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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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आयुर्वेदीय चिकित्सा की विशेषताएँ

आयुर्वेदिक पद्धति से चिकित्सा करते समय कुछ खास बातों पर ध्यान दिया जाता है तथा अन्यों की अपेक्षा इस चिकित्सा प्रणाली  में कुछ विशेषताएँ भी प्राप्त होती हैं। इन सबका सांकेतिक उल्लेख निम्न प्रकार से है:

Ayurvedic Chikitsa 2

 

एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व की चिकित्सा

इस पद्धति के अनुसार चिकित्सा करते हुए वैद्य केवल रोगग्रस्त अंग अथवा केवल रोग के लक्षण  को ही नहीं देखता बल्कि इनके साथ-साथ रोगी के आत्मा, मन, शारीरिक प्रकृति एवं वात-पित्त आदि दोषों, मलों और धातुओं (रक्त आदि) की स्थिति को भी ध्यान में रखता है। यही कारण है कि एक ही रोग होने पर भी अलग-अलग रोगियों की प्रकृति व दोष के अनुसार औषधियों में भिन्नता पाई जाती है।

रोगों का मनो-दैहिक स्वरूप

आयुर्वेद के अनुसार कोई भी रोग केवल शारीरिक अथवा केवल मानसिक नहीं हो सकता। शारीरिक रोगों का कुप्रभाव मन पर पड़ता है, तो मानसिक रोगों का कुप्रभाव शरीर पर। अतः किसी भी रोग की चिकित्सा करते समय मन और शरीर, दोनों को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि सभी रोगों को मनो-दैहिक रोगों के रूप में मानकर ही चिकित्सा की जाती है, क्योंकि आचार्य चरक के अनुसार वातज, पित्तज, कफज तथा मानसिक, इन सभी रोगों का एक ही मूल कारण है- प्रज्ञापराध।

आयुर्वेदीय चिकित्सा एवं औषधियों के उपयोग के पीछे हमारे पूर्वज ऋषियों का हजारों वर्षों का अनुभव है। इन औषधियों का मूल स्रोत वनस्पति-जगत् (पेड़-पौधे), पशु-जगत् से प्राप्त पदार्थ (गोमूत्र, गोदुग्ध, घी आदि), धातु (Metals), खनिज तत्त्व (Minerals) आदि प्राकृतिक पदार्थ हैं। इनमें किसी प्रकार के रासायनिक पदार्थ़ों (Chemicals) का प्रयोग नहीं किया जाता। अतः ये औषधियाँ हमारे शरीर पर किसी प्रकार का विषैला या बुरा प्रभाव नहीं डालती हैं।

आजकल आधुनिक (एलोपैथिक) चिकित्सक गण, ताँबा, लौह आदि धातुओं से तैयार इन औषधियों के प्रयोग में एक प्रकार का भय दिखाते हैं, परन्तु आयुर्वेद में इन धातुओं को शोधन-प्रक्रिया के द्वारा शुद्ध करके उसके विजातीय तत्त्व को पृथक् किया जाता है, शुद्ध औषधि का उचित मात्रा में प्रयोग सर्वथा हानि रहित होता है, किन्तु धातु युक्त औषध के निर्माण व प्रयोग में सावधानी जरूरी है, कुछ विषैले वानस्पतिक पदार्थ़ों (कुचला, भिलावा, आक आदि) का प्रयोग भी सीधा उसी रूप में नहीं करना चाहिए, अपितु पहले उनका शोधन करके ही प्रयोग करना चाहिए। इन पदार्थ़ों के औषध रूप में प्रयोग करने से पहले अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से इनके विषैले प्रभाव को दूर किया जाता है तथा शोधन के बाद उन्हें इस योग्य बना लिया जाता है कि वे हमारे शरीर की सभी धातुओं में आसानी से समाहित हो सकें। इस प्रकार ये सब पदार्थ हानिकारक न होकर अधिक लाभकारी सिद्ध होते हैं।

 

