के त्याग के लिए वेग होना तथा इसी प्रकार की अन्य इच्छाएं शरीर में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती रहती हैं। इन्हें स्वाभाविक वेग कहा जाता है। प्रत्येक चेतन प्राणी में ये स्वाभाविक इच्छाएं पाई जाती हैं, जो समय-समय पर वेगों के रूप में अपने आप प्रकट होती रहती हैं। इनकी समय पर निवृत्ति करना बहुत आवश्यक है। ऐसा न करने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। प्रमुख वेग 13 माने गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. मूत्रवेग 2. मलवेग
  2. शुक्र (वीर्य) का वेग 4. अधोवात या अपान वायु का वेग
  3. वमन या उल्टी का वेग 6. छींक का वेग
  4. डकार का वेग 8. जम्भाई का वेग
  5. भूख का वेग 10. प्यास का वेग
  6. आंसुओं का वेग 12. तीव्र श्वास का वेग
  7. निद्रा का वेग

इन 13 वेगों की गणना करते हुए कुछ आयुर्वेद ग्रन्थों ने थोड़ा भेद किया है। उन्होंने प्रथम व द्वितीय क्रम पर निर्दिष्ट मूत्र व मल के वेग को एक ही माना है तथा कास को अतिरिक्त वेग मान कर तेरह संख्या की पूर्ति की है। इन वेगों में श्रम-जनित श्वास-उच्छ्वास (क्रम संख्या 12) की गणना है, जिसका सम्बन्ध श्वासनलिका से है। अतः इससे ही सम्बन्धित अन्य वेग ’कास‘ को न रोकने का भी आदेश दिया है। प्रायः लोकव्यवहार और शिष्टाचार व सभ्यता के नाम से कुछ वेगों को जबरदस्ती रोक दिया जाता है। इनमें यात्रा व शुभकार्य के समय छींक का वेग, सभा में अपानवायु का वेग आदि हैं। नारी समाज में इस प्रकार की प्रवृत्ति अधिक है। परन्तु आयुर्वेद के ग्रन्थों में स्पष्ट निर्देश है कि वेग उत्पन्न होने पर किसी दूसरे कार्य में न लगकर पहले उस वेग से ही निवृत्त होना आवश्यक है। अपानवात, मल, मूत्र आदि वेगों को रोकने से ’उदावर्त‘ (वात, आदि का ऊपर की ओर घुमाव) नामक भयंकर रोग हो जाता है। इन सब वेगों को रोकने से विशेष-रूप से निम्न रोगों की उत्पत्ति होती है।

कास का वेगरोध-

कास या खाँसी का वेग उठने पर जब रोगी इसे जबरदस्ती रोकता है तो इससे कास में तो वृद्धि होती ही है, इसके साथ-साथ श्वास (साँस फूलना), अरुचि व हृदय रोग भी हो सकते हैं। शोष (क्षय रोग) और हिक्का (हिचकी) होने की भी आशंका रहती है।

वेगरोधी के असाध्य लक्षण-

आयुर्वेदानुसार ऊपर लिखित वेगों को रोकने के परिणामस्वरूप यदि व्यक्ति की चिकित्सा करने पर भी रोग दूर नहीं होते तथा उसमें निम्नलिखित लक्षण भी दिखाई दें, तो ऐसे रोगी का ठीक होना बहुत कठिन माना गया है।

  1. अधिक प्यास एवं शूल से पीड़ित होना
  2. रोगी का बहुत अधिक कृश (कमजोर या पतला) होना तथा
  3. दूषित आहार का वमन।

उत्पन्न हुए वेगों को धारण करने (रोकने) से जहाँ रोग उत्पन्न होते हैं, वहीं मल-मूत्र, आदि के इन वेगों के उत्पन्न न होने पर भी यदि इनके हठात् निर्हरण (निकालने) के लिए जोर लगाया जाए तो भी वही रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इन रोगों में सामान्यतः अनेक प्रकार से वात का ही प्रकोप हो जाता है। अतः उनकी शान्ति के लिए अनुलोमक अन्न (खाद्य पदार्थों), पेय पदार्थों और औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

