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आयुर्वेदानुसार अष्टविध रोग परीक्षा-विधि

इन उपरोक्त परीक्षणों के अतिरिक्त वातादि दोषों के आधार पर, रोगी की प्रकृति पहचान कर साध्यता व असाध्यता आदि जानने के लिए रोगी की आठ प्रकार से परीक्षा की जाती है, जिसे अष्टस्थान-परीक्षा के नाम से जाना जाता है। ये परीक्षाएँ हैं28

(1) नाड़ी-परीक्षा, (2) मूत्र-परीक्षा, (3) मल-परीक्षा, (4) नेत्र-परीक्षा, (5) जिह्वा-परीक्षा, (6) स्वर-परीक्षा, (7) स्पर्श-परीक्षा, (8) आकृति-परीक्षा।

ये सभी परीक्षण आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धान्तों पर पर आधारित हैं। इस प्रकार आयुर्वेदीय चिकित्सक द्वारा किए जाने वाले नाड़ी आदि के परीक्षण को हम आधुनिक चिकित्सा-पद्धति के नाड़ी-परीक्षण के सदृश नहीं मान सकते। यह परीक्षण पद्धति उससे एकदम भिन्न प्रकार की है। नाड़ी-परीक्षण के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चिकित्सक को एक सात्त्विक साधक होना जरूरी है, वहीं सीखने के लिए योग्य गुरु का सान्निध्य भी आवश्यक है। इस प्रकार सुपात्र शिष्य द्वारा ही योग्य गुरु से इस ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। नाड़ीविज्ञान, रोगनिदान के लिए आयुर्वेद के ऋषियों द्वारा प्रदत्त एक वरदान या दिव्य ज्ञान है। इन सब प्रकार के परीक्षणों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है-

  • नाड़ी-परीक्षण

रोगी एवं रोग की प्रकृति जानने के लिए नाड़ी (धमनी) का परीक्षण एक महत्त्वपूर्ण साधन है29। क्योंकि शरीर के स्वास्थ्य तथा अस्वास्थ्य का प्रभाव हृदय तथा उसके स्पन्दन पर पड़ता है और इस स्पन्दन का प्रभाव धमनियों के स्फुरण (स्पन्दन) पर पड़ता है। नाड़ी की परीक्षा के लिए उचित समय प्रातः खाली पेट होता है। भोजन व तेल मालिश करने के बाद में नाड़ी की गति अनिश्चित व अस्थिर हो जाती है, अतः इन क्रियाओं के एकदम पश्चात् रोगी की नाड़ी परीक्षा से रोग का उचित निदान कठिन है। इसी प्रकार यदि रोगी भूखा-प्यासा हो तब भी नाड़ी की गति का उचित प्रकार से ज्ञान नहीं हो पाता।

हाथ के अंगुष्ठमूल से नीचे की ओर लगभग आधा इंच का स्थान छोड़कर नाड़ी का परीक्षण किया जाता है। पुरुषों के दायें हाथ की तथा स्त्रियों के बायें हाथ की नाड़ी की गति देखी जाती है30। कभी-कभी स्त्री व पुरुष इन दोनों के हाथ की नाड़ी देखने पर ही नाड़ी की स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट होती है। नाड़ी-परीक्षण के लिए रोगी को अपनी बाजू सीधी व फैला कर रखनी चाहिए तथा हाथ को थोड़ा ढीला छोड़ देना चाहिए। उसके हाथ की अंगुलियाँ व अँगूठा भी सीधा व फैला हुआ होना चाहिए। चिकित्सक को अपने दायें हाथ  से नाड़ी देखनी चाहिए। हाथ की तीन अंगुलियाँ- तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका, ये नाड़ी-परीक्षण में उपयोगी होती हैं। इन तीनों अंगुलियों को नाड़ी पर रखा जाता है। तर्जनी अंगुली अंगूठे के मूल में रखी जाती है। नाड़ी पर तीनों अंगुलियों के पोरों से हल्का परन्तु एक जैसा दबाव डालना चाहिए और नाड़ी की गति को अनुभव करना चाहिए। एकदम सही और निश्चित गति जानने के लिए अंगुलियों के दबाव को पुनः पुनः हटाकर फिर डालना चाहिए। इस प्रकार, जिस अंगुली के पोर में नाड़ी की गति का दबाव अधिक अनुभव होता है, उसी के आधार पर रोग की प्रकृति का ज्ञान होता है। यदि तर्जनी अंगुली में गति का दबाव अधिक है, तो समझना चाहिए कि रोगी में वात दोष की प्रधानता है; मध्यमा अंगुली में गति के दबाव की अनुभूति से पता चलता है कि रोगी में पित्त दोष की तथा अनामिका अंगुली में दबाव की अनुभूति से पता चलता है कि कफ दोष की प्रधानता है।

