योग व आयुर्वेद के अनुसार मानव-शरीर ईश्वर द्वारा की गयी एक अनुपम रचना है। भारतीय अध्यात्म-विद्या के उपनिषद् आदि ग्रन्थों में शरीर, अन्तःकरण व उनकी क्रियाओं का बहुत सूक्ष्मता से वर्णन करते हुए इनसे परे आत्मा की सत्ता की अनुभूति के लिए पंचकोश का विवेचन किया है। आत्मा इन पंचकोशों से परे सूक्ष्म तथा निर्विकार है। सभी क्लेश, राग व अज्ञान के बन्धनों से मुक्त होने के लिए आत्मदर्शन या आत्म-साक्षात्कार का विधान किया गया है। आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने के लिए पंचकोशों के इन आवरणों से पार जाना होता है। प्राचीन ऋषियों की यह दृढ़ मान्यता थी कि स्थूल शरीर, उसकी क्रियाएँ, मन, बुद्धि, अहंकार व आत्मा का ठीक बोध होने से ही व्यक्ति शरीर को ठीक रख सकता है। इस प्रकार रोगमुक्त होकर संसार के सभी उत्तम कर्मों को करते हुए परमात्मा को भी प्राप्त कर सकता है।
इस प्रयोजन के लिए उन्होंने अनेक स्थानों पर स्थूल देह से लेकर आत्मा-परमात्मा तक के सूक्ष्म रहस्यों को भी बहुत प्रामाणिकता के साथ समझाया है। योग व आयुर्वेद के अनेक ग्रन्थ इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यद्यपि पंचकोश का आयुर्वेद से सीधा सम्बन्ध तो नहीं है, परन्तु योग में इसको बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। अतः शरीर-विज्ञान से सम्बन्धित होने के कारण इसका यहाँ संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है। ये पंचकोश निम्न प्रकार से हैं-
इन पंचकोशों का अपना विशेष महत्त्व है। साधना, ध्यान, उचित आहार-विहार व योग आदि क्रियाओं के द्वारा साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होता जाता है। कहा भी गया है-
देहादभ्यन्तरः प्राणः प्राणादभ्यन्तरं मनः।
ततः कर्ता ततो भोक्ता गुहा सेयं परम्परा।। (पंचदशी, पंचकोश-विवेक, श्लोक-2)
स्थूल शरीर रूप अन्नमय कोश से प्राणमय कोश सूक्ष्म है। मनोमय कोश उससे भी सूक्ष्म है। मनोमय से विज्ञानमय तथा उससे भी आनन्दमय कोश सूक्ष्मतर है।
इस प्रकार अन्नमय कोश से लेकर आनन्दमय पर्यन्त उत्तरोत्तर सूक्ष्म कोशों का यह समूह ’गुहा‘ शब्द से कहा गया है। गुहा में आत्मा का निवास माना गया है।
जब व्यक्ति ध्यान साधना व योग द्वारा स्थूल देह (अन्नमय कोश) से सूक्ष्मता की ओर गति करता है, तब वह विकारों से रहित होता जाता है और उत्तरोत्तर कोशों को पार करता हुआ अन्त में पूर्ण आनन्द की स्थिति को प्राप्त करता है। उसी का ही नाम आनन्दमय कोश है।
उस कोश ’गुहा‘ में प्रविष्ट होने के लिए इस स्थूल देह का ज्ञान व उसके कर्मों का बोध होना जरूरी है। जिससे व्यक्ति शारीरिक रोगों व मानसिक विकारों से बचकर मनुष्य-जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
उपनिषद् के अनुसार यह संसार एक दिव्य शक्ति व दिव्य ऊर्जा द्वारा संचालित है। जो व्यक्ति उसको जान लेता है, उसे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है, वह सत्य है, अनन्त है।
