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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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दिनचर्या

जागरण

स्वस्थ व्यक्ति को ब्राह्म-मुहूर्त में (सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व) उठ जाना चाहिए2। यह समय शुभ माना जाता है, क्योंकि वातावरण में सब जगह शान्ति, सात्त्विकता, स्वच्छता और प्रसन्नता छाई रहती है। जागते ही अपने इष्ट देव का स्मरण करके प्रार्थना करनी चाहिए। इससे मानसिक शान्ति और प्रसन्नता बनी रहती है, क्योंकि इस समय बुद्धि, मन आदि सब तरोताजा होते हैं तथा थकान मिटी होती है, अतः जो याद किया जाता है, वह स्मरण रहता है। इस समय उठने पर शौच, स्नान, योगाभ्यास व व्यायाम आदि नित्यकर्म करने का पर्याप्त समय भी मिल जाता है, अतः रोग नहीं होते और आयु की रक्षा होती है। प्रातःकाल ही यदि दिनभर के कार्य़ों की योजना बना ली जाए तो कार्य ठीक समय पर और उत्तम रीति से सम्पन्न होते हैं।

मुख धोना

बिस्तर छोड़ने के तुरन्त बाद, सभी ऋतुओं में स्वच्छ जल से मुख धोना चाहिए। इससे आँख, नाक, मुख तथा चेहरे पर जमी हुई गन्दगी साफ हो जाती है तथा सुस्ती दूर होकर ताजगी आती है। शीत-ऋतु में थोड़े गुनगुने जल से मुख धोया जा सकता है।

खाली पेट जल पीना

प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन और हर ऋतु में मुख धोने के पश्चात् खाली पेट कम से कम एक गिलास और अधिक से अधिक चार गिलास जल अवश्य पीना चाहिए। यह जल रात को ही एक बर्तन में (विशेषकर ताँबे के बर्तन में) भरकर रख देना चाहिए और प्रातः इसी जल का पान करना लाभप्रद रहता है। शीतकाल में या मोटापे से ग्रसित रोगियों को जल गर्म करके पीना चाहिए। इससे मल तथा मूत्र का त्याग ठीक प्रकार से होता है, जिससे शरीर से अनेक प्रकार के विषैले तत्त्व बाहर निकलते हैं और अनेक रोगों से छुटकारा मिलता है। इसे ही उषःपान कहा जाता है। सुबह उठकर जो जल पिया जाता है, उसे बैठकर ही पीना चाहिए। खड़े-खड़े पानी पीने से घुटने में या जोड़ों में दर्द हो सकता है। यदि उकड़ू बैठकर जल पिया जाये तो अधिक उत्तम है।

कुछ लोग इस जल के स्थान पर प्रातःकाल चाय, (Bed tea) का सेवन करते हैं। उनके कथनानुसार, इससे शौच क्रिया सुविधापूर्वक हो जाती है, परन्तु इसका प्रभाव जल से अलग प्रकार का होता है। यह चाय आँतों पर दबाव डाल कर उन्हें उत्तेजित करती है। इसके परिणामस्वरूप मल-त्याग की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। वस्तुतः गर्म एवं उत्तेजक होने के कारण चाय आँतों में तीव्र उत्तेजना उत्पन्न कर देती है और यह उत्तेजक प्रभाव कुछ दिनों के पश्चात् समाप्त होने लगता है। इस प्रकार व्यक्ति पुनः कब्ज का शिकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त, चाय और कॉफी में पाया जाने वाला ’कैफीन‘ (Caffeine) नामक तत्त्व आमाशय तथा आँतों की ग्रन्थियों पर भी बुरा प्रभाव डालता है, परन्तु ठण्डे जल के सेवन से किसी प्रकार का कुप्रभाव नहीं होता। हाँ, खाँसी, जुकाम एवं गला खराब होने पर इस जल को गुनगुना करके लेना चाहिए।

मल-त्याग

इसके पश्चात् मल-त्याग के लिए जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को प्रातः ही नियमित रूप से इसकी आदत बनानी चाहिए। आज के इस तनावपूर्ण और व्यस्त जीवन में बहुत से लोगों को नियमित रूप से तथा समय पर मल के वेग का अनुभव नहीं होता। इसके अनेक कारण हैं, जैसे- देर रात्रि में खाये गये भोजन का पाचन न होना, पूरी नींद न ले पाना, बहुत अधिक चिन्ताग्रस्त, क्रोधी, संवेदनशील और असन्तुलित स्वभाव का पाया जाना आदि। इन सब कारणों से अथवा वातकारक भोजन (जैसे- भारी दालें, तले हुए पदार्थ) के सेवन से रात को आँतों में वात जमा हो जाती है। इससे मल-त्याग की गति में रुकावट पैदा होती है। परिणामतः थोड़ा मल-त्याग करने पर लगता है कि पेट पूरी तरह साफ हो गया है, परन्तु कुछ समय बाद फिर मल-त्याग की आवश्यकता महसूस होती है। कुछ लोगों को तो पेट साफ करने के लिए प्रातःकाल ही तीन-चार बार जाना पड़ता है।

कई बार दफ्तर या दुकान आदि के लिए जाने की जल्दी के कारण भी व्यक्ति मल-त्याग की क्रिया की उपेक्षा करता है और पेट पूरी तरह साफ नहीं हो पाता। परिणामतः भूख समाप्त हो जाती है तथा गैस, अपच, सिरदर्द, उदासी, ग्लानि, बेचैनी, थकान, सुस्ती, नींद न आना आदि शिकायतें उत्पन्न हो जाती हैं। अधिक वात एकत्रित होने से हृदय पर दबाव पड़ता है और दिल की धड़कन बढ़ जाती है। अधिक समय तक कब्ज रहने से जुकाम, दमा, बवासीर, जोड़ों का दर्द तथा गठिया जैसे भयंकर रोग भी हो सकते हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रतिदिन नियमित रूप से मल-त्याग करना आवश्यक होता है। व्यक्ति को प्रतिदिन नियमित रूप से मल-त्याग की क्रिया के लिए जाना चाहिए। कुछ सावधानियाँ बरतनी चाहिए, जैसे- वातकारक पदार्थ, भारी दालें- राजमा, चने, उड़द व चने की दाल, पिज्जा, बर्गर, चाउमीन व तले हुए पदार्थ कम से कम मात्रा में लेने चाहिए। पत्ते वाली सब्जियाँ- पालक, मेथी तथा बथुआ आदि तथा घीया, तोरी, जिमीकन्द, सेव, अमरूद, मुनक्का, अंजीर, पपीता एवं अन्य रेशेदार पदार्थ अधिक मात्रा में सेवन करने चाहिए। एक से अधिक बार मल का वेग उपस्थित होने पर टालना नहीं चाहिए, मल-त्याग के लिए समय पर अवश्य जाना चाहिए। कब्ज व अन्य उदर रोगों को स्थायी रूप से दूर करने के लिए ’कपालभाति‘ प्राणायाम का अभ्यास प्रातः खाली पेट अवश्य करना चाहिए।