इसके अतिरिक्त चिकित्सक को रोग की उचित प्रकृति का ज्ञान करने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि रोगी की नाड़ी की गति किस प्रकार की है? यदि नाड़ी की गति साँप की गति के समान है, तो इसका तात्पर्य है कि वात दोष की प्रधानता है। यदि नाड़ी की गति मेंढक की चाल के समान है तो समझें कि पित्त दोष की प्रधानता है; और यदि नाड़ी की गति कबूतर की चाल के समान है, तो कफ दोष की प्रधानता जाननी चाहिए।31, 32, 33  

यदि नाड़ी अपनी नियमित गति में लगातार तीस बार स्पन्दन करती है, तो इसका अर्थ है कि रोग साध्य है और रोगी जीवित रहेगा; परन्तु बीच में उसमें रुकावट आती है तो इसका तात्पर्य है कि यदि शीघ चिकित्सा नहीं की जायेगी तो रोगी की शीघ मृत्यु हो सकती है। ज्वर होने पर रोगी की नाड़ी स्पर्श में कुछ गर्म होती है तथा अपेक्षाकृत तीव्र चलती है। इसी प्रकार काम तथा क्रोध का वेग होने पर भी नाड़ी की गति तेज हो जाती है। चिन्ता व भय होने पर, नाड़ी बहुत धीमी हो जाती है। मन्दाग्नि (कमजोर पाचन शक्ति) तथा धातुक्षय के रोगी की नाड़ी स्पर्श करने पर बहुत सूक्ष्म प्रतीत होती है। इसी प्रकार तीव्र पाचन-शक्ति वाले व्यक्ति की नाड़ी स्पर्श में हल्की परन्तु गति में तेज होती है। आम से युक्त व्यक्ति की नाड़ी भारी प्रतीत होती है।

नाड़ी से त्रिदोष का बोध होने से सप्त धातुओं, त्रयोदश अग्नियों, ओज एवं स्रोतों के बारे में भी वैद्य को बोध हो जाता है तथा शारीरिक रोगों के साथ त्रिदोष ज्ञान से मानसिक रोगों के बारे में भी नाड़ी परीक्षण से वैद्य को रोग की जानकारी हो जाती है। अतः नाड़ी से यद्यपि मुख्य रूप से त्रिदोष का ही ज्ञान होता है, परन्तु इस त्रिदोष ज्ञान में सम्पूर्ण शरीर-विज्ञान का समावेश होता है, क्योंकि त्रिदोष ही हमारे शरीर के अस्तित्व का मूल आधार है।

आयुर्वेद के अनुसार असाध्यरोगसूचक नाड़ी

कुशल वैद्य नाड़ी के स्पन्दन को अनुभव करके यह भी जान लेता है कि रोगी का रोग असाध्य अथवा मृत्युकारक है। जैसे जो नाड़ी धीरे-धीरे, दुर्बल, चंचल, रुक-रुककर और सूक्ष्म चले। इस प्रकार बहुविध गति वाली नाड़ी सान्निपातिक (तीनों दोषों के कोप वाली), असाध्य और मृत्युकारक माननी चाहिए।

जिस नाड़ी की गति क्रमशः पित्त, वात और कफ की गति वाली हो, फिर अत्यन्त तेज गति से चक्र की तरह घूमे, जो भीषण प्रतीत हो, फिर सहसा अपनी गति को छोड़कर सूक्ष्म हो जाये, उसे भी असाध्य रोग की सूचक माना जाता है।

जिसकी नाड़ी अति सूक्ष्म, अत्यन्त वेग वाली और शीतल हो तो उसकी आयु समाप्त समझनी चाहिए।

