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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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रात्रिचर्या

(रात में खान-पान और आचार-व्यवहार)

दिन और रात को मिलाकर 24 घण्टों की पूरी अवधि को ही एक दिवस कहा जाता है। अतः रात्रिचर्या भी दिनचर्या का ही अंग होता है। दिन भर के सभी काम और परिश्रम करने के बाद रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। क्योंकि नींद या सोने की क्रिया ही रात में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, अतः रात्रिचर्या में सबसे पहले नींद के विषय में ही जानकारी प्रस्तुत करते हैं।

नींद या निद्रा

सभी जानते हैं कि शरीर को स्वस्थ और स्फूर्तिमान् बनाए रखने के लिए ठीक प्रकार नींद लेना बहुत आवश्यक है। सारे दिन के कार्यों को करने के बाद जब शरीर और मस्तिष्क थक कर निक्रिय से हो जाते हैं तथा ज्ञानेंद्रियाँ एवं कर्मेंद्रियाँ भी थक जाती हैं तो व्यक्ति नींद की अवस्था में आ जाता है। इस प्रकार वह स्थिति, जब मन का सम्पर्क ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों से टूट जाता है तथा वे एकदम निक्रिय-सी हो जाती हैं, नींद या निद्रा कहलाती हैं। नींद की स्थिति में शरीर में सांस लेना, छोड़ना, रक्त-संचार आदि बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य ही चलते रहते हैं, शेष कार्य रुक जाते हैं। इससे शरीर की बहुत कम ऊर्जा ही खर्च होती है, शेष बची ऊर्जा (शक्ति) बल आदि को बढ़ाती है। यही कारण है कि सोने के बाद व्यक्ति अपने को स्वस्थ, तरोताजा और उत्साह से युक्त अनुभव करता है।

रात का समय नींद के लिए अनुकूल होता है, क्योंकि रात में शरीर का कफ दोष और मन का तमस् दोष नींद लाने में सहायक होते हैं। रात्रि में अन्धकार, शोर की कमी तथा दिन की अपेक्षा ठण्डक अधिक होने से ये दोनों दोष बढ़ जाते हैं, अतः अच्छी नींद आने में सहायता मिलती है।

रात को सोने से पहले अपने रूम में टी.वी. है, तो उसे अच्छी तरह से बन्द करके, फोन व मोबाइल को हो सके तो कक्ष से बाहर अन्यथा बिस्तर से दूर रखकर ही सोना चाहिए। यथासम्भव सबको अलग-अलग बिस्तर पर सोना चाहिए, जो स्वस्थ रहने के लिए परम आवश्यक है। आयुर्वेद के अनुसार रात्रि को जल्दी सोकर सुबह जल्दी उठना चाहिए; क्योंकि रात्रि के समय तम का प्रभाव होता है, तब निद्रा अच्छी आती है। प्रातः शीघ उठने से वात तथा कफ की प्रधानता होती है, उस समय पर मलविसर्जन की क्रिया भी ठीक से होती है। अतः प्रातः शीघ उठना चाहिए। उससे मन भी प्रसन्न रहता है। शरीर में स्फूर्ति, ताजगी, आनन्द व उत्साह की वृद्धि होती है। प्रातः उठकर भमण करें, इस समय की शुद्ध वायु एवं शान्त वातावरण देह की निरोगता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है।

  1. स्वप्न-अवस्था

इसमें व्यक्ति निद्रावस्था में सपने देखता रहता है। अवचेतन मन संकल्प-विकल्पों से घिरा रहता है। इस प्रकार यह नींद गहरी और पूरी तरह विश्राम देने वाली नहीं होती।

  1. सुषुप्त-अवस्था

इसमें मन और इंद्रियाँ दोनों निक्रिय होती हैं, नींद बड़ी प्रगाढ़ होती है।

सुषुप्त-अवस्था की कम समय की नींद भी मनुष्य के शरीर और मन को स्वस्थ एवं ताजा बना देती है। जबकि स्वप्न-अवस्था की अधिक नींद भी थकावट दूर नहीं करती और ताजगी प्रदान नहीं करती।

अच्छी नींद लाने के लिए शारीरिक श्रम और थकावट के साथ-साथ मानसिक रूप से पूरी तरह शान्त अर्थात् क्रोध, भय, शोक, चिन्ता आदि मानसिक विकारों से रहित होना भी आवश्यक है। जिन व्यक्तियों को नींद नहीं आती वे ’अनिद्रा‘ रोग से ग्रस्त माने जाते हैं तथा अनेक प्रकार के मानसिक, शारीरिक विकारों से पीड़ित रहते हैं।