दातुन या दांत साफ करना

आयुर्वेद में मल-त्याग के पश्चात् दाँतों को साफ करने का विधान है।

  1. कटु, तिक्त या कषाय रस वाले औषधीय वृक्षों की अंगुली जितनी मोटी 6 इंच लगभग लम्बी, सीधी, छिलकेयुक्त ताजी शाखा को लेकर आगे के लगभग 1-2 इंच के भाग को दाँत से चबाकर वूंची (ब्रश) बनाकर उससे दाँत साफ करने का विधान है। करोड़ों भारतीय आज भी इस तरह से दातुन से दाँत साफ करते हैं। इस दातुन से मुख के अनेक रोग व बैक्टिरिया का शमन होता है। रोगशमन की दृष्टि से बबूल, करंज, मालती, असन, नीम, अपामार्ग आदि तथा इसी प्रकार के गुण और रस वाले वृक्षों की टहनी को प्रयोग में लाया जा सकता है।
  2. इस दातुन से एक-एक दाँत को, नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे को रगड़ना चाहिए। इससे दाँत भी अच्छी तरह साफ होते हैं और मसूड़ों को किसी प्रकार की हानि भी नहीं होती। दातुन के साथ या अलग से अनेक आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से निर्मित पाउडर (दन्तमंजन) का प्रयोग करने का भी विधान हे। चूर्ण या मंजन का भी प्रयोग किया जा सकता है।

इस प्रकार, दाँत और जीभ साफ करने से मुँह की दुर्गन्ध और जिह्वा, दाँत और मुँह का मैल दूर होता है। इससे दाँत साफ और मजबूत होते हैं और विभिन्न खाद्य-पदार्थों के स्वाद की अनुभूति भी ठीक प्रकार से होती है3

आजकल दाँतें के लिए बने बनाये ब्रुश बाजार से मिलते हैं, जिनका प्रयोग दाँत साफ करने के लिए किया जाता है। इसके साथ विभिन्न प्रकार के टूथपेस्ट प्रयोग में लाये जाते हैं। परन्तु एक ही ब्रश का बहुत समय तक प्रयोग नहीं करना चाहिए व प्रयोग से पहले थोड़ी देर उसे गर्म पानी में रख देना चाहिये, इससे उसके जीवाणु मर जाते हैं। इस प्रकार सावधानी रखने से अनेक रोगों से बचा जा सकता है।

दाँत साफ करने के बाद जीभ के ऊपर जमी हुई सफेद परत को भी साफ करना चाहिए; क्योंकि जीभ पर जमी सफेद परत आमदोष की सूचक है जो कि रात्रि के भोजन के ठीक से न पचने पर जीभ के मूल पर जमा हो जाती है या फिर शरीर के अन्दर होने वाली किसी गहरे असन्तुलन के संकेत देती है। इसके अतिरिक्त जीभ के मूल में बहुत-सा मैल जम जाता है, जिससे दुर्गन्ध आने लगती है और जीभ का स्वाद भी ठीक नहीं रहता। पूर्वोक्त दातुन को पीछे से चीर कर जीभ साफ की जा सकती है। इसके अतिरिक्त लकड़ी, सुवर्ण, चाँदी, ताँबे, पीतल या स्टील की धातु से भी जीभी (Tongue scraper) बनाई जाती है। जो आजकल बाजार में उपलब्ध होती है, जीभ कोमल, चिकनी और बीच में से घुमावदार होनी चाहिए। किनारे तीखे और नुकीले नहीं होने चाहिए, अन्यथा जीभ में घाव होने का भय रहता है4

अपच, श्वास, ज्वर, लकवा, तृष्णा (अधिक प्यास) मुखपाक (मुंह में छाले) और हृदय, नेत्र, सिर और कान के रोग होने पर दातुन करने की मनाही की गई है। इन अवस्थाओं में दातुन करने से रोग बढ़ने की आशंका रहती है।

गण्डूष/कवल

यदि यात्रा या अन्य किसी कारणवश दाँत साफ करने की सुविधा न हो, तो पानी से कुल्ले व गरारे भी किये जा सकते है। इससे भी कुछ हद तक जीभ और दाँतो में जमा हुआ मैल एवं मुँह की दुर्गन्ध दूर हो जाती है। इसके अतिरिक्त मुँह का चिपचिपापन तथा गले और मुख में जमा कफ भी निकल जाता है। सामान्यतः दाँत साफ करके मुख में तिल या सरसों का तेल लेकर दाँये-बाँये घुमाना चाहिए। इसे कवलग्रह कहते हैं। इससे दाँत और मसूड़े मजबूत होते हैं, दाँत दर्द नहीं होता, ठण्डा-गर्म पदार्थ दाँतों में नहीं लगता, खटास से दन्तहर्ष नहीं होता, सख्त से सख्त पदार्थ भी चबाया जा सकता है, आवाज ऊँची और गम्भीर होती है, चेहरे पर कोमलता आती हैं, मुंह का स्वाद अच्छा रहता है और भोजन में रुचि बढ़ती है। नियमित रूप से कवल (कुल्ला, गरारे) और गण्डूष करने से गले का सूखना और होंठों के फटने की शिकायत भी दूर होती है।

कटु रस वाले द्रव्यों के साथ जल उबाल कर व छान कर साधारण गर्म पानी से गण्डूष करने से मुख साफ हो जाता है और दुर्गन्ध दूर हो जाती है।

कवल (गरारे) से शिरोरोग, कर्णरोग, जी-मिचलाना, तद्रा (सुस्ती), अरुचि, पीनस (पुराना जुकाम आदि) और मन्या स्तम्भ आदि रोग ठीक होते हैं।

सिर पर तेल लगाना

आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य को नित्यप्रति सिर पर तेल लगाना चाहिए । इसके लिए नारियल, तिल, जैतून व सरसों का तेल उपयोगी होता है। नारियल का तेल शीतल होता है, अतः इसका उपयोग गर्मी में ही करना चाहिए। सिर में तेल लगाने से बालों का गिरना, सफेद या भूरा होना, गंजापन, सिरदर्द, सिर की त्वचा का फटना और अन्य वात के रोग नष्ट होते हैं। सिर, नेत्र, कान आदि इंद्रियाँ बलशाली बनती हैं, बाल लम्बे, काले और मजबूत होते हैं, तथा चेहरे की त्वचा में चमक आती है5। तिल का तेल सिर पर लगाने से नींद अच्छी और गहरी आती है। तेल लगाने के बाद कंघी करने से बाल सुन्दर तथा स्वच्छ होते हैं6

तेल मालिश (अभ्यंग)

जिस प्रकार घड़े, सूखी चमड़ी एवं रथ और मोटर-गाड़ियों के पास की धुरी में तेल लगाने या डालने से वे मुलायम और मजबूत होते हैं, उसी प्रकार शरीर पर तेल की मालिश करने से शरीर शक्तिशाली और त्वचा मुलायम होती है। शरीर पर वात से होने वाले रोग आक्रमण नहीं कर पाते। त्वचा वात का स्थान है। त्वचा में रोमकूपों की अधिकता होती है, जिनमें पित्त की गर्मी होती है। इस गर्मी से त्वचा पर लगाया गया तेल शरीर में लीन हो जाता है और वात शान्त होता है। इसके अतिरिक्त बुढ़ापा, थकान, त्वचा का खुरदरापन, शुष्कता और झुर्रियाँ नष्ट होती हैं, दृष्टि निर्मल, शरीर पुष्ट, त्वचा कोमल और आकर्षक बनती है। शरीर की दुर्गन्ध, मैल, खुजली, पसीने की बदबू, भारीपन और तंद्रा भी दूर होती है।