जब इन स्वाभाविक इच्छाओं (वेगों) को दबाया जाता है या समय पर इनकी निवृत्ति नहीं की जाती तो इसे वेगरोध कहते हैं। इन सबका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जा रहा है।

मूत्र का वेगरोध

मूत्र के वेगरोध अर्थात् मूत्रत्याग की आवश्यकता अनुभव होने पर भी मूत्रत्याग न करने से मूत्राशय,  लिंग, पेट के निचले भाग, मूत्रमार्ग, गुर्द़ों, मूत्रवह-स्रोतों में पीड़ा होती है तथा पेट में अफारा, दर्द, मूत्रकृच्छ्र (मूत्रत्याग में कठिनाई), सिरदर्द एवं शरीर का झुक जाना आदि जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं।

अंग-अंग में टूटने की-सी पीड़ा, पथरी रोग होना भी देखा जाता है। इसके अतिरिक्त मूत्राशय (Urinary bladder) की कमजोरी, बार-बार मूत्र संवहन स्थानों में शोथ व अनेक प्रकार की विकृतियां (Infection) भी होने की सम्भावना रहती है। उदर पर मालिश, टब स्नान तथा नाक में घी की नसवार डाल कर तथा तीन प्रकार के एनिमा (आस्थापन, उत्तर बस्ति और अनुवासन) की क्रियाओं द्वारा इनका उपचार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मूत्रल औषधियाँ देनी चाहिए तथा मूत्रवह संस्थान के शोथ को दूर कर उनको शक्ति देने वाली औषधियों का सेवन करना चाहिए। आयुर्वेदानुसार अवपीडक घृत का पान करना चाहिए। भोजन से पहले और भोजन पाचन के बाद अधिक मात्रा में घृत सेवन ही ’अवपीडक घृत‘ है।

मल का वेगरोध

मल के वेगरोध अर्थात् मल का वेग होने पर भी मल-त्याग न करने से शूल , तीव्र दर्द, सिरदर्द, मल और अधोवात (गैस) को त्याग करने में रुकावट, जंघा की पेशियों में ऐंठन, पेट में अफारा, प्रतिश्याय, मलद्वार में कैंची से काटने जैसी पीड़ा, हृदय की गति में रुकावट तथा मुख से दूषित अन्न का निकलना आदि शिकायतें उत्पन्न हो जाती हैं। इनके उपचार के लिए सिकाई, मालिश, टब स्नान, मलद्वार में वर्ति (बत्ती) डालना, बस्ति-िक्रया (एनिमा) आदि साधनों को प्रयोग में लाना चाहिए। खाने में पपीता, हरी सब्जियां, फलों का रस आदि विरेचक दस्तावर खाद्य और पेय पदार्थों का सेवन उपयोगी है।

शुक्र (वीर्य) का वेगरोध

शुक्र (वीर्य) के वेग को रोकने से लिंग तथा अंडकोषों में दर्द, शोथ, ज्वर, घबराहट, हृदय प्रदेश में दर्द, मूत्र के प्रवाह में रुकावट आदि कष्ट होते हैं। इससे अंगों में टूटन-सी पीड़ा, अंगड़ाई आना, अण्डवृद्धि, अश्मरी तथा नपुंसकता जैसे रोग भी हो जाते हैं। इन जटिलताओं को दूर करने के लिए मालिश, टब स्नान, शालिधान और दूध का सेवन करना चाहिए। चिकनाई रहित बस्ति-क्रया (एनिमा) प्रयोग में लानी चाहिए। इसमें मूत्रल औषधियों (जैसे- गोखरु) से पकाये गये दूध का सेवन भी लाभकर है।