प्रत्येक औषधि एक रसायन का रूप

प्रत्येक आयुर्वेदीय औषधि अपने आप में बल्य (बलकारक/Tonic) अथवा रसायन का कार्य करती है, क्योंकि ये किसी न किसी रूप में मन एवं शरीर को पोषण प्रदान करती हैं। यही कारण  है कि इन औषधियों का प्रयोग रोगी के साथ-साथ स्वस्थ व्यक्ति भी कर सकता है। क्योंकि जहाँ ये रोगी के रोग को दूर करती हैं, वहीं स्वस्थ व्यक्ति का पोषण भी करती हैं और रोग-प्रतिरोधी शक्ति का विकास करती हैं। ’च्यवनप्राश‘, ’चद्रप्रभा वटी‘ आदि रसायन इसका प्रत्यक्ष उदहारण  हैं। आयुर्वेद मूलतः शक्ति, शुद्धि व संतुलन से स्वास्थ्य-प्राप्ति का एक बहुआयामी विज्ञान है।

 

रोग प्रतिरोधी औषधियों व  पथ्य का महत्त्व

इस पद्धति में इस बात पर अधिक बल दिया जाता है कि व्यक्ति में रोग प्रतिरोधी शक्ति का विकास हो, जिससे उस पर रोग का आक्रमण  ही न हो। यही कारण  है कि स्वस्थ व्यक्ति के लिए आहार-संहिता (भोजन से सम्बन्धित नियम आदि) तथा आचार-संहिता (विभिन्न ऋतुओं में व दिन-रात में आहार-विहार व जीवन-शैली आदि से सम्बन्धित आचरण का वर्णन  किया गया है।

 

पथ्याहार एवं सात्म्य का महत्त्व

आयुर्वेद में उन भोज्य एवं पेय पदार्थों के सेवन पर अधिक बल दिया गया है, जो रोगी की प्रकृति एवं स्वास्थ्य के अनुकूल हों तथा जो रोग को दूर करने में सहायक हों। इसके विपरीत, उन पदार्थ़ों के सेवन का निषेध किया है, जो रोगी की प्रकृति के अनुकूल न पड़ते हों तथा रोग को बढ़ाने वाले हों। इससे जहाँ स्वस्थ व्यक्ति रोगों के आक्रमण से बचा रहता है, वहीं रोगी का रोग शीघ दूर हो जाता है।

 

निदान के सरल व सस्ते उपाय

आधुनिक चिकित्सा-पद्धति में तब तक रोग की चिकित्सा प्रारम्भ ही नहीं हो पाती, जब तक अनेक प्रकार के परीक्षण न करवा लिए जाएं। इससे जहाँ रोगी को शारीरिक एवं मानसिक परेशानी होती है, वहीं धन का व्यय भी बहुत अधिक करना पड़ता है। इसके विपरीत, आयुर्वेदिक पद्धति में तो एक कुशल वैद्य केवल नाड़ी आदि का परीक्षण करके ही रोग का निदान कर लेता है, जिससे अनावश्यक परीक्षणों में होने वाली शारीरिक-मानसिक परेशानियों व धन के अपव्यय से बचा जा सकता है, साथ ही जटिल व पुराने रोगों में आधुनिक प्रक्रिया से परीक्षण द्वारा रोगों की जानकारी कर आयुर्वेदिक चिकित्सा की जा सकती है। आधुनिक निदान-प्रक्रियाओं की एक बड़ी कमी यह है कि- अग्न्याशय (Pancreas), फेफड़ा  (Lung), हृदय (Heart), नाड़ी तंत्र (Nervous system) या हड्डी (Bone) आदि जब लगभग 70 से 80 % तक विकृत हो जाते हैं, तभी वे मधुमेह (Diabetes), अस्थमा (Asthma), हृदय रोग (Cardiac disease), उच्चरक्तचाप (Hypertension) व गठिया (Gout) आदि रोगों की पहचान कर पाती हैं। जबकि आयुर्वेदोक्त नाड़ी-परीक्षण व ‘माधव-निदान’ आदि की प्रक्रियाओं से हम जीवनशैली का हिस्सा बन चुके इन रोगों का प्रारम्भिक अवस्था में ही ज्ञान व निदान करके आसानी से निवारण  कर सकते हैं।

 