तेल की मालिश लोम की दिशा की ओर धीरे-धीरे करनी चाहिए, बहुत जोर लगाने की आवश्यकता नहीं होती। धूप में अभ्यंग करने से तेल शरीर में जल्दी रम जाता है।

मालिश करने से जहाँ त्वचा को आरोग्य मिलता है, वहीं मांसपेशियों मजबूत हो जाती हैं। स्नायुंत्र एवं नाड़ी तंत्र की दुर्बलता तथा सन्धिवात में अभ्यंग अत्यन्त लाभप्रद है।

कान में तेल डालना (कर्णपूरण)

आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य को कान में प्रतिदिन तेल डालना चाहिए। इससे ऊँचा सुनना, बहरापन, कान के रोग (वात से होने वाले), मन्यास्तम्भ (Torticollis) तथा हनुस्तम्भ जैसे रोग नहीं होते। स्वस्थ अवस्था में कान में तेल डाल कर उसे दो मिनट तक धारण करना चाहिए। यदि कान में दर्द हो, तो तेल डालने के बाद कान के बाहर से मूल में हल्के हाथ से मालिश करते हुए तब तक तेल रहने देना चाहिए, जब तक दर्द समाप्त न हो जाए।

पैरों में तेल मालिश (पादाभ्यंग)

पैरों में प्रतिदिन तेल लगाने से भी बहुत लाभ होता है। इससे पैरों का खुरदरापन, रूखापन, शिथिलता, थकावट, सुन्न होना, पैरों का फटना, पैरों की रक्तवाहिकाओं और स्नायुओं की सिकुड़न, गृधसी (सियाटिका) तथा अनेक वातरोग ठीक होते हैं। आँखों की दृष्टि भी तेज होती है। यही कारण है कि पहले कई विद्वान् लोग इसे धर्म का अंग मान कर शौच के पश्चात्, मूत्रत्याग के बाद, भोजन से पहले, कितनी ही बार पैरों को धो कर पोंछते थे और प्रातःकाल स्नान से पहले पैरों में तेल मलते थे। रात को सोने से पहले पैरों में तेल मालिश करने से अच्छी नींद आती हैं।

तेल के अलावा बर्फ, लौकी, खीरा तथा अन्य औषधीय द्रव्यों को मलने से बहुत से रोग व विकार दूर होते हैं।

नस्य कर्म या नाक में तेल डालना

नाक को सिर का द्वार माना गया है। अतः नाक में डाली गई औषधि सिर के एक-एक अणु तक पहुँच जाती है। सामान्यतः वर्षा, हेमन्त और वसन्त ऋतुओं में, जब आकाश में बादल न छाये हों, तो नाक में तेल की कुछ बूँदें डालनी चाहिए। प्रातः सिर पर तेल आदि लगाने के बाद, मलत्याग, दन्तधावन आदि नित्यकर्म करने के पश्चात् यह क्रिया करनी चाहिए। तेल के पात्र को गर्म पानी में रखकर या वाष्प के संयोग से गुनगुना कर लें। तत्पश्चात् सिर को कुर्सी आदि के सहारे पीछे टिका कर और थोड़ा-सा नीचे की ओर झुका कर या तख्त पर लेटकर, गर्दन को थोड़ा पीछे की ओर लटका कर ड्रॉपर से गुनगुने तेल  की कुछ बूँदें नाक में बारी-बारी से एक-एक नासा में डालनी चाहिए और साँस ऊपर की ओर खींचना चाहिए। एक नासा में डालते समय दूसरी को बन्द करना चाहिए। इससे जो कफ या स्राव निकले उसे बाहर थूक देना चाहिए। नस्य के बाद सौ तक गिनती करने तक पीठ के बल लेटे रहना चाहिए, सोना नहीं चाहिए। इस नस्य से गर्दन के ऊपर के सभी रोग दूर होते हैं। इसके लिए आयुर्वेद में वर्णित अणुतैल का प्रयोग करना चाहिए। वैसे बादाम रोगन और गाय का घी भी प्रयोग में लाया जा सकता है, जो अणु तैल की अपेक्षा कुछ कम प्रभावकारी है। नस्य से मन्यास्तम्भ (Torticollis), लकवा, सिरदर्द, आधासीसी का दर्द, नाक में सूजन, सिर का काँपना, हनु-स्तम्भ (Lock-Jaw) में लाभ होता है। वृद्धावस्था में भी आयु का प्रभाव सिर आदि अंगों पर कम पड़ता तथा बाल सफेद होने से भी बचाव होता है।

यदि स्वस्थ व्यक्ति अच्छे आरोग्य के लिए तेल या गोघृत नाक में डालकर उसे निगल लेता है तो यह आरोग्य के लिए उत्तम है। इसे बाहर थूकने की आवश्यकता नहीं है।

आयुर्वेदानुसार व्यक्ति को स्वस्थावस्था में नस्य का काल प्रायः शरद् और वसन्त ऋतु में (जिस समय अधिक सर्दी या गर्मी न हो) माना गया है अर्थात् शीतकाल में दोपहर के समय, ग्रीष्मकाल में प्रातः-सायं और वर्षाकाल में दोपहर धूप के समय में देना चाहिए। इसी प्रकार, दोषों के अनुसार भी नस्य कर्म के काल को विभाजित किया गया है, जैसे- कफ होने पर प्रातःकाल, पित्त होने पर दोपहर और वात की अधिकता होने पर सायंकाल नस्य देना चाहिए। वात से होने वाले शिरोरोग, हिचकी, अपतानक, मन्यास्तम्भ और स्वरभंश (गला बैठना) में प्रतिदिन सायं और प्रातः नस्य देना चाहिए।

व्यायाम

जिस क्रिया से शरीर में आयास (श्रम-थकावट) उत्पन्न हो उसे व्यायाम कहते है7। व्यायाम शरीर में स्थिरता (दृढ़ता) और बल पैदा करता है। व्यायाम नित्यप्रति, सब ऋतुओं में अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए। हेमन्त, शिशिर और वसन्त ऋतु में अपनी आधी-शक्ति तक अर्थात् जब माथे पर या बगल में पसीना अनुभव हो तब तक करना चाहिए। ग्रीष्म, वर्षा और शरद् में इससे भी कुछ कम करना चाहिए, क्योंकि ग्रीष्म, वर्षा आदि में वात का संचय और प्रकोप होता है, अतः कम करने का विधान है। व्यायाम करने के बाद सारे शरीर को धीरे-धीरे मलना चाहिए, जिससे शरीर को कष्ट न पहुँचे। इससे व्यायाम से उत्पन्न थकान दूर हो जाती है। आयुर्वेद के अनेक ग्रन्थों में व्यायाम की बहुत प्रशंसा की गयी है, क्योंकि यह आरोग्य के लिए परमावश्यक है।

