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रक्तमोक्षण (Blood-Letting)

पंचकर्म चिकित्सा में वर्णित वमन, विरेचन आदि कर्मों का प्रधान उद्देश्य है कि दोषों का शोधन हो। रक्तमोक्षण कर्म में दोषशोधन की अपेक्षा रक्त का निर्हरण (निकालना) ही प्रधान विषय प्रतीत होता है परन्तु इसका उद्देश्य भी दोषशोधक है, क्योंकि पित्त से रक्त के अति दूषित होने पर ही रक्तमोक्षण का विधान है। रक्त शरीर की अत्यंत महत्त्वपूर्ण धातु है। परन्तु दूषित होने पर अनेक रोगों को उत्पन्न करता है। रक्त की रोगोत्पादकता अत्यन्त व्यापक होती है। अतः स्वास्थ्य-संरक्षण एवं रोगों की निवृत्ति के लिये दूषित रक्त को निकाल देना आवश्यक होता है। दूषित रक्त को निकालते समय पित्त का भी निर्हरण होता है, क्योंकि पित्त रक्त में आश्रयाश्रयी-भाव से रहता है। अतः पित्तज व्याधियों के लिये रक्तमोक्षण को प्रधानता से प्रतिपादित किया गया है।

रक्तमोक्षण आशुफलप्रद चिकित्सा है, किन्तु ठीक ढंग से न करने पर यह अनेक व्यापत्तियां (बिगाड़) उत्पन्न करता है।

प्रकार- रक्तमोक्षण के मुख्य दो प्रकार हैं17

(1) शत्र द्वारा रक्तविस्रावण

(2) शत्र रहित रक्तविस्रावण

शत्र विस्रावण दो प्रकार का होता है-

(क) प्रच्छान- इसमें एक ही स्थान पर एकत्रित दूषित रक्त को चीरा लगाकर बाहर निकाल लिया जाता है।

(ख) सिरावेध- जब दूषित रक्त पूरे शरीर में फैल जाता है तब इस विधि का प्रयोग किया जाता है।

शत्र रहित विस्रावण चार प्रकार का होता है-18

(1) जलौकावचारण-िपत्त प्रकुपित रक्त को निकालने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।

(2)  शृंगावचारण- वात दोष से प्रकुपित रक्त को इस विधि द्वारा निकाला जाता है।

(3) अलाबु अवचारण- कफ दोष से प्रकुपित रक्त को अलाबु द्वारा बाहर निकाला जाता है।

(4) घटीयंत्र- जब दूषित रक्त त्वचा की अलग-अलग परतों में जम गया हो तब घटीयंत्र का प्रयोग किया जाता है।

रक्तमोक्षण के लिए इनका उपयोग दोषों की, रक्त की एवं रोगी की अवस्था के अनुसार किया जाता है।

दोषावस्था के अनुसार-19,20,21 वात दोष के दूषित रक्त का निर्हरण  शृंग से, पित्त से दूषित रक्त का निर्हरण जलौका तथा कफ से दूषित रक्त का निर्हरण अलाबु से करना चाहिये।

रक्तावस्था के अनुसार-22,23 दोषों के अतिरिक्त रक्त की अवस्था के अनुसार (अवगाढ, अवगाढतर) उपर्युक्त प्रयोगभेदों का विचार किया जाता है। यथा- यदि रक्त ग्रथित है तो जलौका का उपयोग करें, यदि एक स्थान में पका हुआ है तो प्रच्छान का तथा सर्वांङग शरीर में व्याप्त हो तो सिरावेध द्वारा रक्त को स्रावित कराया जाता है।

आतुरावस्था के अनुसार-24,25,26 आतुर (रोगी) का शरीरबल देखकर भी इसके प्रयोग में भिन्नता होती है। यथा-  शृंग और अलाबु का प्रयोग सुकुमार व्यक्तियों में तथा जलौका का प्रयोग अत्यन्त सुकुमार व्यक्तियों में करना चाहिये।

शरीर और अन्य द्रव्यों के सदृश रक्त की संरचना भी पांच महाभूतों के सम्मिश्रण से ही हुई है। रक्त जीवन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह रक्त ही है, जो चेतन प्राणी के शरीर का निर्माण भी करता है तथा उसे जीवित भी रखता है। अतः रक्त की रक्षा करना तथा अत्यधिक स्राव को रोकना अत्यावश्यक है।

अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होने पर भी कुछ परिस्थितियों में रक्त को शरीर से बाहर निकालना पड़ता है। जैसे- चर्मरोग, शरीर में गाँठें आदि होने पर ’रक्त मोक्षण‘ (रक्त को शरीर से बाहर निकालना) एक चिकित्सा के रूप में प्रयोग किया जाता है। क्योंकि उपरोक्त परिस्थितियाँ रक्त के दूषित होने पर अथवा रक्त की मात्रा में अधिकता होने पर उत्पन्न होती हैं। ऐसी स्थिति में दूषित रक्त का ही स्राव कराया जाता है। शरीर से रक्तस्राव के लिए जोंक का प्रयोग किया जाता है। सिरा का छेदन करके भी रक्तस्राव किया जा सकता है।

रक्त-मोक्षण के योग्य व्यक्ति

निम्नलिखित रोगों से  पीड़ित व्यक्ति के लिए रक्त-मोक्षण की क्रिया उपयोगी है-

शोथ (सूजन), दाह (जलन), त्वचा पर लालिमा, शरीर के किसी अंग से रक्तस्राव, वातरक्त (गठिया), कुष्ठ जैसे चर्म रोग, फोड़े-पुंसियाँ, हाथ के रोग, वात का अत्यधिक प्रकोप, श्लीपद (हाथीपाँव), रक्त की विषाक्तता, गाँठे व गिल्टियाँ होना, अपची (तपेदिक सम्बन्धी गिल्टी), क्षुद्र रोग, विदारिका (काँख और जँघा के बीच गिल्टी जैसी वृद्धि), स्तन रोग, शरीर में भारीपन व शिथिलता, रक्त प्रकोप से उत्पन्न नेत्रपाक, तद्रा, मुँह-नाक व शरीर से दुर्गन्ध आना, कान, होंठ, नाक व मुँह से पीब आना, यकृत् और प्लीहा के रोग विसर्प, सिरदर्द व उपदंश।

सम्यक् रक्त-मोक्षण के लक्षण

रक्त-मोक्षण की क्रिया के पश्चात् यदि रोगी को दर्द में आराम मिले, रोग की तीव्रता कम हो जाए, रोगी शरीर में हल्कापन अनुभव करे तथा सूजन समाप्त हो जाए तो समझना चाहिए कि यह क्रिया ठीक प्रकार से सम्पन्न हो गई है।