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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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नियन्त्रण करने योग्य प्रवृत्तियां

ऊपर लिखित अधारणीय (न रोकने योग्य) वेगों के अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य के कुछ वेग ऐसे होते हैं, जो धारणीय (रोकने योग्य) ही होते हैं, क्योंकि वे स्वयं उसके लिए तथा समाज के लिए हानिकारक होते हैं । इस प्रकार के वेगों या प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य लोभ, लालच, भय, क्रोध, शोक, ईर्ष्या, अहंकार, निर्लज्जता और आसक्ति के अधीन होकर कार्य करता है। प्रत्येक मनुष्य को अपने शान्त और सुखी जीवन के लिए इस प्रकार के सभी मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक वेगों, अनुचित कर्मों और अविवेक पूर्ण इच्छाओं को नियत्रण में रखना चाहिए।

इन धारणीय वेगों को तीन भागों में बाँट सकते हैं-

  1. मन के वेग- लोभ, ईर्ष्या-द्वेष (दूसरे की सफलता और उन्नति को देखकर मन में होने वाली ईर्ष्या या जलन), मत्सरता (दूसरों को दुखी देखकर प्रसन्न होना), राग (विषयों में आसक्ति), क्रोध, शोक, भय, अभिमान, निर्लज्जता, अभिध्या (दूसरे का धन हड़पने की प्रबल इच्छा) आदि।
  2. वाचिक (वाणी के) वेग- क्रोधपूर्वक कठोर वचन बोलना, आवश्यकता से अधिक बोलना, चुगली करना, झूंठ बोलना, एक ही बात को दोहराते रहना तथा समयानुकूल न बोलना अर्थात् असामयिक या अप्रासंगिक बात करना, ये सब वाणी के वेग एवं दोष हैं। इनसे बचना चाहिए।
  3. शारीरिक वेग- दूसरें को मारना-पीटना, लूटना, किसी प्रकार का बलात्कार करना, चोरी करना, डाका डालना, लाठी आदि से प्रहार करना, लड़ाई-झगड़ा व इसी प्रकार के अन्य कार्य शरीर के वेगों के अर्न्तगत आते हैं। अनैतिक, असामाजिक, व अवैध कार्य़ों से प्रयत्नपूर्वक बचना चाहिए।

यदि मनुष्य इन अविवेकपूर्वक वेगों से होने वाली हानियों के विषय में चिन्तन करे, तो वह इनसे बच सकता है। इससे वह स्वयं तो शान्त रहता ही है, उसके परिवार में भी सुख-शान्ति बनी रहती है। ऐसा व्यक्ति समाज में भी आदरणीय होता है। इस प्रकार धारणीय वेगों को नियत्रित कर उत्तम आचरण करने से व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम, इस त्रिवर्ग का सञ्चय व उपभोग कर सकता है। यह धारणीय वेगों को रोकने का शुभ परिणाम होता है।