अनिद्रा के कारण और उपचार

मानसिक विकार, जैसे- भय, चिन्ता, शोक और क्रोध।

अत्यधिक शारीरिक परिश्रम से पूरे शरीर में अति पीड़ा।

रक्त-मोक्षण अर्थात् शरीर से रक्त निकलवाने की क्रिया।

अति उपवास।

धूम्रपान।

असुविधाजनक बिस्तर व स्थान।

सत्त्व गुण की अधिकता और तमोगुण की कमी।

वृद्धावस्था तथा कुछ रोग, विशेषकर वात दोष से उत्पन्न शूल रोग।

वमन (उल्टी) और विरेचन (दस्त) की क्रियाओं द्वारा सिर एवं शरीर में से दोषों का अधिक मात्रा में निकलना।

स्वाभाविक रूप से ही कम नींद आना।

अनिद्रा को दूर करने के उपाय

मालिश, उबटन और स्नान व हाथ-पैर आदि अंगों को दबाना।

स्निग्ध पदार्थों, दही के साथ शालि चावल या दूध का सेवन।

प्याज का सेवन।

मानसिक रूप से प्रसन्न रहना।

रुचि के अनुसार संगीत सुनना।

आँखों, सिर और मुख के लिए आरामदायक मलहमों का प्रयोग करना।

सोने के लिए आरामदायक बिस्तर और शान्त स्थान।

प्राकृतिक इत्र (perfume) एवं अन्य सुगन्धियों को सूंघना व कमरे में सुन्दर पुष्पगुच्छ आदि रखना।

ब्रह्मचर्य (संयम) में प्रीति रखने, विलासिता (कामुकता) से दूर रहने एवं सन्तोष का भाव रखने से अनिद्रा जन्य कष्ट नहीं होता है-

ब्रह्मचर्यरतेर्ग्राम्यसुख-िनःस्पृहचेतसः। निद्रा सन्तोषतृप्तस्य सं् कालं नातिवर्त्तते।। (अ. सं. सू.- 9.66)

दिन के समय सोने की मनाही

दिन में सोने से शरीर में कफ और पित्त दोष बढ़ जाते हैं, जिससे रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अतः दिन के समय सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दिन के समय सोने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे- हलीमक (खतरनाक प्रकार का पीलिया), सिर दर्द, शरीर का भारीपन, शरीर में दर्द, पाचन-शक्ति की कमजोरी, हृदयोपलेप (ऐसा महसूस होना जैसे हृदय पर बलगम जमी हो), सूजन, भोजन में अरुचि, उल्टी अथवा उल्टी की इच्छा, नाक में सूजन (नासाशोथ), आधे सिर में दर्द, शीतपित्त या छपाकी, विस्फोट या छाले होना, फोडे-फुंसियाँ, खुजली, तद्रा, (सुस्ती), खाँसी, गले के रोग, बुद्धि और स्मरण शक्ति की कमी, शरीर के रसवह, रक्तवह आदि स्रोतों में रुकावट, ज्वर, ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों में कमजोरी, कृत्रिम विषों का अधिक विषैला प्रभाव व इस प्रकार के अन्य रोग। अतः मोटे शरीर वाले, अधिक स्निग्ध पदार्थों का सेवन करने वाले, कफ-प्रकृति वाले कफज रोगों से पीड़ित, जोड़ों के दर्द से ग्रस्त तथा कृत्रिम विष के शिकार लोगों को दिन में बिल्कुल नहीं सोना चाहिए।

अपवाद

ग्रीष्म-ऋतु में रात्रि की अवधि कम हो जाती है तथा गर्मी के कारण शरीर के जलीय तत्त्वों का अधिक शोषण होने से वात बढ़ जाता है। अतः इस ऋतु में सभी मनुष्यों के लिए दिन में सोने की अनुमति है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य स्थितियों में भी दिन के समय सोने की मनाही नहीं है, जैसे- संगीत, गायन, अध्ययन व मादक द्रव्यों के सेवन तथा अधिक चलने से थकान होने पर, क्षय, थकावट, प्यास, दस्त, शूल, दमा, हिचकी जैसे रोगों से पीड़ित होने पर, वृद्धावस्था और बाल्यावस्था में, क्षीण देह होने पर, गिरने अथवा आक्रमण आदि से घायल होने पर किसी वाहन पर यात्रा करने, रात्रि जागरण, क्रोध, शोक एवं भय से थके होने की स्थिति में दिन में सोने पर भी धातुएँ एवं शक्ति सन्तुलित रहती हैं। निद्रावस्था में बढ़ा हुआ कफ दोष भी शरीर के अंगों का पोषण करता है तथा दीर्घायु होती है।