उसी ब्रह्म से आकाश बना, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से औषधियाँ, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से यह पुरुष अर्थात् यह शरीर बना है। इस प्रकार यह स्थूल शरीर ही अन्नमय कोश है। इसीलिए अन्नमय कोश रूपी इस शरीर के ज्ञान व निरोगता के द्वारा ही हम शेष संसार को जानकर सुख व आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं12।
- अन्नमय कोश- स्थूल शरीर की रचना अन्न से हुई है, इसलिए इसे अन्नमय कोश के नाम से जाना जाता है। अन्नमय कोश का सम्बन्ध पृथ्वी से है। पृथ्वी से अन्न की उत्पत्ति होती है व अन्न से स्थूल देह का निर्माण होता है। अतः शरीर के स्वास्थ्य व रोग का सम्बन्ध मुख्यतः अन्नमय कोश से ही है। उचित आहार-विहार, षट्कर्म, औषधियों, मुद्रा व आसनों के अभ्यास से इसे सुदृढ़, सुडौल व सुन्दर बनाने में सहायता मिलती है।
- प्राणमय कोश- स्थूल शरीर से सूक्ष्म प्राणिक शरीर या ’प्राणमय‘ कोष है। प्राणप्रवाह अदृश्य है, परन्तु स्थूल देह का जीवन प्राण पर ही आश्रित है। यह भी सत्य है कि शारीरिक स्वास्थ्य नाडी निर्मित शरीर पर ही निर्भर करता है, जिसमें प्राण प्रवाहित रहता है। देह की शक्ति व ऊर्जा का स्रोत प्राणमय कोश है। ब्रह्माण्ड का वायु तत्त्व ही शरीर के अन्दर प्राण रूप में प्रविष्ट है, अर्थात् वह सर्वगत होते हुए भी जब देह में स्थित होता है तो उसे प्राण कहते हैं। प्राणमय कोश के पाँच मुख्य घटक हैं- प्राण, आपान, उदान, समान व व्यान। इसके पाँच उपघटक भी हैं- नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय।
प्रामणय कोश के पाँच मुख्य घटकों का विवरण निम्न प्रकार है-
प्राण- देहगत यह प्राण शुद्ध वायु को देह में प्रवेश कराकर श्वास-प्रश्वास की गति प्रदान कर जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।
अपान- अपान नामक वायु के रूप में यह शुक्र एवं मल-मूत्र का विसर्जन तथा धारण कराता है।
समान- समान नामक वायु के रूप में यह अन्न को जल, रस, रक्त आदि धातुओं में परिणत कराता है।
उदान- उदानवायु के रूप में रात को सोते समय गाढ निद्रा में जीव को विश्राम द्वारा आनन्द प्रदान कराता है। शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर सुख-दुख की प्राप्ति भी उदानवायु द्वारा ही होती है।
व्यान- व्यान वायु के रूप में यह सम्पूर्ण देह में व्याप्त होकर चेष्टा आदि सभी कर्मों को करता है तथा रस धातु का सम्पूर्ण शरीर में विक्षेपण (प्रसारण) इसका प्रधान-कर्म है।
पंच प्राणों व पंच उपप्राणों के शरीरगत स्थान व कार्य को समझाने तथा पंचभूतों के साथ उनका सम्बन्ध दर्शाने के लिए तालिका प्रस्तुत है-
पंच मुख्य प्राण | ||||
क्र.सं. | प्राण का नाम | तत्त्व | स्थान | कार्य |
1- | प्राण | वायु | मुख से हृदय तक | हृदय व पेQफड़ों की कार्यक्षमता को बनाए रखना। |
2- | उदान | आकाश | कण्ठ से कपाल मध्य तक | गमन तथा शब्दों की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार से करना। |
3- | समान | अग्नि | हृदय से नाभि तक | भोजन को चबाने व पचाने का कार्य करना तथा सप्त धातुओं का निर्माण करना। |
4- | अपान | पृथ्वी | नाभि से पैरों तक | मल, मूत्र, रज-वीर्य आदि का उत्सर्जन तथा कमर से पैरों तक के अंगों को गतिमय बनाना। |