वैज्ञानिक रीति से सर्वाङगीण लाभकारी व्यायाम करना चाहिए, जिससे शरीर की सभी मांसपेशियां बलवान् बनें। विशेष रोग की अवस्थाओं को छोड़कर यदि लगभग 30 मिनट तक शरीर का सर्वाङगीण व्यायाम तेजी से किया जाए तो फेफड़े, हृदय एवं मस्तिष्क आदि जहाँ पूर्ण स्वस्थ व ऊर्जावान् रहते हैं, वही मोटापा, मधुमेह, कोलेस्ट्रोल, श्वास, दमा, एलर्जी आदि सभी रोगों में अत्यधिक लाभ होता है। त्रिदोषों, सप्तधातुओं व अग्नि का संतुलन ठीक होने से पूर्ण आरोग्य मिलता है।

इस प्रकार, ठीक मात्रा और ठीक ढंग से व्यायाम करने से जहाँ मांस-पेशियाँ दृढ़ बनती हैं, वहीं चर्बी घट जाने से पेट कृश और छाती उभरी  हुई अलग से दिखाई देती है। व्यायाम को मालिश करने के बाद करना चाहिए, जिससे तेल शरीर में भली प्रकार प्रवेश कर जाता है। व्यायाम द्वारा शरीर से पसीना निकलता है, जिससे हल्कापन और स्फूर्ति आती है। कार्य करने की क्षमता, स्थिरता, कष्ट सहने का सामर्थ्य और पाचन-शक्ति बढ़ती है। कुपित हुए दोष, विशेषतः कफ-दोष शान्त होते हैं। शारीरिक क्षमतानुसार या उचित मात्रा में किया गया व्यायाम शारीरिक शक्ति को बढ़ाकर शरीर को स्वस्थ बनाता है। वास्तव में उचित व्यायाम से कार्यदक्षता और बढ़ती है।

शक्ति से अधिक व्यायाम का निषेध

शक्ति से अधिक व्यायाम करने से प्यास, प्रतमक श्वास (गम्भीर प्रकार का दमा), खाँसी, ज्वर, रक्तपित्त (शरीर के अंग से रक्तस्राव), क्लम (ज्ञानेद्रियों की कार्य करने में असमर्थता), श्रम (कर्मेद्रियों की कार्य करने में असमर्थता) तथा वमन आदि रोग उत्पन्न होना8। अति व्यायाम करने से व्यक्ति उसी प्रकार क्षीण व पस्त हो जाता है, जिस प्रकार भारी हाथी को खींचने से शेर। अत्यधिक मात्रा में व्यायाम करने से शरीर के ऊतकों को क्षति पहुँचती है तथा इस क्षति की पूर्ति के लिए शरीर के विभिन्न संस्थानों को ज्यादा प्रयत्न करना पड़ता है। इसलिए शक्ति से अधिक व्यायाम नहीं करना चाहिए।

व्यायाम के अयोग्य व्यक्ति

वात-पित्त रोगी, अधिक बीमार, छोटे बालक, ज्यादा वृद्ध तथा अजीर्ण, भूख और प्यास से पीड़ित व्यक्तियों को व्यायाम नहीं करना चाहिए9। जो लोग अधिक यात्रा या पैदल चलने, बोझ उठाने या अधिक सम्भोग करने से दुर्बल हो गये हों, जो क्रोध, शोक, भय और थकान से ग्रस्त हों, उन्हें भी व्यायाम से दूर रहना चाहिए क्योंकि व्यायाम से वात और पित्त की वृद्धि होती है और उपरोक्त अवस्थाओं में प्रायः वात या पित्त पहले से ही बढ़े रहते हैं, बालक भी चंचल होने से प्रायः कुछ न कुछ करते रहते हैं, इस प्रकार उनका अपेक्षित व्यायाम हो जाता है। अतः उनके लिए दण्ड, बैठक, कुश्ती आदि भारी व्यायाम की मनाही है।

उबटन (उद्वर्तन)

चूर्ण या कल्क (Lotion) से शरीर की मालिश करना उबटन कहा जाता है। स्नान से पहले इसका प्रयोग भी लाभकारी है। इससे क्लम का नाश, अंगों की स्थिरता और त्वचा की निर्मलता होती है। इससे रोमकूप खुलते हैं, अतः अंग स्थिर होते हैं। उबटन के लिए सरसों का चूर्ण (पाउडर), दूध, बेसन, तिल-तेल, या दही की मलाई तथा सरसों का तेल प्रयोग में लाया जा सकता है। प्राचीनकाल में स्नान से पहले सिर व शरीर पर आंवले की पिठ्ठी मलने का चलन था। कादम्बरी में राजा शूद्रक के स्नान-वर्णन के प्रंग में इसका उल्लेख मिलता है। स्नान से पहले आंवले की पिठ्ठी का मलना अतीव लाभदायक होता है।

मुख पर लेप

स्नान से पूर्व मुख पर जड़ी-बूटियों से युक्त पदार्थों का लेप करना चाहिए। इससे चेहरे पर झुर्रिया, झाइयाँ, काले दाग आदि नष्ट होते हैं। मुख की त्वचा कोमल और निर्मल होती है, रंग में भी निखार आता है तथा नेत्र दृष्टि तेज होती है। इसके लिए ठण्डा लेप लगाना चाहिए अन्यथा वात या कफ होने पर गर्म लेप लगाना चाहिए। लेप लगाने पर जब वह गीला ही हो, तो हटा लेना चाहिए, सूख जाने पर गीला करके हटाना चाहिए। सूखे लेप को हटाने से कान्ति (चमक) नष्ट होती है। लेप करके दिन में सोना, बोलना, अग्नि या धूप सेकना, चिन्ता और क्रोध करना, इनका निषेध होता है। क्योंकि उक्त निषिद्ध कार्य़ों का सेवन करने से चेहरे की त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ने का डर रहता है। अजीर्ण (अपच), हनुग्रह (ठोड़ी की हड्डी की जकड़न), पीनस (पुराना जुकाम), अरुचि, नस्य लेने पर तथा रात्रि में, मुख पर लेप नहीं करना चाहिए।

ऋतु लेप
वसन्त (चैत्र-वैशाख) दाभ की जड़, चन्दन, खस, शिरीष तथा सौंफ।
ग्रीष्म (ज्येष्ठ-आषाढ़) कुमुद, उत्पल, गुलाब फूल, दूब, मुलेठी तथा चन्दन।
वर्षा (श्रावण-भाद्रपद) पीला चन्दन, तिल, खस तथा जटामांसी।
शरद् (आश्विन-कार्तिक) तालीस, पुण्डरीक, मुलेठी, तगर तथा अगरु।
हेमन्त (मार्गशीर्ष-पौष) बेर की गुठली, अडूसे की जड़ तथा पीली सरसों।
शिशिर (माघ-फाल्गुन) कटेरी की जड़, काले तिल तथा दारुहल्दी की जड़

