वानस्पतिक नाम : Amorphophallus paeoniifolius (Dennst-Nicolson) (एमोर्फोपेफलस् पैओनीफोलियस)
Syn-Amorphophallus campanulatus (Roxb.) Bl. ex. Decne.
कुल : Araceae (ऍरेसी)
अंग्रेज़ी में नाम : Elephant yam (ऐलिफैन्ट याम)
संस्कृत-सूरण , अर्शोघ्न , कन्द, ओल, कन्दल; हिन्दी-सूरनकन्द, जमीकन्द, जिमिकन्द, ओल; कोंकणी-सूमा (Suma), सुरना (Surna); कन्नड़-सुवर्णा-गेडडे (Suvarna-gedde), सूरण (Suran); गुजराती-सूरण (Suran); तेलुगु-थीया–कन्धा (Thiya-kandha), कन्द (Kanda), कन्दगोडडा (Kandgodda); तमिल-काराक्कारानाई (Karakkaranai), कणैकिलंगु (Kaneikilangu), करुनाकालंग (Karunakkalang); बंगाली-ओला (Ola), ओल (Ol); मराठी-जंगली सूरण (Jangli suran), सूरण (Suran); मलयालम-कीजहान्ना (Kizhanna), करुनाकरग (Karunakarang)।
फारसी-ओला (Ola), जमीकन्द (Zaminkand)।
परिचय
भारत के सभी मैदानी भागों में इसकी खेती की जाती है। इसकी चार प्रजातियां होती है। जिनका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है। सूरन को समस्त कन्द शाकों में श्रेष्ठ कहा गया है। सूरन अर्श में अत्यन्त लाभप्रद होता है। सूरण की समस्त प्रजातियों के कन्द में आक्जलेट पाया जाता है जिसके कारण कच्चे सूरन का सेवन करने से मुखपाक, कण्ठदाह तथा कण्डू आदि उपद्रव उत्पन्न होते है। अत सूरन को अच्छी तरह पकाकर ही इसका सेवन करना चाहिए।
इसका 30 सेमी से 1 मी ऊँचा दृढ़ क्षुप होता है। इसके पत्र 30-90 सेमी व्यास के, अनेक भाग में विभक्त, हरित रंग का एवं छत्र की तरह फैला हुआ रहता है। इसके कन्द प्राय चैत्र-वैशाख मास में लगाए जाते हैं तथा आश्विन शुक्ल पक्ष से लेकर फाल्गुन के अन्त तक ये खोदे जाते हैं। इस प्रकार प्राय 6 मास तक ये सुविधा से प्राप्त होते हैं। कन्द की परिपूर्णता के लिए यह 3 या 6 वर्ष तक भी नहीं खोदा जाता। ऐसे
परिपूर्ण हुए इसके बहुत बड़े-बड़े कन्द, हाथी के पग या उससे भी मोटे, गोल, चक्राकार होते हैं, किन्तु इसके लिए सानूकुल एवं उचित सिंचाई की आवश्यकता होती है। ये कन्द गहरे बादामी रंग के, ऊपर के भाग में दबे हुए होते है। इसके कन्द से अनेक श्वेत वर्ण की जड़े निकली हुई होती है। इसके कन्द का प्रयोग शाक व अचार बनाने के लिए किया जाता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
सूरन कटु, कषाय, उष्ण, लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, कफवातशामक, अर्शोघ्न, वाजीकरण, दीपन, रुचिकारक, विष्टम्भी, पाचन, स्रंसन, कण्डुकारक, विशद तथा पथ्य होता है।
यह अर्श, प्लीहारोग, गुल्म, कृमि, श्वास, कास, छर्दि, शूल तथा अरोचक नाशक होता है।
सूरण शाक रक्तपित्त प्रकोपक होता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : घनकंद।
मात्रा : कल्क 10-12 ग्राम। स्वरस 50 मिली। चिकित्सक के परामर्शानुसार।
विशेष : सूरण को सम्पूर्ण कन्दशाकों में श्रेष्ठ समझा जाता है, किन्तु यह दद्रु, कुष्ठ तथा रक्तपित्त के रोगियों के लिए हितकर नहीं होता है।
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