वानस्पतिक नाम : Pterocarpus santalinus Linn.f. (टेरोकार्पस सैन्टेलिनस) Syn-Lingoum santalinum (Linn.f.) Kuntze
कुल : Fabaceae (फैबेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Red Sandal Wood
(रैड सैनडल वुड)
संस्कृत-रक्तचंदन, रक्ताङ्ग, तिलपर्ण, रक्तसार, प्रवालफल, लोहित चंदन, मलयज; हिन्दी-लाल चंदन, रक्तचंदन; उड़िया- रक्तचंदन (Raktachandan), इन्द्राsचन्दोनो (Indrochandono); कन्नड़-रक्तशंदन (Raktashandana), होने (Hone); बंगाली-रक्तचंदन (Raktchandan); गुजराती-रतांजली (Ratanjali); तेलुगु-रक्तचंदनम् (Raktchandanam); तमिल-शेन् चंदनम् (Shen chandanam), अट्टी (Atti), सिवप्पु चंदनम (Sivappu chandanam); नेपाली-रक्तचंदन (Raktachandan); पंजाबी-लाल चन्दन (Lal chandan); मराठी-रक्तचंदन (Raktchandan), लाल चन्दन (Lal chandan); मलयालम-रक्तशंदनम् (Raktshandanam), पत्रान्गम (Patrangam), तिलपर्णी (Tilparnni)।
अंग्रेजी-रूबीवुड (Ruby wood), इण्डियन सैनडलवुड (Indian sandal wood); अरबी-संदले अहमर (Sandale ahmar), सैन्डुलम्र (Sandulhamra), उन्डम (Undum); फारसी-संदले सुर्ख (Sandale surkh), बुकम (Buckum)।
परिचय
प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टुओं व संहिताओं में चन्दन के तीन भेदों का वर्णन प्राप्त होता है। सुश्रुत-संहिता के पटोलादि, सारिवादि तथा प्रिंग्वादि-गणों में रक्त-चन्दन का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त भावप्रकाश-निघण्टु में रक्त, श्वेत तथा पीत तीन प्रकार के चन्दनों का उल्लेख किया गया है। यह दक्षिणी भारत में मुख्यत दक्षिण-आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्वी कर्नाटक, उत्तरी तमिलनाडू, अण्डमान एवं महाराष्ट्र के शुष्क, पहाड़ी स्थानों में लगभग 150-900 मी तक की ऊँचाई पर पाया जाता है। कुछ विद्वान् रक्त-चन्दन के स्थान पर कुचन्दन या पंत्राग का ग्रहण करते है, परन्तु यह तीनों आपस में बिल्कुल भिन्न हैं। यद्यपि रक्त चन्दन तथा पंत्राग के वृक्षों में कुछ समानता पाई जाती है तथा कई स्थानों पर चन्दन के स्थान पर पंत्राग की लकड़ी का औषधकर्म हेतु प्रयोग किया जाता है। तथापि यह दोनों आपस में बिल्कुल भिन्न है।
इसका 8-11 मी ऊँचा, मध्यमाकारीय, सघन शाखा-प्रशाखायुक्त, पर्णपाती वृक्ष होता है। इसकी शाखाएँ धूसर वर्ण की होती हैं। इसकी छाल 1-1.5 सेमी मोटी, कृष्णाभ-भूरे वर्ण की तथा क्षत होने पर गहरे रक्तवर्णी निर्यास-युक्त होती है। इसकी अन्तकाष्ठ गहरे रक्तवर्ण या गहरे-बैंगनी वर्ण की होती है। इसके पत्र संयुक्त, 10-18 सेमी लम्बे, अण्डाकार, गोल तथा प्रत्येक पर्णवृन्त पर प्राय तीन-तीन या पांच-पांच पत्रक होते हैं। इसके पुष्प 2 सेमी लम्बे, सुगन्धित, द्वि-लिंगी, पीतवर्ण के, छोटे, लगभग 5 मिमी लम्बे पुष्पवृंत पर लगे होते हैं। इसकी फली 3.8-5 सेमी व्यास की होती है। बीज संख्या में 1-2, वृक्काकार, 1-1.5 सेमी लम्बे, रक्ताभ भूरे वर्ण के, चिकने तथा चर्मिल होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल जनवरी से मई तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
लाल चन्दन, मधुर, तिक्त, शीत, लघु, रूक्ष, कफपित्तशामक, चक्षुष्य, वृष्य, रक्षोघ्न, बलकारक तथा वर्णकारक होता है।
यह छर्दि, तृष्णा, रक्तपित्त, ज्वर, व्रण, विष, भूत, कास, भान्ति तथा जन्तुनाशक होता है।
इसका काष्ठ स्तम्भक, बलकारक, ज्वरघ्न, कृमिघ्न, नियतकालिक व्याधिहर (Antiperiodic), स्वेदजनन तथा विषनाशक होता है।
यह उद्वेष्टनरोधी, स्दंक, सूत्रकृमिनाशक, शोथरोधी, संधिशूलहर, केन्द्राrय-तंत्रिकातंत्र अवसादक, आक्षेपहर, पुंस्त्वरोधी (Antiandrogenic), जीवाणुरोधी, ज्वरघ्न तथा अनूर्जतारोधी (Antiallergic) होता है।
औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : अन्तकाष्ठ, पत्र, त्वक् तथा फल।
मात्रा : चूर्ण-3-5 ग्राम, क्वाथ-20-40 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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