लाक्षणिक (Symptomatic) नहीं अपितु संस्थानिक (Systematic) चिकित्सा है आयुर्वेद-

आयुर्वेदिक पद्धति में एलोपैथी के समान तुरन्त लक्षण का शमन कर आराम पहुँचाना ही पर्याप्त नहीं माना जाता, बल्कि रोग के मूल कारण को पहचान कर उसे समूल नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। जब रोग का कारण ही नष्ट हो जाता है, तो उस रोग का सदा के लिए निवारण  हो जाता है। इस प्रकार आयुर्वेदीय चिकित्सा-पद्धति मात्र लक्षण आधारित (सिम्टोमेटिक) चिकित्सा नहीं, अपितु संस्थानिक (सिस्टेमेटिक) अर्थात् दोषों पर आधारित चिकित्सा-पद्धति है।

आधुनिक चिकित्सा-पद्धति का सबसे बड़ा कमजोर पक्ष यह है कि वह मात्र रोग से होने वाले उपद्रव को नियंत्रित करने में तुरन्त प्रभावशाली है। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता भी है, चाहे वह किसी भी प्रकार का रासायनिक (Chemical), लवण (Salt) व हार्मोन (Harmone) आदि का असंतुलन हो या फिर किसी तरह के जीवाणु जन्य (Bacterial) या विषाणुजन्य (Viral) इन्फेक्शन  को नियंत्रित करने की बात हो अथवा दर्द निवारण (Pain management) का सन्दर्भ हो, इसीलिए आधुनिक चिकित्सा-पद्धति में रोगों की चिकित्सा के लिए नियंत्रण  व रोकथाम (Management) शब्द का प्रयोग किया है, जैसे उच्च रक्तचाप (Hypertension), मधुमेह (Diabetese) या दर्द निवारण  (Pain management) आदि में।

आयुर्वेद में हम रोगों को नियंत्रित करने के साथ-साथ, जिस कारण  से रोग हो रहा है, उस मूल कारण का निवारण करके रोग का पूर्णतः निर्मूलन करते हैं, उसमें भी यह प्रयास रहता है कि किसी भी प्रकार का आनुषंगिक दुष्प्रभाव (Side effect) न हो। यही आयुर्वेद की सबसे बड़ी विशेषता है अथवा यह कहना चाहिए कि आधुनिक चिकित्सा-पद्धति व आयुर्वेद में यही मूलभूत अन्तर है।

आयुर्वेद में शरीर की मूल कोशिका (Stem cell) से लेकर कोशिका, ऊतक, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों तक तथा आन्तरिक अवयवों से लेकर पूरे शरीर-तंत्र तक को शक्ति व शुद्धि प्रदान करते हुए पूर्णतः संतुलित करते हैं।

आयुर्वेद का आधुनिक चिकित्सा-पद्धति के साथ कोई संघर्ष हम नहीं मानते, अपितु हम यह मानते हैं कि रोग जब अत्यन्त प्रबल अवस्था में हो तो उसे नियंत्रित (Control) करने के लिए आधुनिक चिकित्सा-पद्धति की दवा ली जा सकती है, परन्तु उस रोग से, यथा- उच्च रक्तचाप (Hypertension), हृदय रोग (Cardiac disease), गठिया (Arthritis) आदि से पूर्णतः  मुक्ति (Cure) के लिए योग, आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा का मार्ग ही श्रेयस्कर है। यही कारण  है कि हम उच्च रक्तचाप, गठिया, दमा, हृदय रोग या थायराइड आदि रोगों की मात्र रोकथाम (Control) ही नहीं करते, अपितु निर्मूलन करते हैं। हमने ये सब किया है, इसके पूरे वैज्ञानिक दस्तावेज व प्रमाण  हमारे पास विद्यमान हैं और इस दिशा में हम निरन्तर प्रमाणिकता  के साथ वैज्ञानिक शोध व अनुसन्धान  में प्रगति के साथ संलग्न हैं। प्राचीनतम चिकित्सा-पद्धति होने के साथ ही आयुर्वेद वर्तमान में पूर्णतः प्रासंगिक और वैज्ञानिक है।