वानस्पतिक नाम : Marsilea minuta Linn. (मार्सिलिया माइन्यूटा)
Syn-Marsilea perrieriana C. Chr.
कुल : Marsileaceae (मार्सिलिएसी)
अंग्रेज़ी में नाम : Water clover (वॉटर क्लोवर)
संस्कृत-स्वस्तिक, सुनिष्णक, श्रीवारक, चतुष्पत्री; हिन्दी-चौपतिया, सुनसुनिया साग; कन्नड़-चिटिगिना साप्पु (Chitigina sappu); तमिल-निरारेई (Nirarei), एराईकीराई (Araikirai); तेलुगु-चिक-लीन्टाकूरा (Cik-lantakura), मूडूगो-तमारा (Mudugo tamara); बंगाली-सुवुणी शाक (Suvuni shak), सुनीशाक (Sunishak); पंजाबी-चौपत्रा (Chaupatra), गोधि (Godhi); मलयालम-निरारल (Niraral)।
अंग्रेजी-पेपुवॉर्ट (Pepuwart)।
परिचय
समस्त भारत में मुख्यत तालाबों के किनारे, नहरों के किनारे, आर्द्र मैदानों एवं बाढ़ वाले क्षेत्रों में फर्न (पर्णांग) कुल का यह जलीय पादप प्राप्त होता है। चरकसंहिता में वातजकास, विषजन्य-शूल, ऊरुस्तम्भ तथा वातरक्त से पीड़ित रोगी के लिए इसके शाक के सेवन का विधान किया गया है तथा मूत्रकृच्छ्र में इसके बीजों (बीजाणु-फलिका (Sporocarp) को तक्र के साथ पीसकर पिलाने का विधान है। सुश्रुतसंहिता के शाक-गणों में इसके गुणों का उल्लेख है तथा रक्तपित्त की चिकित्सा में इसके पत्तों को घृत में भूनकर या पकाकर सेवन करने का निर्देश दिया है।
वर्षाकाल में इसके छत्ते के जैसे क्षुप जलाशय के समीप के कीचड़ या पानी के ऊपर तैरते हुए दिखाई देते हैं। इसका काण्ड भूशायी, अनेक शाखा एवं प्रशाखायुक्त होता है। इसके पत्र प्रत्येक पत्रवृन्त पर 4-4 या प्रत्येक पत्र चार भागों में विभक्त होते हैं। इसलिए इसे चौपतिया कहा जाता है। इसके पत्र हरे रंग के गोलाकार तथा चक्रों में व्यवस्थित होते हैं। इसकी मूल से लगे हुए गोलाकार या अण्डाकार बीजाणु-फलिका (Sporocarp) प्राप्त होते हैं, जिसमें जिलेटिन प्राप्त होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
चौपतिया कषाय, मधुर, कटु, शीत, लघु, रूक्ष, स्निग्ध, त्रिदोषघ्न, ग्राही, वृष्य, रुचिकारक, दीपन, हृद्य, मेधाजनक, रसायन तथा अविदाही होती है।
यह ज्वर, श्वास, कास, प्रमेह, कुष्ठ, मेदोदोष तथा भमनाशक होती है।
इसके बीज कृमि तथा मूत्रकृच्छ्र नाशक होते हैं।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
- नेत्र-विकार-सुनिष्णक शाक का सेवन नेत्रों के लिए हितकर है।
- सुनिष्णक पञ्चाङ्ग स्वरस (1-2 बूंद) को नेत्र में डालने से नेत्र विकारों का शमन होता है।
- वातजकास-वातज कास में सुनिष्णक के शाक का सेवन पथ्य है।
- 1-2 ग्राम सुनिष्णक के बीजों को तक्र के साथ पीसकर, तक्र में ही मिलाकर पीने से मूत्रकृच्छ्र में लाभ होता है।
- मूत्राघात-सुनिष्णक बीज चूर्ण में (1-2 ग्राम) समभाग मिश्री मिलाकर सेवन करने से अश्मरी तथा मूत्राघात में लाभ होता है।
- वातरक्त-घृत से पकाया हुआ सुनिष्णक का शाक वातरक्त में हितकर है।
- ऊरुस्तम्भ-नमक रहित, जल तथा कम तैल में पकाए हुए सुनिष्णक के शाक को यव, साँवा, कोदों आदि की रोटियों के साथ खाने से ऊरुस्तम्भ में लाभ होता है।
- व्रण-सुनिष्णक पत्र को पीसकर व्रण में लगाने से व्रण का रोपण होता है तथा पञ्चाङ्ग को पीसकर लेप करने से व्रण का शोधन तथा रोपण होता है।
- निद्रानाश-सुनिष्णक पत्र शाक का सेवन करने से नींद अच्छी आती है।
- रक्तपित्त-घी से संस्कृत, पटोल, लिसोड़ा तथा जूही से युक्त सुनिष्णक का शाक रक्तपित्त में हितकर है।
- ज्वर-सुनिष्णक, वंशपत्र, सोंठ तथा नागरमोथा से निर्मित क्वाथ (10-30 मिली) का सेवन करने से ज्वर में लाभ होता है।
- पित्तज विकार-चौपतिया के पत्रों को घृत में भून कर सेवन करने से पित्त विकृति, अनिद्रा एवं आंतरिक रक्तस्राव में लाभ होता है।
- विष से पीडित रोगी के लिए सुनिष्णक का शाक हितकर है।
- भांग या गांजा के सेवन से होने वाली विषाक्तता-चौपतिया की जड़ को शीतल जल में पीसकर पिलाते हैं।
प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग, पत्र, मूल तथा बीजाणु-फलिका।
मात्रा : क्वाथ 10-30 मिली। चूर्ण 1-2 ग्राम। स्वरस 1-2 बूंद। चिकित्सक के परामर्शानुसार।