आरोग्यसूचक नाड़ी

जिस रोगी की नाड़ी हंस की गति जैसी हो और उसका मुख प्रसन्न हो, तो निश्चित रूप से जानना चाहिए कि रोगी स्वस्थ होगा।

इस प्रकार आयुर्वेद में नाड़ी की गति का बहुत ही विस्तृत व सूक्ष्म विवेचन किया गया है। इससे एक योग्य चिकित्सक रोग का निदान, उसकी साध्यता, असाध्यता तथा रोगी के जीवन-मृत्यु तक का निश्चय कर सकता है। इस आधार पर रोगी को उचित समय पर तथा उचित चिकित्सा उपलब्ध हो सकती है।

आयुर्वेद में मूत्र-परीक्षा विधि

रोगी के मूत्र का परीक्षण करने के लिए, ब्राह्म मुहूर्त के समय का अथवा जब रोगी बिस्तर से सोकर उठता है, उस समय का मूत्र इकट्ठा किया जाता है। मूत्रत्याग के समय शुरू का मूत्र छोड़ देना चाहिए, उसके बाद के मूत्र को एक साफ काच के बर्तन में इकट्ठा करना चाहिए। बर्तन का मुँह साफ कपड़े या ढक्कन से ढक देना चाहिए। सूर्योदय के समय इस मूत्र का परीक्षण प्रारम्भ किया जाता है।

मूत्र के रंग के आधार पर भी रोगी अथवा रोग की प्रकृति का निश्चय किया जा सकता है। यदि मूत्र हल्के पीले रंग का है, तो इसका अर्थ है कि रोगी में वात दोष की प्रधानता है। यदि मूत्र का रंग सफेद है और उसमें झाग है तो कफ दोष की प्रधानता मानी जाती है और यदि मूत्र का रंग पीला अथवा लाल है, तो रोगी में पित्त दोष की अधिकता मानी जाती है। इसी प्रकार यदि रोगी में पित्त और वात दोष प्रकुपित हैं तो मूत्र धुँए से युक्त जल के समान दिखाई देता है तथा स्पर्श में हल्का गर्म होता है। रोगी में वात और कफ दोषों की अधिकता होने पर मूत्र का रंग सफेद होगा तथा उसमें अधिक बुलबुले उठेंगे। कफ तथा पित्त दोषों की अधिकता होने पर रोगी का मूत्र बादलों के समान मैला तथा लाल रंग का होता है। पुराने ज्वर में मूत्र रक्त के समान लाल तथा पीले रंग का होता है। यदि मूत्र का रंग काला है तथा पारदर्शी है तो इसका अर्थ है कि रोगी सान्निपातिक (तीनों दोषों के प्रकोप से होने वाले) रोग से पीड़ित है।

मूत्रपरीक्षण नाड़ी परीक्षण की तरह की त्रिदोष विज्ञान पर आधारित है।

मल-परीक्षा34, 35, 36

पुरीष (Stool) के रंग आदि के आधार पर भी रोग की प्रकृति जानने में सहायता मिलती है। यदि पुरीष गाढ़ा नीलापन लिये हुए काले रंग का हो, तो इसका तात्पर्य है कि रोगी में वात दोष प्रकुपित है। ऐसी स्थिति में पुरीष कठोर और शुष्क होता है। रोगी छोटे-छोटे टुकड़ों में, झागयुक्त तथा खुरदरे मल का विसर्जन करता है। यदि पुरीष का रंग हरा अथवा पीला हो तो रोगी में पित्त दोष का प्रकोप जानना चाहिए तथा यदि इसका रंग सफेद हो तो कफ दोष का प्रकोप समझना चाहिए। कफ रोगों की स्थिति में रोगी रोमांच के साथ बहुत अधिक मात्रा में, ग्रथित (गांठदार) तथा शीतल मल का विसर्जन करता है। पुरीष का रंग गाढ़ा नीलापन लिए काला तथा सफेद हो तो रोग, वात और कफ दोषों से उत्पन्न हुआ जानना चाहिए। वात और पित्त दोषों के प्रकोप से होने वाले रोगों में मल पीलापन लिये होता है तथा यह गँठा हुआ परन्तु टुकड़ों में विसर्जित होता है।

