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अग्नि क्या है? अग्नि के प्रकार एवं इसके अंसतुलन से होने वाले रोग

 अग्नि क्या है 

हम जो भी भोजन करते हैं उसमें मौजूद प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट या विटामिन जैसे तत्व ही शरीर में धातुओं का निर्माण करते हैं. लेकिन खाना खाने के बाद ये सीधे तौर पर सात धातुओं में नहीं बदलते हैं बल्कि हमारे शरीर में मौजूद एक तत्व उन्हें शरीर के तत्वों के रुप में बदलता है. भोजन को शरीर के अनुरूप ढालने की क्रिया ही ‘अग्नि’ द्वारा संपन्न होती है. यह पूरी प्रक्रिया पाचन क्रिया और मेटाबोलिज्म कहलाती है.

 

अग्नि इस पाचन क्रिया को संपन्न करने के लिए पेट, लीवर में कई तरह के पाचक रसों को उत्पन्न करती है. इन पाचक रसों की मदद से सभी प्रकार के पदार्थ (ठोस, द्रव्य, आधे ठोस इत्यादि) धातुओं और मलों में बदल जाते हैं. इस प्रक्रिया में वात और भोजन रस का वहन करने वाले स्रोतों का भी सहयोग मिलता है लेकिन अग्नि का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है. इस अग्नि को ही ‘जठराग्नि’  कहा गया है.

 

यदि शरीर में अग्नि ना हो तो आपके द्वारा किया गया भोजन पचेगा नहीं और शरीर में धातुएं भी नहीं बनेंगी. आयुर्वेद में बताया गया है कि शरीर की जठराग्नि ख़त्म हो जाए तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है. शरीर का तापमान भी इसी अग्नि द्वारा ही निर्धारित होता है. यही वजह है कि मृत्यु के कुछ समय बाद ही शरीर एकदम ठंडा हो जाता है.

 

अग्नि के प्रकार 

आयुर्वेद में 13 प्रकार की अग्नियों के बारे में बताया गया है. जिन्हें उनके काम और शरीर में उनके स्थान के आधार पर बांटा गया है. इन सबमें जठराग्नि को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है. आइये अग्नि के मुख्य प्रकारों के बारे में जानते हैं.

1- एक जठराग्नि

2- पांच भूताग्नियाँ :  भौमग्नि ; आप्याग्नि ; आग्नेयाग्नि ; वायव्याग्नि ; आकाशाग्नी

3- सात धात्वाग्नियाँ : रसाग्नि ; रक्ताग्नि ; मान्साग्नि ; मेदोग्नि : अस्थ्यग्नि ; मज्जाग्नि ; शुक्राग्नि

 

 जठराग्नि

पाचक अग्नि को ही जठराग्नि कहा जाता है और बाकी सभी अग्नियों की तुलना में यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. यह मुख्य रुप से पेट और आंतों के बीच नाभि के आस पास रहती है. यह अग्नि अपनी गर्मी से बहुत जल्दी ही भोजन को पचा देती है. हम जो कुछ भी खाते हैं उसे यह अग्नि छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़कर उन्हें शरीर के अनुरूप बना देती है.

 

जठराग्नि बाकी सभी अग्नियों को सक्रिय बनाये रखने में मदद करती है. हमारे द्वारा खाए हुए भोजन में सबसे पहला परिवर्तन जठराग्नि करती है. उसके बाद वो आगे जाकर अन्य रूपों में बदलता है. इन सभी कामों को करने के लिए अग्नि का संतुलित अवस्था में होना बहुत ज़रुरी है. जठराग्नि की चार अवस्थाएं हो सकती हैं.

 

विषमाग्नि 

इसके नाम से ही स्पष्ट है इस प्रकार कि अग्नि कभी बहुत तेज हो जाती है कभी धीमी और कभी एकदम संतुलित. इसकी वजह से भोजन कभी तो ठीक से पचता है, कभी बहुत धीरे धीरे और कभी कभी बहुत ही जल्दी पच जाता है. अग्नि की यह स्थिति वात दोष की अधिकता की वजह से होती है. इसके परिणामस्वरूप पेट में गैस बनना, तेज दर्द, एसिडिटी, कब्ज़, पेट में भारीपन और दस्त की समस्या होने लगती है.