उक्त वेगरोध से उत्पन्न समस्याओं से बचने के लिए आयुर्वेद में मर्यादित मैथुन-सेवन मान्य है। अनावश्यक शुक्र-वेग न हो, इसके लिए उत्तेजना पैदा करने वाले साहित्य, चलचित्र व अन्य उत्तेजक वार्ता एवं दृश्यों से बचना चाहिए। आहार में मिर्च मसाले व गरिष्ठ एवं तामसिक पदार्थों के सेवन से भी बचना चाहिए। सात्त्विक, पथ्य व मित भोजन लेना चाहिए।

अधोवात का वेगरोध

अधोवात के वेगरोध से अर्थात् पेट के निचले भाग में वात एकत्र होने पर संकोचवश उसका वेग रोकने से, मलद्वार से उसका विसर्जन न करने से वात दोष कुपित हो जाता है । इससे मल, मूत्र और गैस को निकालने में रुकावट, पेट में अफारा, दर्द, थकावट, सुस्ती एवं पेट के दूसरे रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इससे नेत्ररोग, हृदय की धड़कन में विकृति एवं मन्दाग्नि भी हो सकती है।

इन जटिलताओं की चिकित्सा के लिए स्नेहन क्रिया (घी, तेल और चिकनाई वाले पदार्थों का सेवन व मालिश आदि) सिकाई, गुदा में वर्ति डालना तथा एनिमा का प्रयोग लाभदायक है। इस स्थिति में पाचक खाद्य और पेय पदार्थों का सेवन करना चाहिए व अधोवात के वेग को रोकने से बचना चाहिए।

वमन (उल्टी) का वेगरोध

वमन की इच्छा या वेग उपस्थित होने पर भी उसे रोकने से खुजली, उदर्द, कुष्ठ, या छपाकी (शीतपित्त), भोजन में अरुचि, सूजन, चेहरे पर काले दाग, रक्त की कमी, ज्वर, जी मिचलाना, विसर्प (एक प्रकार का चमड़ी का रोग), अन्य चर्म रोग, कास, श्वास, नेत्ररोग एवं शोथ (सूजन) उत्पन्न हो सकते हैं।

इन रोगों से छुटकारा पाने के लिए वमन चिकित्सा (उल्टी लाने की औषधि आदि लेना) गण्डूषधारण, औषधियों से तैयार धूमपान, उपवास, रक्तमोक्षण (दूषित रक्त निकलवाना) और विरेचन क्रिया (दस्तावर औषधि का सेवन) को प्रयोग में लाना चाहिए। इसके साथ-साथ शारीरिक व्यायाम और रूक्ष गुण वाले खाद्य व पेय पदार्थों का सेवन भी उपयोगी है।

विसर्प में क्षार एवं नमक युक्त तेल की मालिश से भी लाभ होता है।

छींक का वेगरोध

छींक का वेग रोकने से सिर दर्द, लकवा, आधासीसी का दर्द, मन्यास्तम्भ और नेत्र आदि इन्द्रियों में कमजोरी आदि उत्पन्न हो सकते हैं।

इनकी चिकित्सा के लिए सिर से गर्दन तक के भाग की मालिश और सिकाई, औषधियों से तैयार धूमपान, नाक में तेल डालना आदि साधन प्रयोग में लाने चाहिए । वात शान्त करने वाले पदार्थों का सेवन तथा भोजन के पश्चात् घी का सेवन विशेष उपयोगी है।

उद्गार (डकार) का वेगरोध

डकार का वेग रोकने से हिचकी श्वास (सांस फूलना) शरीर अथवा किसी अंग का कम्पन, भोजन में अरुचि, हृदय और फेफड़ों की क्रियाओं का धीमा पड़ना, अफारा, कास आदि रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

इनके निवारणार्थ आयुर्वेद में हिचकी के लिए निर्दिष्ट उपचारों को अपनाना चाहिए।

जम्भाई का वेगरोध

जम्भाई का वेग रोकने से शरीर का मुड़ जाना, आक्षेप (convulsion) संकुचन (सिकुड़न), अंगों में सुन्नता, कम्पन आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