(छिल्के सहित)।

स्नान

आयुर्वेद-शात्रों में शरीर की स्वच्छता के लिए प्रतिदिन स्नान करने का विधान किया गया है। स्नान करते समय नाक, कान, पैर की अच्छी तरह सफाई करनी चाहिए। इससे मानव-शरीर को नव जीवन की प्राप्ति होती है। ताजा जल से स्नान करते समय जल की शीतलता से त्वचा की उष्णता पिण्डीभूत (एकत्रित) होकर उदर में प्रविष्ट हो जाती है। अतः स्नान करने से पाचक-अग्नि बढ़ती है। मन की प्रसन्नता बढ़ने से स्नान आयु को बढ़ाने वाला होता है, बल की वृद्धि करता है तथा थकावट, खुजली, त्वचा की गन्ध, पसीना, दुर्गन्ध, सुस्ती, प्यास और जलन को दूर करता है।

नेत्र, मुख और कान के रोग में, दस्त, पेट में अफारा, पीनस एवं अजीर्ण होने पर तथा भोजन के तुरन्त बाद स्नान नहीं करना चाहिए। इससे रोग बढ़ने की आशंका रहती है10

वत्र-धारण

स्नान के पश्चात् सदा स्वच्छ, सुन्दर और सौम्य वत्र पहनने चाहिए। इससे शरीर की सुन्दरता और आकर्षण बढ़ता है और आयु की वृद्धि होती है। अच्छे वत्रों से प्रसन्नता, सभा आदि में उपस्थित होने की योग्यता और अच्छा व्यक्तित्व बनता है। वत्र अशुभ से तथा ऋतु के कुप्रभाव (सर्दी, गर्मी, वर्षा) से बचाता है। ऋतु के अनुसार ही वत्रों को धारण करना चाहिए, जैसे-गर्मियों में सफेद या हल्के रंग के तथा हल्के वत्र और सर्दियों में गहरे रंग के और ऊनी (भारी) वत्र पहनने चाहिए।

इत्र व सुगन्ध (परफ्यूम्स) का प्रयोग

मनुष्य को समय एवं ऋतु के अनुसार फूल-मालाओं और प्राकृतिक इत्रों (Perfumes) का प्रयोग भी करना चाहिए। इससे शरीर में सुगन्ध और आकर्षण के अतिरिक्त शक्ति एवं पुष्टि भी बढ़ती है। मन प्रसन्न रहता है, जिसके परिणामस्वरूप आयु में वृद्धि होती है। कई लोगों को सुगन्ध से नींद अच्छी आती है आयुर्वेद में हर दोष को उसके अनुरूप सुगन्ध के द्वारा सम अवस्था में लाया जा सकता है। नाक द्वारा जो खुशबू सूंघी जाती है वह पहले नासा ऊतकों (Nasal tissue) में पाई जाने वाली आर्द्रता में घुल जाती है फिर गन्ध कोशिका (Olfactory cells) के द्वारा सीधे मस्तिष्क के अधःश्चेतक (Hypothalamus) भाग में पहुँचती है, इस प्रकार कुछ भी सूंघने का सीधा प्राय है कि उस सुगन्ध द्वारा मस्तिष्क (Brain) को तुरन्त एक संदेश मिलता है और मस्तिष्क उसको पूरे शरीर में पहुँचाता है, इस प्रकार काफी सारी शारीरिक क्रियाओं को सुगन्ध द्वारा नियत्रण में रख सकते हैं जैसे कि ताप, प्यास, भूख, रक्त में शर्करा का स्तर (Blood sugar level), विकास (Growth), सोना, जागना, सम्भोग की इच्छा, याददाश्त औन मन की भावनाएँ जैसे गुस्सा, प्रसन्नता आदि। इस प्रकार भिन्न-िभन्न  सुगन्धें तीनों दोषों को साम्य अवस्था में रखने के लिए विशिष्ट प्रकार के संकेत देती हैं।

दोषों को साम्य करने वाली सुगन्ध

वात शामक सुगन्धों में उष्ण, मधुर, अम्ल द्रव्यों की सुगन्धों के मिश्रण जैसे कि तुलसी, नारंगी, गुलाब, लौंग एवं अन्य मसाले आते हैं। पित्तशामक सुगन्धों के अन्तर्गत मधुर, शीतल द्रव्यों की सुगन्धों के मिश्रण जैसे कि चंदन, गुलाब, मिंट एवं चमेली आते हैं। वात के सदृश ही कफ को साम्य रखने वाली सुंधों में उष्ण सुंध जैसे कि मरूआ, हपुषा, यूकेलिप्टस, कर्पूर, लौंग एवं हरीतकी आते हैं।

आभूषण, मणि आदि धारण करना

सोने, चांदी आदि से बने आभूषण पहनने से शरीर की सुन्दरता और आकर्षण तो बढ़ता ही है। साथ में प्रसन्नता, सफलता शरीर व चेहरे की चमक, मंगल और आयु भी बढ़ते हैं। इन सबके परिणामस्वरूप मनुष्य की जीवनी शक्ति भी बढ़ती है11

इन आभूषणों के अलावा रत्न (हीरा, पन्ना, गोमेद आदि), सिद्ध-मत्र तथा सहदेवी आदि औषधियों को भी धारण करते रहना चाहिए। इससे विष का भय कम होता है तथा ब्रह्माण्ड की नकारात्मक एवं आसुरी शक्तियों से रक्षा होती है। अलग-अलग आभूषण व रत्नादि धारण करना स्पर्श चिकित्सा का एक अंग है। आयुर्वेद में सभी धातुओं, मणियों एवं रत्नों का प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है सभी धातुओं के अंदर विशेष उपचारात्मक शक्ति होती है। मन एवं शरीर के सामान्य कार्यो पर पड़ी नकारात्मक ऊर्जा से बचने के लिए इन आभूषणों, रत्नों एवं मणियों के धारण से लाभ प्राप्त होता है। जब इनका त्वचा से स्पर्श होता है तब यह विद्युतचुम्बकीय प्रभाव (Electromagnetic effect) से शरीर की कोशिकाओं व ऊतकों पर उपरचारात्मक प्रभाव डालते हैं।

सुगन्धित पदार्थों को चबाना

मुख में सुगन्ध, अच्छा स्वाद व स्वच्छता बनाए रखने के लिए जायफल, सुपारी, छोटी इलायची, लौंग, पान के पत्ते और कपूर का सत्त्व आदि चबाना चाहिए। इससे मुख के रोग भी दूर होते हैं तथा भोजन में स्वाद भी बढ़ता है।

तम्बाकू आदि नशीले व कैंसर आदि पैदा करने वाले गुटका व पान मसाला आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

चप्पल व जूते पहनना12

पैरों में चप्पल व जूते पहनने से गर्मी व सर्दी आदि से पैरों की रक्षा होती है, पैरों को आराम मिलता है, काँटों, रेंगने वाले जन्तुओं व रोगाणुओं से सुरक्षा होती है, पैरों की त्वचा ठीक रहती व नेत्रों की रोशनी तेज होती है परन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ये जूते, चप्पल आदि ठीक माप के और सुविधाजनक हों। अधिक ऊँची एड़ी वाले जूते, चप्पल असुविधाजनक होने के साथ-साथ कुछ समस्याएँ भी उत्पन्न कर सकते हैं। ये जूते, चप्पल मौसम के अनुकूल होने चाहिए। इससे पैरों को बल मिलता हैं तथा व्यक्ति आसानी से चल-फिर सकता है।

