रोग की आयुर्वेदिक चिकित्सा करने से पूर्व वैद्य को इन उपरोक्त दुरूह तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम रोग का परीक्षण करना चाहिए। इसके प्रमुख साधन हैं-
- प्रमाण (The means of valid knowledge)
सत्य को जानने व अनुभव करने के साधन को प्रमाण कहते हैं। रोगी एवं रोग की परीक्षा के लिए भी इन प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। आयुर्वेद-शात्र में रोग की परीक्षा के लिए प्रधानतः निम्नलिखित प्रमाणों को उपयोगी माना गया है।12
- आप्तोपदेश (Authoritative Testimony)
- प्रत्यक्ष (Direct observation)
- अनुमान (Hypothesis or Inference)
- युक्ति (Reason)
आप्तोपदेश-
जो व्यक्ति राग, द्वेष, भय, मोह, मान-अपमान, अहंकार, अज्ञान तथा संशय से रहित हैं, जिन्होंने अपने विषय का संशयरहित, पूर्ण व यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो ज्ञातव्य विषय को प्राणियां के कल्याण के लिए ज्यों का त्यों प्रकट करने में सक्षम हैं; वे पुरुष आप्त, शिष्ट या विबुद्ध कहलाते हैं। ऐसे आप्त पुरुषों के उपदेश, वचन तथा ग्रन्थ आप्तोपदेश या शब्द प्रमाण कहलाते हैं13। प्रायः प्रत्येक विषय में सर्वप्रथम आप्तोपदेश (अनुभवी विद्वान् पुरुषों द्वारा रचित ग्रन्थ या उपदेश) द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है। तत्पश्चात् प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा उसकी परीक्षा व पुष्टि की जाती है।
आयुर्वेद के सन्दर्भ में, जिस चिकित्सक ने प्रथम आप्तोपदेश द्वारा रोगों के विषय में जानकारी प्राप्त नहीं की; उसे प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा भी उन रोगों की परीक्षा करना बहुत कठिन है। चरक-संहिता, सुश्रुत-संहिता, अष्टांग-हृदय, आदि ग्रन्थ आयुर्वेद के आप्तोदेश हैं। इनके अध्ययन के द्वारा ही वैद्य यह जान पाता है कि किसी विशेष रोग के प्रकोपक कारण (निदान) कौन से हैं, उनमें किन-किन दोष-दूष्यों की विषमता है; रोग का स्वरूप क्या है; रोग का प्रकार (शारीरिक या मानसिक, निज या आगंतुज आदि), अधिष्ठान, संचार मार्ग आदि कौन से हैं; उसके पूर्वरूप, रूप, भेदक लक्षण कौन से हैं; वह साध्य, असाध्य या याप्य में से किस श्रेणी का है; रोग के उपद्रव कौन से हैं; उसका नाम प्रतिकार के लिए किस प्रकार की चिकित्सा योग्य है तथा रोगी के लिए पथ्यापथ्य क्या हैं? इन सब तथ्यों एवं इसी प्रकार की अन्य आवश्यक बातों की जानकारी आप्तोपदेश के बिना असम्भव है। अतः आप्तोपदेश रोग की परीक्षा का अति महत्त्वपूर्ण साधन है।
प्रत्यक्ष-
इंद्रियों (चक्षु, श्रोत्र आदि) और उनके विषयों (रूप, शब्द आदि) के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। अर्थात् आत्मा, मन, इंद्रियों और इंद्रियों के विषयों का परस्पर सम्बन्ध होने पर उसी क्षण जो स्पष्ट (अव्यभिचारी, संशयरहित और यथार्थ) ज्ञान होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं14। संक्षेप में, जो ज्ञान स्वयं इंद्रियों और मन से प्राप्त किया जाता है, ’प्रत्यक्ष‘ कहलाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में जो निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके लिए आत्मा, आदि का सम्बन्ध एक निश्चित क्रम में होना आवश्यक है। जैसे आत्मा का मन से, मन का इंद्रियों से तथा इंद्रियों का उनके विषयों से सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए।
