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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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तेल

स्नेह-पदार्थों में घी के बाद तैल (तेल) का स्थान आता है। सामान्यतः ’तैल‘ शब्द पहले तिल से निकले स्नेह के लिए प्रयुक्त होता था, परन्तु बाद में सरसों आदि से निकले स्नेह के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होने लगा।

आयुर्वेद के अनुसार तेल सामान्य रूप से मधुर व अनुरस में कषाय, होता है। यह उष्ण, व्यवायी अर्थात् पहले शरीर में फैल कर बाद में पचने वाला होता है, तिल का तेल कफवर्धक नहीं होता। यह पित्तवर्धक, बल को बढ़ाने वाला तथा त्वचा के लिए लाभदायक होता है। मांसपेशियों को स्थिर, मजबूत और पुष्ट करने वाला, मेधा को बढ़ाने वाला, दीपन (पाचनशक्ति को बढ़ाने वाला) और मल को बाँधने वाला तथा बहुमूत्र को दूर करने वाला है। यह योनि मार्ग को शुद्ध करता है। वातशामक द्रव्यों में तेल सबसे उत्तम माना गया है। औषधियों द्वारा संस्कारित किये (पकाये) जाने पर तेल उन औषधीय गुणों को भी अपने अन्दर ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार प्रयोग करने से यह सभी प्रकार के रोगों को नष्ट करता है।

शरीर पर तेल की मालिश करने से वात का प्रकोप, थकान और बुढ़ापे के लक्षण दूर होते हैं। दृष्टि निर्मल होती है। त्वचा स्वच्छ, सुन्दर और कान्तिपूर्ण होती है। झुर्रियां नहीं पड़ती, शरीर पुष्ट होता है और नींद अच्छी आती है। सिर पर तेल की मालिश करने से सिर दर्द, गंजापन, कम अवस्था में बाल सफेद होना और बाल झड़ना आदि शिकायतें दूर होती हैं।

आयुर्वेद के अनुसार तेल में एक विशेष गुण यह भी पाया जाता है कि यह जहाँ दुबले व्यक्ति का दुबलापन दूर करता है, वहीं मोटे व्यक्ति का मोटापन भी दूर करता है। व्यवायी होने से तेल स्रोतों में बहुत जल्दी प्रवेश कर जाता है। दुर्बल व्यक्ति के स्रोत संकुचित होते हैं और तेल अपने लेखन एवं तीक्ष्ण (तीखापन) आदि गुणों से स्रोतों को तुरन्त खोल देता है। इससे स्रोतों की सिकुड़न समाप्त होने से एक ओर शरीर पुष्ट हो जाता है और कृशता (पतलापन) दूर हो जाती है तो दूसरी ओर सूक्ष्म होने के कारण मोटे व्यक्ति के स्रोतों में भी पहुंच कर चर्बी कम करता है, जिससे मोटापा घट जाता है। आधुनिक दृष्टि से भी तेल में असंतृप्त वसाम्ल पाया जाता है, जो मोटापे एवं उससे उत्पन्न मधुमेह, हृदय-रोग आदि में हानिकारक नहीं माना जाता।

इसी तरह तेल ग्राही अर्थात् मल बांधने और कब्ज दूर करने वाले, दोनों ही गुणों से युक्त माना गया है; क्योंकि यह मल (पुरीष) को बाँधता है और स्खलित मल को बाहर निकाल देता है। एक वर्ष के बाद घी की पौष्टिकता कम हो जाती है, परन्तु तेल जितना पुराना होता है, उतना ही अधिक गुणकारी बन जाता है।

जो तेल जिस पदार्थ से निकाला गया है, उसमें उसी पदार्थ के गुण पाये जाते हैं। मुख्यतः तिल, सरसों, नारियल, अलसी के तेलों का प्रयोग किया जाता है। इनके गुणों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है-

तिल का तेल

तेलों में तिल का तेल सबसे अच्छा माना जाता है। इसका प्रयोग बाह्य रूप से (मालिश करने) और आन्तरिक रूप से (सेवन हेतु) किया जाता है। यह तीक्ष्ण (तीखा) और व्यवायी (शरीर में तुरन्त फैलने वाला), भारी, बलकारक, स्थिरता प्रदान करने वाला, दस्त व वात-कफ शामक, उष्ण, स्पर्श में शीतल, पौष्टिक, लेखन, मल को बांधने वाला, बहुमूत्र-निवारक, पाचक, शक्तिवर्धक, बुद्धि बढ़ाने वाला, शरीर में हल्कापन लाने वाला, गर्भाशय को शुद्ध करने वाला, घाव, प्रमेह (मूत्र से सम्बन्धित रोग), योनिरोग और मस्तक के दर्द एवं कान के रोगों को नष्ट करने वाला है। खाने से यह त्वचा, बालों और नेत्रों के लिए कम लाभकारी है, परन्तु मालिश करने से त्वचा, हृदय, बालों और नेत्रों के लिए अधिक लाभकारी होता है। चोट, मोच, घाव, जले हुए अंग और हड्डी टूटने आदि में भी यह उपयोगी है। इसका प्रयोग नस्य, सिकाई, मालिश और कान में डालने के लिए भी किया जाता है। भोजन बनाने में भी इसका उपयोग होता है। इसकी एक विशेषता है कि स्निग्ध होते हुए भी यह कफ को नहीं बढ़ाता तथा मालिश करने से पित्त को शान्त करता है।

सरसों का तेल

कटु, स्पर्श और वीर्य में उष्ण, तीक्ष्ण (तीखा), हल्का, कफवातहर, शुक्रनाशक, पित्त और रक्त को दूषित करने वाला, लेखन व पाचक होता है। यह चकत्ते आदि चर्म रोगों, सिर और कान के रोगों तथा कृमि (कीड़ों) को नष्ट करने वाला है। प्लीहा (तिल्ली) की वृद्धि में यह तेल उत्तम माना गया है।

मूंगफली का तेल

यह उष्ण, गुरु (भारी), स्निग्ध, कफ-वात शामक, दाह करने वाला और पित्तवर्धक होता है। त्वचा पर इसकी मालिश करने से स्निग्धता की अपेक्षा रूखापन आता है। आजकल भोजन को पकाने में इसका बहुत उपयोग किया जाता है।

नारियल का तेल

दक्षिण भारत में घी के स्थान पर प्रायः इसका प्रयोग किया जाता है। यह भारी, शीतल, वातपित्त-शामक और कफवर्धक होता है। गर्मी में सिर में लगाने से यह शीतलता देता है तथा बालों के लिए हितकर होता है।

अलसी का तेल

यह तेल मधुर-अम्ल, उष्ण, विपाक में कटु, कफ, पित्त और रक्त को कुपित करने वाला, वात-शामक और त्वचा के रोगों को उत्पन्न करने वाला है।

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