5- | व्यान | जल | सर्वशरीरगत (सम्पूर्ण शरीर में) |
पंच उपप्राण | ||||
क्र.सं. | प्राण का नाम | तत्त्व | स्थान | कार्य |
1- | नाग | वायु | मुख से हृदय तक | डकार व हिचकी आना। |
2- | कृकल | अग्नि | कण्ठ से कपाल मध्य तक | भूख व प्यास का लगना। |
3- | कूर्म | पृथ्वी | पलकों में | पलकों का झपकना। |
4- | देवदत्त | आकाश | नासिका | अंगड़ाई तथा छींक आना। |
5- | धनंजय | जल | सम्पूर्ण शरीर में | मरने के पश्चात् भी शरीर की कांति को कुछ अवधि तक बनाए रखना या शरीर में उभार लाना। |
- मनोमय कोश- तीसरा मनोमय-कोश है, जिसमें पांच कर्मेंद्रिय (मुख, हाथ, पैर, उपस्थ व मूलेद्रिय) व अहंकार आता है। इसमें संयम से सकल कर्मेंद्रियाँ और उनकी शक्ति का बोध होता है।
छान्दोग्योपनिषद् में मन व प्राण के सम्बन्ध का सुन्दर उदाहरण दिया गया है-
जिस प्रकार पतंग, डोर से बंधा हुआ, अनेक दिशाओं में घूमकर दूसरे स्थान पर आधार न मिलने के कारण अपने मूल स्थान पर ही आ जाता है। उसी प्रकार हे प्रिय शिष्य! वह मन अनेक दिशाओं में घूम-घूम कर दूसरे स्थान पर आश्रय न मिलने के कारण प्राण का ही आश्रय करता है; क्योंकि ’मन प्राण के साथ ही बंधा है‘ इसीलिए शात्रों में योग-प्राणायाम द्वारा प्राण को बलवान् बनाने का विधान है; क्योंकि प्राण बलवान् होने पर मन भी बलिष्ठ होता है। प्राण की चंचलता से मन चंचल व प्राण की स्थिरता से मन स्थिर होता है। यदि मन की चंचलता पर नियत्रण पा लिया जाए तब सभी प्रकार के मनोविकार जन्यरोग तनाव, स्ट्रेश (विषाद) आदि से बचा जा सकता है। मनोविकार से ही व्यक्ति व्यसन, नशा, वासना आदि में आसक्त होता है, मन की चंचलता से ही व्यक्ति संसार में भटकता व दुख पाता है।
इसीलिए मनोमयकोश की साधना द्वारा इसको नियत्रण कर इसे निरोग व बलवान् बनाया जाता है। इसके लिए मौन धारण करना व धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास करने व सात्त्विक औषधियों के प्रयोग का शात्रों में विधान है। (छान्दोग्योपनिषद्- 6.8.2)
- विज्ञानमय कोश- चौथा विज्ञानमय-कोश है, जिसमें पांच ज्ञानेद्रिय (नाक, कान, आँख, जिह्वा व त्वचा) तथा बुद्धि व चित्त आते हैं। इससे व्यक्ति ज्ञान आदि का व्यवहार करता है। बुद्धि में संयम करने से ज्ञानेद्रियों व उनकी दिव्य शक्तियों का बोध होता है। ज्ञानेद्रियों के द्वारा किये जाने वाले अच्छे बुरे कार्य़ों का निर्णय बुद्धि द्वारा करना होता है, इसीलिए इस निर्णय की शक्ति को विज्ञानमय कोश कहा गया है।
विज्ञानमय-कोश के संयम द्वारा व्यक्ति आस्वाद व इंद्रियों की आसक्ति आदि से बच सकता है। वाणीगत दोषों को भी ठीक कर सकता है।
- आनन्दमय कोश- पांचवाँ आनन्दमय-कोश है, जिसमें प्रीति, प्रसन्नता, आनन्द का स्वरूप, जीवात्मा का वास व अधिष्ठान है। व्यक्ति जीवात्मा के रूप में होकर अपने स्वरूप में ध्यान व संयम करता है, तब उसको आनन्दमय कोश के सम्पूर्ण तत्त्व का यथार्थ बोध व ज्ञान होता है।
इन पंच कोशों के ज्ञान व इनमें संयम के द्वारा व्यक्ति शरीर शात्र का ज्ञान प्राप्त करके, शारीरिक व मानसिक व्याधियों से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त कर सकता है।