पिछले अध्याय में हमने शरीर को धारण करने वाले विभिन्न तत्त्वों जैसे- दोष, धातु, मल, स्रोत आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। इससे यह तथ्य भी स्पष्ट हुआ कि शरीर के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए इन सभी तत्त्वों को एक उचित मात्रा में और स्वस्थ अवस्था में होना चाहिए। यदि किसी दोष, धातु आदि में आवश्यकता से अधिक वृद्धि या कमी हो जाती है तो उसे क्रमशः विपरीत अथवा समान गुण वाले द्रव्यों के सेवन (भोजन या बाह्य-प्रयोग) से सन्तुलित मात्रा में लाया जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि यह ज्ञान कैसे हो कि कौन-सा द्रव्य किस दोष, धातु आदि के समान गुणों वाला है या कौन-सा विपरीत गुणों वाला? इन सबको जानने के लिए हमें द्रव्य के विभिन्न पक्षों के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है।
यह स्पष्ट किया जा चुका है कि ब्रह्माण्ड में प्रत्येक वस्तु की रचना पाँच महाभूतों के मिश्रण से हुई है । शरीर में स्थित दोषों, धातुओं के समान ही प्रत्येक द्रव्य का निर्माण भी इन्हीं पाँच महाभूतों के मिश्रण से ही हुआ है। किसी भी द्रव्य के आकार अथवा रंग के आधार पर हम उसमें विद्यमान प्रधान महाभूतों के बारे में अनुमान नहीं लगा सकते, इसके लिए तो हमें उस द्रव्य में पाये जाने वाले रस, वीर्य, विपाक, गुण आदि के बारे में जानकारी होनी चाहिए। इसी के आधार पर कोई वैद्य रोगी की प्रकृति आदि के अनुसार औषधि-द्रव्यों और आहार-द्रव्यों को चुनता है।
सभी औषधि द्रव्यों को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
- पार्थिव द्रव्य- जो द्रव्य पृथ्वी पर अथवा पृथ्वी के भीतर पाये जाते हैं, वे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। मिट्टी, सुधा (चूना), रेत, पत्थर, नमक, क्षार पदार्थ, अंजन, गेरू विभिन्न धातुं (जैसे – लोहा, ताँबा, सोना, चाँदी आदि), पारा (Mercury), उपरस, विभिन्न प्रकार के मणि तथा रत्न आदि इस प्रकार के द्रव्य हैं।
- जांगम द्रव्य- इस श्रेणी में पशु-जगत् से प्राप्त विभिन्न औषधि-द्रव्य आते हैं। चर्म (चमड़ा) रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र, दूध, पित्त, केश, लोम, नाखून, स्नायु, सींग, दाँत, खुर, कोष्ठ, अण्डाशय तथा पंख आदि।
- औद्भिद द्रव्य- इस श्रेणी में पेड़ पौधे व उनसे प्राप्त द्रव्य आते हैं। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ सभी तरह की जड़ी बूटियाँ, फल, फूल, जड़ें, पत्ते, बीज, कन्द, शाखाएँ, पेड़ों की छाल व निर्यास (पेड़ से निकलने वाला रस, गोंद) आदि पदार्थ पाये जाते हैं।
सभी द्रव्यों को महाभूतों के आधार पर पाँच भागों में भी बाँटा जाता है। वैसे तो प्रत्येक द्रव्य में सभी महाभूत विद्यमान होते हैं, क्योंकि सभी द्रव्य पृथ्वी का आश्रय लेकर उत्पन्न होते हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण जल है तथा शेष तीन महाभूतों-अग्नि, वात और आकाश के मिलने से इनकी पूरी रचना होती है और परस्पर भिन्नता आती है। परन्तु उक्त प्रकार से मिश्रण होने पर भी सभी में किसी एक महाभूत की प्रधानता होती है। इस आधार पर तीनों तरह के द्रव्यों को निम्नलिखित पाँच भागों में बाँटा गया हैः
- पार्थिव द्रव्य- इन द्रव्यों में पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है।
- आप्य या जलीय द्रव्य- इन द्रव्यों में जल महाभूत की प्रधानता होती है।
- वायव्य द्रव्य- इन द्रव्यों में वायु महाभूत की प्रधानता होती है।
- तैजस या आग्नेय द्रव्य- इन द्रव्यों में अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है।
- आकाशीय द्रव्य- इन द्रव्यों में आकाश महाभूत की प्रधानता होती है।
इन सभी प्रकार के द्रव्यों के गुणों का उल्लेख पिछले अध्याय में किया जा चुका है।
आयुर्वेद की दृष्टि से द्रव्यों का विवेचन करने एवं औषधीय रूप में उनके प्रयोग के लिए रस, गुण, वीर्य, विपाक आदि के रूप में इनकी अलग अवस्थाओं व प्रभावों (करेक्टर) का वर्णन किया गया है। यहाँ क्रमशः इनका विवेचन किया जा रहा है।