यदि मल में बहुत अधिक दुर्गन्ध है और पुरीष का थोड़ा-सा अंश पानी में डालने पर पानी में डूब जाए, तो समझना चाहिए कि रोगी में आमदोष (अधपचा भोजन) है। यदि यह मलांश जल के ऊपर तैरता रहे तो रोगी इस प्रकार के विकार से मुक्त मानना चाहिए।

यदि रोगी सफेद और अत्यधिक दुर्गन्धयुक्त मल का विसर्जन करता है, तो उसमें जलोदर रोग का प्रारम्भ माना जाता है। यदि रोगी काले अथवा नीलवर्ण-युक्त काले रंग का अति दुर्गन्धियुक्त मल का त्याग करता है और यदि उसे निश्चित समय पर चिकित्सा न मिले तो उसकी मृत्यु निश्चित समझनी चाहिए। इस प्रकार पुरीष के रंग, आकार तथा गंध के आधार पर रोग की प्रकृति एवं उसकी साध्यता अथवा असाध्यता का ज्ञान आयुर्वेदिक चिकित्सक कर सकता है।

नेत्र-परीक्षा

रोगी के नेत्र का रंग व अन्य स्थिति देखकर भी चिकित्सक रोग की प्रकृति के बारे में बहुत कुछ जान सकता है। यदि आँखें धूम्र वर्ण की, रूक्ष तथा डरावनी-सी दिखाई दें, आँखों की पुतली चंचल हो और रोगी आँखों में जलन महसूस करता हो तो वात दोष की प्रधानता समझनी चाहिए। यदि रोगी में पित्त दोष की अधिकता है तो उसकी आँखों का रंग हल्दी के समान पीला, लाल अथवा नीला होगा। उसे रोशनी अच्छी नहीं लगती तथा आँखों में जलन होती है। कफज रोगों की स्थिति में आँखों का रंग सफेद होता है तथा आँखें स्निग्ध होती हैं। आँखों से बहुत अधिक स्राव होता है, आँखों में चमक नहीं होती अर्थात् वे अलसायी हुई लगती हैं। आँखों की पुतली चंचल होती है। यदि रोगी में कोई दो दोष प्रकुपित हैं, तो उन-उन दोषों के लक्षण आँखों में पाये जाते हैं। तीनों दोषों का एक साथ प्रकोप होने पर आँखों का रंग नीलापन लिये काला होता है। दृष्टि स्थिर तथा आँखें डरावनी तथा तद्रायुक्त दिखाई देती हैं।

यदि आँखें लाल अथवा काले रंग की हों तथा डरावनी प्रतीत हों तो रोगी की स्थिति को असाध्य समझना चाहिए। इस प्रकार रोग के निदान और उसकी साध्यता अथवा असाध्यता को जानने के लिए आँखों की परीक्षा का विशेष महत्त्व है।

जिह्वा-परीक्षा

जिह्वा के माध्यम से मनुष्य भोजन रस का अनुभव करता है व बोलता है। इस प्रकार यह बहुत सूक्ष्म इंद्रिय है। अतएव यह शरीर का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। चिकित्सक को जिह्वा की परीक्षा द्वारा रोगी की स्थिति जानने में बहुत सहायता मिलती है।

यदि जीभ ठण्डी और सुन्न हो, स्पर्श में खुरदरी हो तथा उसमें दरारें-सी दिखाई दें, तो रोगी में वात दोष की प्रधानता होती है। यदि जीभ का रंग लाल या नीला हो, उसमें जलन-सी प्रतीत हो तथा काँटे-काँटे से दिखाई दें, तो रोगी में पित्त दोष की अधिकता मानी जाती है। कफ दोष के प्रकुपित होने पर जिह्वा का रंग सफेद होता है। वह बहुत ठण्डी, भारी तथा मोटी-सी प्रतीत होती है। यदि रोगी में तीनों दोष एक साथ प्रकुपित हों तो जिह्वा का रंग काला होता है। यह रूक्ष, तिक्त, जली हुई सी, दरार युक्त, काँटेदार तथा खुरदरी होती है।37

इसी प्रकार जिह्वा से रोगी के ज्वर की स्थिति तथा रोग की साध्यता व असाध्यता का भी ज्ञान होता है।