प्रत्यक्ष प्रमाण की सहायता से रोग की परीक्षा के लिए वैद्य अपनी जिह्वा को छोड़कर शेष चारों ज्ञानेद्रियों (श्रोत्र, चक्षु, त्वचा व नासिका) द्वारा रोगी के शरीर का प्रत्यक्षीकरण करता है। वह इस प्रकार के प्रत्यक्ष द्वारा रोगी के शरीरगत सभी इंद्रियों के विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप व गन्ध) की परीक्षा करता है। यथा- नेत्रों द्वारा रोगी के शरीर का वर्ण, शरीर के अवयवों का आकार, माप तथा संगठन; शरीर व नेत्रों की कान्ति; शरीर का स्वाभाविक या वैकारिक भाव; व्रण शोथादि का वर्ण तथा प्रकार एवं पुरीष, मूत्र, कफ, रक्त व वमन में निकलने वाले पदार्थ़ों, आर्तव, व्रण के स्राव (पीब) आदि को देखकर रोग का निर्णय किया जाता है। श्रोत्रेद्रिय द्वारा आँतों व पेट में गुड़गुड़ाहट; अंगुलि, घुटने, आदि की सन्धियों को मोड़ने व खींचने से होने वाला शब्द (स्फुटन),हृदय व फुफ्फुस आदि अवयवों की ध्वनि तथा रोगी की आवाज सुनकर रोग की परीक्षा की जाती है। नासिका (घाण) द्वारा रोगी के शरीर से आने वाली गन्ध तथा पुरीष, मूत्र, कफ, रक्त, स्वेद तथा व्रण के स्राव की गन्ध को सूंघकर रोग की परीक्षा की जाती है। ज्वर, शोथ, व्रणादि में स्पर्शेद्रिय (त्वचा) द्वारा छूकर अर्थात् हाथ लगाकर शरीर के ताप (उष्णता), शीतलता, मृदुता (कोमलता), कठोरता, खुरदरापन, चिकनाहट व रूक्षता की परीक्षा की जाती है। इसी प्रकार नाड़ी का स्पर्श करके रोगों की परीक्षा की जाती है। ये सब साधन प्रत्यक्ष प्रमाण के अर्न्तगत आते हैं।
आधुनिक युग में इस प्रकार के परीक्षणों के लिए अनेक प्रकार के यत्रों का प्रयोग किया जाता है। जैसे- हृदय व फुफ्फुस की ध्वनियों के लिए Stethoscope, ज्वर के लिए थर्मामीटर, रक्तचाप (बी.पी.) के लिए रक्तचापमापी उपकरण का प्रयोग किया जाता है।
आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान के क्षेत्र में जो भी प्रक्रिया रोग के निदान के लिए अपनाई जाती है, चाहे वह रक्त के भिन्न-िभन्न परीक्षण हों या फिर अल्ट्रासाउंड, एक्स-रे, सिटी स्कैन, एम.आर.आई., एंजियोग्राफी, एण्डोस्कोपी आदि ये सारी प्रक्रियाएं निदान के प्रत्यक्ष उपाय के अन्तर्गत आती हैं।
अनुमान-
अनु$मान, इन दो पदों के मेल से ’अनुमान‘ शब्द बना है। प्रत्यक्षतः किसी लिंग (चिह्न) को लिंगी के साथ देखकर उनका अविनाभावी (निश्चित) सम्बन्ध निर्धारित करना तथा तदनन्तर केवल लिंग को देखकर लिंगी का निश्चित ज्ञान प्राप्त करना अनुमान कहलाता है। जैसे- रसोई में धूम के साथ रहने वाले अग्नि को प्रत्यक्ष देखकर इन दोनों का निश्चित सम्बन्ध ज्ञात होता है। तदनन्तर किसी दूर स्थान में आकाश में उठते धूम को देखकर नीचे विद्यमान अग्नि का अनुमान (निश्चित ज्ञान) हो जाता है। इसी प्रकार आयुर्वेद में विशिष्ट लिंगों (लक्षणों) को देखकर उनसे सम्बद्ध लिंगी (रोग) का बोध हो जाता है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना ’अनुमान‘ है। अनुमान से ही शरीर की चेष्टाओं को देख उसके अन्दर चेतन आत्मा की सत्ता का बोध होता है।
चरक के अनुसार ’युक्ति की अपेक्षा रखने वाला तर्क ही अनुमान है।‘ सरल शब्दों में कहें तो किसी युक्ति के आधार पर अज्ञात विषय को जानने के लिए जो संगति लगाई जाती है, वह अनुमान है15,16।
अनेक रोगों अथवा उनके लक्षणों की परीक्षा प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सम्भव नहीं है। अतः ऐसे रोगों के परीक्षण के लिए अनुमान प्रमाण का आश्रय लिया जाता है। यथा रोगी के रस की परीक्षा प्रत्यक्ष प्रमाण (जिह्वा) द्वारा नहीं की जा सकती। अतः यह परीक्षा अनुमान से ही की जाती है। जैसे भोजन के पाचन और चयापचय के आधार पर रोगी की अग्नि (जठराग्नि) का शारीरिक कार्य एवं व्यायाम के आधार पर उसके बल व सामर्थ्य का अनुमान लगाया जाता है।