बालों और नाखूनों की देखभाल13,14,15

हर मनुष्य को अपने दाढ़ी-मूँछ, सिर के बाल तथा नाखून आदि ठीक समय पर काटने और सँवारने चाहिए। बढ़े नाखून अपवित्र भाग हैं। इनमें अनेक प्रकार के मल-पदार्थ सूक्ष्म रोगाणु व कीटाणु इकट्ठे हो जाते हैं। अतः बढ़ने पर इन्हें काटते रहना चाहिए। जहां तक हो सके, इन्हें छोटा ही रखना चाहिए। इससे शरीर की स्वच्छता, निरोगता, सुन्दरता और ताजगी के साथ-साथ शरीर-पुष्टि एवं आयु की वृद्धि भी होती है।

आँखों में सुरमा लगाना

आँखों को स्वस्थ बनाये रखने और आँखों की रोशनी बढ़ाने के लिए नियमित रूप से सुरमा, नेत्र-बिन्दु (Eye-drop), आदि डालने चाहिए। नेत्र अग्नि तत्त्व प्रधान इंद्रिय है, अग्नि का विरोधी होने के कारण, कफ दोष इस पर विशेष रूप से आक्रमण करता है। अतः नेत्रों को रोगों से बचाने व स्वस्थ रखने के लिए कफ दोष को दूर करने वाले अंजनों का प्रयोग बहुत लाभप्रद होता है16। इसके लिए पाँच से आठ दिनों के बीच एक बार रसांजन (रसौंत)* आदि लगाना चाहिए। इसके प्रयोग से आँखों से बहुत-सा पानी निकलता है और ये स्वच्छ हो जाती हैं। रसौंत आँखों के लिए बहुत लाभदायक है। आंखों का दर्द होने पर इसका लेप करना चाहिए या शहद अथवा पानी में मिला कर इसकी बूंद आंखों में डालनी चाहिए। यह आँख में लगती है और आँख से अश्रु भी निकालती है।

अंजन या सुरमे का प्रयोग करते समय एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि तेज सुरमे आदि का प्रयोग रात में ही किया जाए, क्योंकि उस समय कफ की मात्रा कम होती है। दिन के समय इन्हें डालने से अधिक पानी निकलता है, जिससे नेत्र कमजोर हो जाते हैं और दिनभर उन पर सूर्य की रोशनी का बुरा प्रभाव पड़ता है। जबकि रात में यह समस्या नहीं होती, अतः तेज अञ्जन का रात में सोने से पूर्व प्रयोग करना उचित है। साधारण अंजन, काजल या सुरमा लगाने का समय प्रातःकाल है। ये आँखों को निर्मल करते हैं। सरसों के तेल से जले दीये से भी काजल बना कर लगाया जाता है। यह काजल आँखों को दर्शनीय बनाता है तथा बाह्य जीवाणुओं से बचाव करता है। इससे पलकों के बाल घने और लम्बे होते हैं।

भोजन

आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य को बनाये रखने में भोजन का बहुत महत्त्व है। भोजन सदा ही सही मात्रा और उचित समय पर तथा अनुकूल पदार्थों के साथ करना चाहिए। भोजन की मात्रा आदि प्रत्येक व्यक्ति की पाचन-शक्ति और चयापचय-शक्ति पर निर्भर करती है।

कुछ खाद्य-पदार्थ, जैसे- चावल, जौ का दलिया, यूष आदि, स्वभाव से ही पचने में हल्के माने जाते हैं। इन हल्के पदार्थों में वात और अग्नि तत्त्व की अधिकता पाई जाती है। अतः ये पदार्थ भूख को बढ़ाते हैं तथा इनका पाचन शीघ्र हो जाता है। यदि इनका सेवन कुछ अधिक मात्रा में भी कर लिया जाए, तो कोई विशेष नुकसान नहीं करते। परन्तु अति मात्रा में लेने पर ये भी पाचन-शक्ति और चयापचय-शक्ति पर कुप्रभाव डालते हैं। इसके विपरीत, कुछ पदार्थ (उड़द की पीठी आदि) स्वभाव से ही पचने में गुरु (भारी) होते हैं, अतः देर से पचते हैं। इनमें जल और पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है। ये भूख को भी कम करते हैं। अतः इनको मात्रा से थोड़ा भी अधिक लेने पर पाचन-िक्रया और चयापचय क्रिया पर बुरा प्रभाव पडता है। हां, यदि किसी व्यक्ति की पाचकाग्नि तीव्र है, तो वह भारी पदार्थों को भी आसानी से पचा सकता है। सामान्यतः ये भारी खाद्य-पदार्थ उतनी मात्रा में ही खाने चाहिए, जिससे आधा या तीन-चौथाई पेट ही भरे, शेष आधा या एक-चौथाई पेट खाली रखना चाहिए। इस प्रकार ये पदार्थ भी हानि नहीं पहुँचाते।

पौष्टिक, सात्त्विक, सम्पूर्ण व संतुलित तथा प्रकृति के अनुकूल भोजन करना चाहिए। भोजन सदैव पहले किये गये भोजन के पच जाने के बाद ही करना चाहिए। इन बातों को ध्यान में रख कर किये गये भोजन से शरीर में वृद्धि होती है, रंग में निखार आता है तथा आयु की वृद्धि होती है। इससे शरीर में तीनों दोष और धातु (रस, रक्त आदि) भी सन्तुलित अवस्था में बने रहते हैं। भोजन करते समय ज्यादा बातें करना, चलते हुए भोजन करना भी आयुर्वेद के अनुसार निषिद्ध है, क्योंकि भोजन के समय मन शान्त एवं शरीर स्थिर होना चाहिए, तभी वह सहीं ढंग से पचेगा व शरीर को ज्यादा लाभ देगा।*

धूमपान (औषधि-युक्त)

आयुर्वेद में सिर का भारीपन, सिरदर्द, नाक में सूजन, आधे सिर का दर्द, कान व आँखों में पीड़ा, हिचकी, दमा, गले में रुकावट, दाँतों की पीड़ा और कमजोरी, कान, नाक व आँखों से पानी आदि का स्राव होना, नाक व मुँह से दुर्गन्ध आना, भूख न लगना, हनु-स्तम्भ (ठोढ़ी की जकड़न) मन्यास्तम्भ (Torticollis), खुजली, इन्फैक्शन, चेहरे का पीलापन, बालों का जल्दी पकना और गिरना, गंजापन, अधिक छींकें, बहुत अधिक नींद और सुस्ती, बेहोशी-सी होनी, आवाज का भारीपन, नींद न आना आदि अनेक रोगों की चिकित्सा के लिए जड़ी-बूटियों से युक्त धूमपान बताये गये हैं।