स्वर-परीक्षा

यदि रोगी का स्वर (ध्वनि) शुष्क और कठोर हो तो वात दोष की प्रधानता होती है। साफ और तीखी (तेज) आवाज से पता चलता है कि रोगी में पित्त दोष की प्रधानता है तथा भारी आवाज से समझना चाहिए कि कफ दोष प्रकुपित है।

स्पर्श-परीक्षा

यदि त्वचा स्पर्श में ठण्डी प्रतीत हो तो रोग वात देष से उत्पन्न जानना चाहिए। यदि रोगी की त्वचा गर्म हो तो रोग पित्त दोष से और यदि त्वचा गीली या नमी से युक्त हो तो रोग को कफ दोष से उत्पन्न मानना चाहिए।

आकृति एवं रूप की परीक्षा

उपरोक्त प्रकार से परीक्षण के अतिरिक्त कुछ अन्य बातों से भी चिकित्सक को रोगी की प्रकृति व दोष की स्थिति जानने में सहायता मिलती है। जैसे- यदि रोगी की त्वचा और बाल अधिकतर शुष्क (रूखे) और फटे हुए से हों, यदि उसे ठण्डी चीजें अधिक अच्छी लगती हों, यदि उसमें धैर्य, स्मरण-शक्ति, बुद्धि, प्रयत्न और मैत्री भाव की कमी हो तथा यदि वह बातूनी हो तो उसे वातप्रधान प्रकृति वाला मानना चाहिए।

जिसकी त्वचा पीले रंग की और उष्ण है, जिसकी हथेलियों, तलुओं और चेहरे का रंग ताम्र जैसा है, जिसके शरीर पर बाल कम तथा सुनहरे से रंग के होते हैं, ऐसे व्यक्ति पित्त-प्रकृति वाले माने जाते हैं।

कफप्रधान प्रकृति वाले रोगियों की सन्धियां, अस्थियाँ तथा माँसपेशियाँ गठित होती हैं। उनकी त्वचा का रंग कुछ सफेदी लिए होता है। ऐसे व्यक्तियों को प्रायः भूख, प्यास, शोक व दर्द आदि बहुत अधिक पीड़ित नहीं कर पाते।

उपरोक्त प्रमुख आठ प्रकार के परीक्षणों के अतिरिक्त बहुत से वैद्य अथवा चिकित्सक रोगी के दाँतों और नाखूनों द्वारा भी रोग का निदान करते हैं।

आस्य (मुख) की परीक्षा

यदि मुख का स्वाद मधुर है तो वातदोष, कटु है तो पित्तदोष तथा मधुराम्ल है तो कफदोष का प्रकोप मानना चाहिए। सभी स्वाद मिश्रित हों तो तीनों दोषों का प्रकोप समझना चाहिए। यदि मुख का स्वाद ऐसे लगे जैसे मुख घी से भरा है तो अजीर्ण तथा कसैला स्वाद होने पर मन्दाग्नि समझनी चाहिए।

नख-परीक्षा

चिकित्सक रोगी के नाखूनों को देखकर भी उसकी प्रकृति के बारे में जान सकता है। वात दोष की प्रधानता होने पर नाखूनों का रंग नीला होता है, पित्त दोष की प्रधानता हाने पर नाखून लाल या पीले रंग के हो जाते हैं तथा कफ-दोष की प्रधानता होने पर नाखून सफेद रंग के होते हैं। वात और पित्त दोनों दोषों का प्रकोप होने पर नाखून नीलापन लिये हुए पीले या लाल रंग के होते हैं। कफ और पित्त दोषों की प्रधानता होने पर नाखून पीले या सफेद रंग के हो जाते हैं। यदि तीनों दोषों के लक्षण पाये जाएं, तो सान्निपातिक रोग माना जाता है। सन्निपात में यदि नाखूनों का रंग लाली लिए हुए नीला, पीला, हरा या सफेद हो जाए, तो रोग असाध्य समझना चाहिए। इस प्रकार चिकित्सक नाखूनों को देखकर भी रोग का निर्णय कर सकता है। नाखून पर सफेद धब्बे दिखाई दें तथा नाखूनों के पास की त्वचा कमजोर हो जाए तो यह उदर रोगों का लक्षण जानना चाहिए।