ओजक्षय-जन्य विकार (Auto-Immune diseases) को अनुमान प्रमाण द्वारा ही जाना जा सकता है। कई बार रोग का सीधा कारण प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है। आप्तोपदेश से भी रोग का पता लगाना कठिन हो जाता है, परन्तु रोगी बहुत ही जटिल स्थिति से गुजर रहा है, ऐसी अवस्था में ’अनुमान‘ के द्वारा रोग की पहचान या परीक्षा की जाती है।
युक्ति-
युक्ति का अर्थ है- ऐसी बुद्धि, जो अनेक कारणों के संयोग से उत्पन्न भावों (विषयों) को देखती है। त्रिकाल-िवषयक ज्ञान पैदा करने वाली ऐसी बुद्धि को युक्ति कहते है। इसी के द्वारा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) की सिद्धि होती है17।
जिस प्रकार जल, कर्षण की हुई (जोती हुई) भूमि से बीज और ऋतु के संयोग से सस्य (फसल) की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार युक्ति-युक्त चतुष्पाद से व्याधि की शान्ति होती है18। इस प्रकार चिकित्सा की सफलता में युक्ति को कारण बताया गया है।
- प्रश्नपरीक्षा
यदि वैद्य स्वयं अनुमान द्वारा रोग के विषय में निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता, तो वह रोगी से उस विषय में प्रश्न करके ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसे प्रश्नपरीक्षा के नाम से जाना जाता है।
रोगी को खाने-पीने की इच्छा है अथवा अनिच्छा है, किस रस वाले पदार्थ अच्छे लगते हैं, किस प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं, नींद किस प्रकार की है, कोष्ठ किस प्रकृति का है- मृदु, मध्यम या क्रूर; रोग का कारण क्या है; दर्द किस स्थान पर है, रोग घटने व बढ़ने का समय, रोगी को क्या-क्या अनुकूल व प्रतिकूल (सात्म्य या असात्म्य) है, अधोवात, पुरीष, मल आदि के विसर्जन के विषय में जानने योग्य, रोगी की आयु तथा उसका जन्म स्थान इन सब प्रकार के तथ्यों की जानकारी तो प्रश्नों द्वारा ही की जा सकती है।
इन चारों प्रमाणों के आधार पर चिकित्सक को रोगों की परीक्षा भली-भाँति कर लेनी चाहिए। यदि वैद्य ने रोग का परीक्षण भली प्रकार नहीं किया, इंद्रियों के प्रत्यक्ष द्वारा परीक्षा ठीक प्रकार नहीं की, यदि पूछे गये प्रश्नों के उत्तर बिना विचारे और गलत दिये गए हैं, तथा यदि रोग के विषय में वैद्य ने ठीक प्रकार से विचार नहीं किया है, तो ये सब कारण रोग की प्रकृति के विषय में निश्चय नहीं करने देते। इससे वैद्य भम में पड़ सकता है। परिणामतः रोग की चिकित्सा भी ठीक प्रकार नहीं होगी।
उपरोक्त प्रत्यक्ष, अनुमान आदि में सम्मिलित परीक्षाओं को संक्षेप में निम्न छः प्रकार की परीक्षा में बाँटा जा सकता है19।
- श्रवण द्वारा परीक्षा या श्रावणी परीक्षा- आँतों की कूजन (गुड़गुड़ाहट) आदि सुनना।
- स्पर्श द्वारा परीक्षा या त्वाची परीक्षा- शीतलता, उष्णता, कठोरता, व्रणादि का स्पर्श करके तथा नाडीस्पर्श द्वारा रोग की जानकारी प्राप्त करना।
- दर्शन द्वारा परीक्षा या चाक्षुषी परीक्षा- रोगी के शरीर का वर्ण, कान्ति, पुष्टि, कृशता आदि देखकर परीक्षा करना।
- रसना द्वारा परीक्षा या रासनी परीक्षा- अनुमान से उल्लिखित परीक्षण।
- आघाण द्वारा परीक्षा या घाणी परीक्षा- शरीर व अंगों की गन्ध तथा व्रण आदि की गन्ध सूंघकर। जैसे- शरीर या पसीने से आने वाली गन्ध से रोगी की जानकारी करना।
- प्रश्नपरीक्षा- रोगी, उसकी परेशानी आदि के विषय में पूछकर या उसके घर वालों से रोगी के सन्दर्भ में प्रश्न पूछकर रोग की परीक्षा करना।
उपरोक्त प्रमाणों से रोगी के रोग का सम्पूर्ण विवेचन करके चिकित्सा कार्य में प्रवृत्त होने से सफलता प्राप्त होती है।