धूमपान के लिए अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों से धूम शलाका तैयार करने का वर्णन है। इनमें तम्बाकू व अन्य नशीले पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जाता है। औषधियों से तैयार ये धूमपान बालों, मस्तिष्क की हड्डियों, आवाज और ज्ञानेंद्रियों को भी शक्ति प्रदान करते हैं। इनका सेवन करने वाला व्यक्ति वात और कफ दोषों से उत्पन्न होने वाले, सिर एवं गर्दन के रोगों का शिकार नहीं होता।

दिन में धूमपान के लिए आठ बार समय निर्धारित किया गया है। स्नान, जिह्वा रगड़ने, दाँत साफ करने, भोजन करने व छींकों के बाद, नाक में किसी औषधि को डालने (नस्य लेने), आँखों में सुरमा डालने और सोकर उठने के उपरान्त। इन आठ क्रियाओं के बाद धूमपान लेने से रोग नहीं हेते। प्रत्येक धूमपान में तीन बार धूम लेने को कहा गया है।

ठीक प्रकार से धूमपान की क्रिया होने पर छाती, गले तथा सिर में हल्कापन आता है, तथा कफ पिघल कर निकल जाता है जबकि जरूरत से ज्यादा धूमपान होने पर तालु, गला और सिर गर्म एवं शुष्क हो जाते हैं। सभी ज्ञानेद्रियों में भी गर्मी आ जाती है। प्यास अधिक लगती है। बेहोशी तथा चक्कर आने लगते हैं। शरीर के किसी अंग से रक्तस्राव भी हो सकता है। अतः सावधानी से उचित मात्रा में ही यह क्रिया करनी चाहिए। नशे के लिए धूमपान का आयुर्वेद में निषेध किया गया है।

कैसा आचरण करें ?

जीवन में स्वस्थ और सुखी रहने के लिए प्रत्येक मनुष्य को आध्यात्मिक व मर्यादित आचरण का पालन करना चाहिए। धर्म, अर्थ और काम (इंद्रिय-सुख) का सेवन इस प्रकार करना चाहिए कि इन तीनों में आपसी विरोध न हो। भाव यह है कि धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन करना चाहिए तथा धर्म व अर्थ को बाधित न करते हुए मर्यादापूर्वक ही काम (इंद्रिय-सुखों) का सेवन करना चाहिए। ऐसा करने से धर्म, अर्थ व काम, इस त्रिवर्ग का परस्पर विरोध नहीं रहता है। इस प्रकार से लोक व परलोक, दोनों में सुख व सद्गति मिलती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अधर्मपूर्वक धन कमाता है, इंद्रिय-सुखों को ही जीवन का सार मान कर अमर्यादित रूप से उन्हें भोगता है तथा इसके लिए अनुचित रूप से पैसा बहाता है, उस व्यक्ति के आचरण में धर्म, अर्थ व काम का आपसी विरोध हो जाता है। ऐसे व्यक्ति का पतन व संकटग्रस्त होना निश्चित है। इस विषय में आदिकवि वाल्मीकि की यह  चेतावनी ध्यान में रखने योग्य है- ’जो धर्म, अर्थ व काम का समुचित व सन्तुलित सेवन करता है, वही व्यक्ति समझदार है। इसके विपरीत जो धर्म व अर्थ को छोड़कर काम-सुखों में ही लिप्त हो जाता है, वह संकटग्रस्त होने पर उस प्रकार होश में आता है, जिस प्रकार पेड़ के ऊपर सोने वाला नीचे गिरने पर ही होश में आता है17।‘

सदा सत्य बोलना चाहिए। चींटी, कीड़े-मकोड़े आदि तुच्छ जन्तुओं को भी अपने समान देखना चाहिए। निर्धनता, रोग और शोक से पीड़ित लोगों की सहायता के लिए सदा तैयार रहना चाहिए। याचक को निराश नहीं भेजना चाहिए न ही उसका तिरस्कार करना चाहिए। देवता, गाय, ब्राह्मण (विद्वान्), वृद्ध, वैद्य, राजा और अतिथि का आदर करना चाहिए।

दूसरों की किसी वस्तु या सम्पत्ति पर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहिए और न ही किसी की सम्पत्ति या परत्री आदि की इच्छा करनी चाहिए। किसी भी प्रकार के पाप कर्म से दूर रहना चाहिए। दुष्ट व्यक्ति के प्रति भी दुष्ट व्यवहार नहीं करना चाहिए।

दूसरों की गुप्त बातों और दोषों का खुलासा नहीं करना चाहिए। विश्वासघाती, कपटी, अधर्मी, दुराचारी, गर्भपात करने वाले, कंजूस और कुटिल स्वभाव वाले लोगों से दूर रहें। कल्याण करने वाले लोगों व मित्रों से सलाह लेनी चाहिए और अकल्याण करने वालों से सदा सावधान रहें।

कैसे आचरण से दूर रहें?

पर्वत की ऊबड़-खाबड़ ढलानों और पेड़ों पर नहीं चढ़ना चाहिए। खतरनाक वाहनों की सवारी तथा तेज खतरनाक बहाव वाली नदी में स्नान करना उचित नहीं।

ठीक प्रकार से न ढ़के हुए, तकिये से रहित, छोटे और असमतल बिस्तर पर न सोयें।

इन वस्तुओं व व्यक्तियों को न लाँघें- किसी सम्बन्धी, अच्छे वंश में उत्पन्न व्यक्ति, अध्यापक, गुरु, पूज्य व्यक्ति, पवित्र वृक्ष एवं अवांछित व्यक्ति की परछांई को।

पूज्य व्यक्तियों एवं शुभ वस्तुओं को अपनी बाईं ओर न रखें तथा अन्य हीन व्यक्तियों व वस्तुओं को दाई ओर न रखें और न ही पूज्य जनों का अतिक्रमण करें।

अशिष्ट व्यवहार न करें, जैसे- सभा में जोर से हँसना, अधोवात (गैस) और डकार को ऊँची आवाज में छोड़ना, मुख को ढके बिना जम्भाई लेना, छींक, खाँसी करना और बड़ों के सामने जोर से हँसना, नासिका में खुजली करना, दाँत किटकिटाना, नाखूनों से आवाज निकालना, जमीन कुरेदना, हड्डियों से आवाज निकालना, मिट्टी के ढेले को कुचलना, हाथ-पैर आदि अंगों को अनुचित ढंग से रखना, हिलाना आदि।

टकटकी बाँधकर न देखें- किसी ग्रह एवं बहुत चमकीली, अनिच्छित, अपवित्र और निन्दित वस्तु को।

रात के समय इन स्थानों में प्रवेश और निवास न करें- मन्दिर (धार्मिक स्थान), पवित्र माने जाने वाले वृक्ष, सार्वजनिक प्रंगण, बाग-बगीचे, चौराहे, श्मशान एवं एकान्त निर्जन स्थान।

अकेले नहीं जाएँ- जंगल तथा वधस्थान में।

इनके समीप जाना ठीक नहीं- साँप, खरतनाक सींगों व दाँतों वाले जानवर।

मन को स्थिर किये बिना अग्नि के पास नहीं जाना चाहिए और भोजन के पश्चात् मुँह-हाथ धोए बिना ही नहीं चल देना चाहिए।