इनकी चिकित्सा के लिए वात को शान्त करने वाले औषधियों और पदार्थों का सेवन करना चाहिए।

क्षुधा (भूख) का वेगरोध

क्षुधा का वेग रोकने से अर्थात् भूख लगने पर भी भोजन न करने से शरीर में कमजोरी और क्षीणता (दुर्बलता) आ जाती है । समय पर भोजन न करने से यकृत् रोग व तद्जन्य दूसरे विकार पैदा हो जाते है। शरीर का रंग बदलने लगता है तथा घबराहट, अरुचि और चक्कर आदि आने लगते हैं। इसके अतिरिक्त मन्यास्तम्भ, अर्दित (लकवा) आदि रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं।

इन जटिलताओं से छुटकारा पाने के लिए स्निग्ध (चिकनाई वाला) व हल्का तथा उचित समय पर भोजन करना चाहिए।

प्यास का वेगरोध

प्यास लगने पर भी जल आदि पेय पदार्थ न पीने से गला और मुख सूखने लगते हैं। बहरापन, थकावट, कमजोरी तथा हृदय में दर्द आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।

इनके उपचार के लिए रोगी को ठण्डे और शान्तिदायक पेय पदार्थ पीने चाहिए। पानी को एक साथ बहुत अधिक न पीकर कुछ-कुछ अन्तराल से दिन-भर पीते रहना चाहिए।

अश्रु (आंसुओं) का वेगरोध

शोक अथवा अन्य कारणों से हृदय के द्रवित होने से आंसुओं का वेग आता है। इसे रोकने से नाक में सूजन, आंखों के रोग, हृदय रोग, भोजन में अरुचि, चक्कर आदि जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं। इनकी चिकित्सा के लिए औषध, आसव, अरिष्ट का सेवन, नींद तथा हंसी मजाक की बात करना आदि साधन उपयोगी हैं।

श्रम से उत्पन्न श्वास का वेगरोध

अधिक दौड़ने या अन्य कोई शारीरिक श्रम करने से हृदय और फेफड़ों की गति बढ़ जाती है। इससे श्वास तेजी से चलने लगता है। यही श्रमजन्य श्वास है। जब इस तीव्र श्वास को जबरदस्ती रोकने का प्रयत्न करते हैं, तो प्राण और उदान वात कुपित हो जाते हैं। इससे हृदय के कपाटों (Valves) और फुफ्फुस (फेफड़ों) के रोगों की उत्पत्ति होती है। श्वास वेग रोकने से कई बार श्वास एकदम रुक जाता है और रोगी मूर्च्छित भी हो जाता है। इस प्रकार श्वास वेग को रोकने से गुल्म, हृदयरोग और मूर्च्छा की उत्पत्ति होती है।

इसकी चिकित्सा के लिए विश्राम करना आवश्यक है, साथ ही वातशामक आहार-विहार का सेवन करना चाहिए।

नींद का वेगरोध

नींद के वेगरोध से अर्थात् नींद आने पर उसे हठात् रोक कर जगते रहने से जम्भाइयां, थकावट तथा सुस्ती आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। सिर में दर्द, आंखों में भारीपन आंखों के नीचे कालापन और चक्कर आना जैसी शिकायतें देखी जाती हैं।

इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए पूरा आराम और नींद लेनी चाहिए । वात को शान्त करने वाले आहार विहार का सेवन उपयोगी है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि स्वस्थ रहने के लिए इन सब स्वाभाविक वेगों का निस्तारण ठीक समय पर और उचित ढंग से किया जाना चाहिए । इन्हें दबाना नहीं चाहिए। क्योंकि स्वास्थ्य की रक्षा के लिए इन वेगों की तत्काल निवृत्ति करना आवश्यक है। इनको रोकने (धारण करने) से स्वास्थ्य का नाश होता है।