 

तीक्ष्णाग्नि 

यह अग्नि बहुत ही तेज होती है जिसकी वजह से यह खाए हुए भोजन को बहुत कम समय में पचा देती है. इस अवस्था में आप जो भी खायेंगे वो तुरंच पच जाता है, जिस वजह से आप बहुत ज्यादा खाने लगते हैं. इस अवस्था को अत्यग्नि या भस्मक नाम से भी जाना जाता है. जठराग्नि की इस अवस्था में पित्त दोष की अधिकता होती है. इसकी वजह से कई तरह की समस्याएं होने लगती हैं.

 

 मन्दाग्नि

इस अवस्था में अग्नि की तीव्रता बहुत कम होती है. इसलिए अगर आप कम मात्रा में भी भोजन करते हैं तो वह ठीक से पचता नहीं है. इस तरह की जठराग्नि कफ-दोष की अधिकता के कारण होती है.

 

समाग्नि

इस अवस्था में अग्नि एकदम संतुलित होती है. इसलिए उचित मात्रा में किया गया भोजन ठीक तरह से पच जाता है. क्योंकि जठराग्नि की इस अवस्था में वात-पित्त-कफ दोनों ही दोष अपनी संतुलित अवस्था में रहते हैं. इसलिए यह अग्नि समांग्नि कहलाती है.

 

 भूताग्नियाँ :

अग्नियों का यह समूह लीवर में रहता है. पांच महाभूतों के आधार पर ये अग्नियाँ भी पांच तरह की होती है : भौमग्नि ; आप्याग्नि ; आग्नेयाग्नि ; वायव्याग्नि ; आकाशाग्नी. इनमें से प्रत्येक अग्नि खाद्य रस में पाए जाने वाले भूमि, जल आदि महाभूतों में से अपने अपने तत्व के अंश का पाचन करती है और उन्हें शरीर के अनुरूप ढालती है. इस प्रकार लीवर में मौजूद अग्नियों की मदद से भोजन पांच श्रेणियों में बंट जाता है. और आगे शरीर के विभिन्न अंगों में पाए जाने वाले अपने अपने महाभूत (तत्व) में मिलकर उसका पोषण करता है.

 

धात्वाग्नियाँ 

यह अग्नियों का तीसरे प्रकार का समूह है. जठराग्नि और भूताग्नियों की मदद से खाद्य रस जब शरीर के अन्य भागों में पहुँचता है तो वहां मौजूद अग्नियाँ इसका फिर से पाचन करती हैं. जिससे यह खाद्य रस आगे चलकर धातुओं में बदल जाता है. धातुओं की संख्या सात होने की वजह से इन अग्नियों की संख्या भी 7 है. इसके नाम निम्न हैं.

सात धात्वाग्नियाँ : रसाग्नि ; रक्ताग्नि ; मान्साग्नि ; मेदोग्नि : अस्थ्यग्नि ; मज्जाग्नि : शुक्राग्नि (पुरुषों में) रजोग्नि (स्त्रियों में)

ये सभी अग्नियाँ पाचन क्रिया करती है और धातुओं का पोषण करती हैं. इस क्रिया में मल पदार्थ भी उत्पन्न होते हैं. धात्वाग्नियों के धीमा होने से धातु बढ़ने लगते हैं और इनकी तीव्र होने पर धातुओं में कमी होने लगती है.

 

पाचन क्रिया में अग्नि का महत्व

ऊपर बताई गई तीनों प्रकार की अग्नियों से भोजन के पचने की प्रक्रिया को इस प्रकार समझा जा सकता है. जब भोजन मुंह में पहुँचता है जो जीभ और लार से मिलने पर इसका स्वाद हमें पता चलता है.इसके बाद यह आमाशय में पहुचंता है. वहां तरल और चिकनाई युक्त रसों से मिलने के बाद ठोस भोजन तरल, झाग वाला, मुलायम और चिकनाई युक्त बन जाता है. पाचन क्रिया की इस पहली स्टेज पर झाग्युक्त कफ और मधुर रस उत्पन्न होता है.

 

इसके बाद आमाशय में पित्त के प्रभाव से अम्ल बनता है. फिर अधपका आहार रस आंतों में पहुँचता है. यहां पर जठराग्नि समान वात और पाचक पित्त के साथ अपना काम करती है. पाचक पित्त आहार रस के जल वाले हिस्से को पूरी तरह सोख लेता है. इससे आहार रस ठोस में बदल जाता है. जिसे ‘पिंड’ कहते हैं. इस अवस्था में कटु रस और वात की उत्पत्ति होती है.