बच कर रहें- पूर्व दिशा से आने वाली हवा, तेज धूप, गिरते ओलों एवं आँधी से।

अनुचित है- अपनी शक्ति से अधिक कार्य करना और दुस्साहस, आवश्यकता से
अधिक सोना व स्नान करना, रात में जागना, अधिक मात्रा में पेय पदार्थों को पीना।

अनुचित व अधार्मिक कार्य को करना, दुश्चरित्र व्यक्तियों, स्त्रियों व नौकर से मित्रता करना, सच्चरित्र व अच्छे लोगों से शत्रुता करना, अधिक समय तक घुटनों को ऊँचा करके (उकडू) बैठना, चारपाई आदि के नीचे अग्नि रख कर तापना, थकावट में तुरन्त स्नान करना एवं कुल्ले और गरारे किये बिना स्नान करना उचित नहीं है। पूर्णतः वत्रहीन होकर स्नान करना, स्नान के बाद पहले पहने हुए वत्र फिर पहनना निषिद्ध है।

अध्ययन में सावधानी

समय के अनुसार तथा उचित प्रकाश में अध्ययन करना चाहिए। पढ़ते समय प्रकाश बाईं ओर से या पीछे से आना चाहिए। किसी स्थान के जलने की प्रतीति होने पर, अग्नि का तेज उपद्रव होने पर, उल्का, भूकम्प, सूर्य या चद्र ग्रहण तथा महत्त्वपूर्ण त्यौहारों पर और प्रातः एवं सायं की सन्धिवेला में पढ़ना नहीं चाहिए। उचित मुद्रा में बैठ कर तथा पुस्तक को उचित दूरी पर (न बहुत समीप और न बहुत दूर-लगभग एक फुट की दूरी पर) रख कर ही पढ़ना चाहिए। लेट कर पढ़ने से आँखें कमजोर होती हैं। पढ़ते हुए ध्यान रखना चाहिए कि शब्द का उच्चारण अधूरे रूप में न हो, स्वर बहुत अधिक ऊँचा या बहुत धीमा नहीं होना चाहिए, आवाज रूखी और कठोर भी नहीं होनी चाहिए। शब्दों का उच्चारण उचित दबाव डाल कर, न बहुत शीघता से और न बहुत धीमी गति से तथा न बहुत लटका कर किया जाना चाहिए।

सामान्य आचार-विहार

किसी भी व्यक्ति को सामान्य रूप से माने जाने वाले नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए और न ही समाज द्वारा मान्य आचार-संहिता को तोड़ना चाहिए।

रात्रि में तथा अनुचित स्थानों पर घूमना उचित नहीं है।

प्रातः और सायंकाल की सन्धिवेला में खाना, अध्ययन करना, सोना तथा मैथुन-क्रिया करना मना है। यह समय आत्मचिन्तन, योगाभ्यास एवं ध्यान आदि वैयक्तिक व आध्यात्मिक विकास के लिए होता है।

मद्यपान, जुआ खेलना सर्वथा त्याज्य है तथा वेश्याओं के प्रति झुकाव कदापि नहीं रखना चाहिए।

किसी भी व्यक्ति का अपमान करना अथवा अहंकारपूर्ण, अशिष्ट एवं अमित्रता का व्यवहार करना अनुचित है।

चुगलखोरी करना बहुत ही अहितकर है तथा वृद्धों, अध्यापकों, समूह में बैठे लोगों और जिनके द्वारा जीवन का भरण-पोषण होता हो, उनके प्रति कठोर शब्द कहना असभ्यता है।

बहुत बातूनी होना, असहिष्णुता (सहनशीलता न रखना) और दुस्साहस करना ठीक नहीं।

अपने सेवकों की देख-भाल अच्छी प्रकार से करनी चाहिए, उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

हर व्यक्ति पर पूरा विश्वास करना, उसके आश्रित रहना या हर किसी पर सन्देह करना भी उचित नहीं है।

कोई भी कार्य आरम्भ करने से पहले, उस कार्य के बारे में अच्छी प्रकार सोच-विचार कर लेना चाहिए, परन्तु आरम्भ करने के बाद न तो उसे टालना चाहिए और न
अधूरा छोड़ना चाहिए। दीर्घसूत्रिता (टालने, या लटकाने) की आदत को दूर करना चाहिए।

किसी कार्य में सफलता प्राप्त होने पर अति हर्ष में आपा नहीं खोना चाहिए और न अहंकार या अभिमान ही करना चाहिए। असफल होने पर बहुत दुखी व निराश होना भी ठीक नहीं।

बहुत खुशी या गुस्से में भावुक होकर कार्य नहीं करना चाहिए और न ही छोटी-मोटी बातों के विषय में आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होना चाहिए।

मनुष्य को अपनी इंद्रियों और मन का गुलाम नहीं होना चाहिए, परन्तु इनको बहुत दबा कर भी नहीं रखना चाहिए।

सदा अपने स्वभाव और प्रकृति को ध्यान में रख कर ही व्यवहार करना चाहिए।

स्वाभिमानी होना ठीक है, परन्तु सदा अपने प्रति किये गए अपमान को ही याद नहीं करते रहना चाहिए।

कारण और परिणाम के आपसी सम्बन्ध (जैसे- अच्छे कार्य का परिणाम अच्छा और बुरे का परिणाम बुरा होता है) पर विश्वास रखना चाहिए और उसी के अनुसार कार्य भी करना चाहिए।

व्यक्ति का अपना चरित्र, आचार-व्यवहार तथा आदतें आपत्तिजनक नहीं होनी चाहिए। गुप्त अंगों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।

अपने सुख में दूसरों को भी शामिल करना चाहिए।

मित्रता किन से करें?

उन व्यक्तियों के साथ मित्रता करें जो- आयु, बुद्धि, ज्ञान, विवेक, शुद्ध आचार-व्यवहार, धैर्य, स्मृति, एकाग्रता आदि गुणों से युक्त हों। जिन्होंने ज्ञान और परिपक्वता प्राप्त कर ली है अथवा जिनकी परिपक्व और अनुभवी लोगों के साथ संगति है। जो शान्त स्वभाव वाले, चिन्ताओं से मुक्त तथा मानवोचित कर्त्तव्य को जानने वाले हैं।

जो सबके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं तथा सदा सबका कल्याण करने के लिए तैयार रहते हैं।

सच्चरित्र का पक्ष लेने वाले तथा जिनका नाम और दर्शन शुभ माना जाता है।

किन लोगों के साथ मित्रता न रखें?

जिन लोगों में ऊपर लिखित गुण न पाये जाएं तथा जो दूषित चरित्र वाले, पाप करने में रुचि रखने वाले, दूषित भाषा का प्रयोग करने व दूषित विचारों से युक्त हैं तथा जो दूसरों की निन्दा व शिकायत करने वाले, झगड़ालू, लालची, दूसरों के गुणों से ईर्ष्या करने वाले, दूसरों को बदनाम करने वाले, चंचल मन व स्वभाव वाले, क्रूर, निर्दयी और अधर्मी लोग हैं, उनके साथ मित्रता कभी नहीं रखनी चाहिए।