रात के भोजन के मुख्य नियम

भोजन के पाचन और नींद का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। भोजन ठीक प्रकार से पचता नहीं तो नींद में बाधा उत्पन्न हो सकती है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि रात के समय जितना सम्भव हो सके, भोजन जल्दी ही करना चाहिए । भोजन और सोने के समय के बीच कम से कम दो घण्टे का अन्तर तो अवश्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त रात्रि का भोजन सुपाच्य और हल्का होना चाहिए। भोजन करने के बाद कुछ दूर पैदल भमण के लिए भी जाना चाहिए। इससे भोजन का पाचन ठीक प्रकार से हो जाता है और नींद अच्छी आती है।

रात के समय दही का सेवन निषिद्ध क्यों ?

सामान्यतः स्वास्थ्य के लिए हितकारी होते हुए भी दही अभिष्यन्दी (शरीर के स्रोतों में रुकावट करने वाला) होता है। इसी गुण के कारण आयुर्वेद में रात के समय दही खाने की मनाही है, क्योंकि रात को भोजन करने के कुछ समय बाद ही सोना पड़ता है। भोजन-पाचन की प्रक्रिया सोते-सोते चलती रहती है, जो बहुत धीमी होती है। ऐसी स्थिति में स्रोतों में रुकावट की सम्भावना अधिक रहती है।
परिणामस्वरूप नींद तथा चयापचय की क्रिया में भी बाधा उत्पन्न होती है। यही कारण है कि रात्रि के समय सामान्यतः सभी के लिए दही सेवन की मनाही है। श्वास (दमा), खाँसी, जुकाम, जोड़ों के दर्द से पीड़ित रोगियों के लिए तो रात के अतिरिक्त दिन में भी दही खाने का निषेध किया गया है, क्योंकि इस प्रकार के रोग तो स्रोतों में रुकावट होने के कारण ही पैदा होते हैं।

रात्रि के समय पढ़ना

आँखों को स्वस्थ बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि पढ़ते-लिखते समय प्रकाश की व्यवस्था उचित रूप से व पर्याप्त हो, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि सूर्य का प्रकाश जितना अनुकूल है, कृत्रिम प्रकाश उतना अनुकूल नहीं होता है। इससे नेत्रों की दृष्टि धीरे-धीरे कम होती जाती है। इस लिए जहाँ तक सम्भव हो, रात के समय कम पढ़ना चाहिए। लिखने से आँखों पर अधिक जोर पड़ता है, अतः रात्रि में लेखन कार्य न करें तो अच्छा है।

मैथुन अथवा सम्भोग क्रिया

आयुर्वेद ने स्वास्थ्य एवं सामाजिक मर्यादाओं को देखते हुए मैथुन क्रिया के लिए भी कुछ सीमायें बांधी हैं। इस आधार पर निम्नलिखित परिस्थितियों में सम्भोग या मैथुन नहीं करना चाहिए (ये नियम स्त्री, पुरुष दोनों के लिए ही समान है) ः-

  • स्त्री के मासिक धर्म के दौरान, किसी रोग या संक्रमण से पीड़ित होने पर तथा अपवित्र
    होने पर।
  • बदसूरत, दुश्चरित्रा, अशिष्ट व्यवहार वाली तथा अकुलीन, पर-स्त्री एवं व्यभिचारी परपुरुष के साथ।
  • मित्रवत् व्यवहार न होने पर, काम की इच्छा न होने पर, किसी अन्य पुरुष के प्रति आकर्षित होने पर।
  • पवित्र माने जाने वाले वृक्षों के नीचे, सार्वजनिक स्थानों, चौराहे, उद्यान, श्मशान घाट, वधस्थल, जल, चिकित्सालय, औषधालय, मन्दिर एवं ब्राह्मण, गुरु या अध्यापक के निवास स्थान में।
  • प्रातः एवं सायं की सन्धि वेला में पूर्णमासी, अमावस्या, प्रतिपदा (पक्ष का पहला दिन) व अष्टमी तिथि में।
  • पुरुष के अपवित्र स्थिति में होने पर, काम की तीव्र इच्छा या उत्तेजना न होने पर।
  • दूध आदि किसी वृष्य पदार्थ का सेवन न करने पर।
  • भोजन बिल्कुल नहीं अथवा आवश्यकता से अधिक मात्रा में करने पर।
  • मूत्र का तीव्र वेग, थकावट, शारीरिक श्रम एवं उपवास की स्थिति में।
  • विषम स्थान में तथा एकान्त स्थान न होने पर।