 

यहां आकर भोजन दो भागों में बंट जाता है. पहला सार या प्रसाद भाग और दूसरा असार या किट्ट भाग. भोजन का जो भाग आसानी से पच जाता है और तरल रुप में होता है, वही सार भाग है. यही सार शरीर की पहली धातु ‘रस’  (प्लाज्मा) भी है. जो जठराग्नि के कारण मधुर और चिकनाई युक्त हो जाती है. इसी रस धातु से फिर आगे की धातुओं को पोषण मिलता है.

 

यही जठराग्नि या पाचक अग्नि धीमी है तो फिर आहार रस का पाचन ठीक से नहीं होगा और फिर यह रस कटु और खट्टा होगा. इसे खट्टे और तीखे रस को ही ‘आमरस’ या ‘आम’ कहा जाता है. यह विषैला और रोगकारक होता है. भोजन का दूसरा भाग जो ठीक से नहीं पचता है वह किट्ट या असार कहलाता है. इसका ठोस वाला हिस्सा मल के रुप में और तरल वाला हिस्सा मूत्र के रुप में आंत के निचले हिस्से में इकठ्ठा हो जाते हैं. अब इस स्थिति में पाँचों भूताग्नियों की प्रक्रिया शुरू होती है. ये खाद्य रस में मौजूद अपने अपने तत्व पर प्रतिक्रिया करके उनके शरीर के सजातीय तत्वों में बदल देती हैं.

 

इससे शरीर के विभिन्न अंगों में मौजूद पृथ्वी महाभूत का पोषण होता है. अब यह आहार रस रस धातु के रुप में सारे शरीर में भ्रमण करता है. इस प्रकार यह पोषक द्रव के रूप में सभी अंगों में पहुँचता है, जिसमें सातों धातुओं के पोषक तत्व मूलरूप में विद्यमान रहते हैं.

 

धात्वग्नियों की पाक क्रिया के फलस्वरूप, हर एक धातु के साथ एक विशेष सार अंश की उत्पत्ति होती है जिसे ‘ओज’ कहा जाता है. ओज के बारे में हम आपको पहले ही विस्तार से बता चुके हैं.

 

भोजन की इस संपूर्ण पाचन क्रिया में पित्त का विशेष महत्व है. यही कारण है कि बहुत से आयुर्वेदिक विद्वान, पित्त और अग्नि को एक ही तत्व मानते हैं. वैसे सातों धात्वग्नियों में पाचक पित्त के अंश ही क्रियात्मक रूप में होते हैं जो धात्वग्नियों को उनके कार्यों में मदद करते हैं.

 

इन खाद्य रसों पर सातों धात्वाग्नियों की प्रतिक्रिया होती है जिससे सात अलग अलग धातुओं का निर्माण होता है. इन धातुओं के तीन भाग माने गये हैं.

  • स्थूल
  • सूक्ष्म या अणु
  • मल

 

इनमें से स्थूल उसी धातु का पोषण करता है, सूक्ष्म भाग अपने से अगली धातु का निर्माण करता है. और इनसे उत्पन्न मल पदार्थ उसी मल पदार्थ का पोषण करता है.

 

मंद जठराग्नि से होने वाले रोग

शरीर में पाचक अग्नि अगर मंद या धीमी है तो इसकी वजह से भी कई समस्याएं होने लगती हैं. इनमें से कुछ प्रमुख निम्न हैं:

  • पेट और सिर में भारीपन
  • खांसी
  • सांसों से जुड़े रोग
  • मुंह से लार बहना
  • उल्टी आना
  • शरीर में कमजोरी

 

तीव्र जठराग्नि से होने वाले रोग

कुछ लोगों के शरीर में जठराग्नि काफी तीव्र होती है. जठराग्नि के अधिक तीव्र होने की वजह से भी कई तरह की समस्याएं होने लगती हैं. इनमें से प्रमुख निम्न हैं.

 

  • गले, होंठों और तालु में सूखापन
  • शरीर में गर्मी महसूस होना
  • ज्यादा भूख लगना