वानस्पतिक नाम : Bergenia ciliata (Haw.) Sternb. (बर्जेनिआ सिलिएटा)
Syn-Bergenia ligulata (Wall.) Engl. var. ciliata (Royle.) Engl.,
Saxifraga ligulata Wall.
कुल : Saxifragaceae (सेक्सिप्रैंगेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Elephant ears (एलीफेण्ट ईयर्स)
संस्कृत-पाषाणभेद, अश्मभेद, गिरिभेद, अश्मघ्न, पाषाणभेदक; हिन्दी-पाषानभेद, पत्थरचूर; उर्दू-पाषान भेद (Pashan bed); उड़िया-कानाभिण्डि (Kanabhindi), पेठे (Pethe); उत्तराखण्ड-सिलफदा (Silphada); असमिया-तुप्रीलता (Tuprilata); कश्मीरी-पाषाणभेद (Pashanabheda); कन्नड़-एलेलगया (Alelgaya), पाषाणभेदी (Pashanabhedi); गुजराती-पाषाणभेद (Pashanabheda); तमिल-वट्टीत्रीउप्पी (Vattitriuppi); तेलुगु-तेलनुरूपिण्डि (Telanurupindi); बंगाली-हिमसागर (Himasagara), पाठाकुचा (Pathakucha), पत्थरचुरी (Patharchuri); मराठी-पाषाणभेद (Pashanbheda); नेपाली-सोहेप सोआ (Sohap soa), सिलपरो (Silparo); पंजाबी-बनपत्रक (Banpatrak), फोटा (Phota); मेघालय-जेजीव गॉव रेमसॉन्ग (Jejive gaun racesong); मिजोरम-खम-डेमडवी (Kham-demdavi)।
अंग्रेजी-सेक्सीप्रैंज (Saxifrage), स्टोन ब्रेकिंग (Stone breking), इण्डियन रॉक फॉइल याम (Indian rock foil yam); अरबी-जेन्टीएन (Jantiane); फारसी-कुशाद (Kushad)।
परिचय
यह शीतोष्ण कटिबन्धीय हिमालय में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश से उत्तराखण्ड तक लगभग 2200-3200 मी की ऊँचाई पर, खासी में लगभग 1200 मी की ऊँचाई पर प्राप्त होता है। शीतोष्ण कटिबंधीय एशिया, भूटान, तिब्बत के अतिरिक्त अफगानिस्तान में भी पाया जाता है। यह साधारणतया छायादार स्थानों, बहुधा आर्द्र पत्थरों अथवा छायादार पहाड़ी ढलानों पर पाया जाता है। यह पौधा अश्मरी को नष्ट करता है या पत्थरों को फोड़ कर पैदा होता है इसलिए इसे पाषाणभेद कहते हैं। चरकसंहिता के मूत्रविरेचनीय तथा सुश्रुत-संहिता के वीरतर्वादि गणों में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। इस पौधे के विषय में बहुत मतभेद हैं। कई विद्वानों ने भिन्न-भिन्न पौधों को पाषाणभेद माना है।
इसके छोटे-छोटे शाक पहाड़ों की चट्टानों पर सर्वत्र फैले हुए होते हैं। इसका काण्ड लघु, स्थूल, मांसल एवं भूस्तारी होता है। इसके पत्र अण्डाकार अथवा वर्तुलाकार, पुष्पकाल में 5-15 सेमी तक एवं शिशिर ऋतु में लगभग 30 सेमी तक लम्बे, चमकीले रक्त वर्ण में परिवर्तित, हृदयाकार, दोनों सतहों पर रोमश, परिपक्वावस्था में अरोमश तथा हरित वर्ण के होते हैं। इसके पुष्प छोटे-छोटे, श्वेत, गुलाबी अथवा बैंगनी वर्ण के होते हैं। इसके फल छोटे, नीलाभ श्वेताभ वर्ण के होते हैं। बीज दीर्घ, पिरामिड के आकार के होते हैं। इसका प्रंद भूमिगत एवं अति दृढ़ होता है। औषधि कार्य के लिए मूल तथा पत्र को प्रयोग किया जाता है। बाजार में इसके भूरे रंग के कड़े, खुरदुरे एवं झुर्रीदार छालयुक्त सूखे टुकड़े मिलते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल अगस्त से नवम्बर तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
पाषाणभेद मधुर, कटु, तिक्त, कषाय, शीत, लघु, स्निग्ध, तीक्ष्ण तथा त्रिदोषहर होता है।
यह सारक, अश्मरी-भेदक, वस्तिशोधक तथा मूत्रविरेचक होता है।
यह अर्श, गुल्म, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, हृद्रोग, योनिरोग, प्रमेह, प्लीहारोग, शूल, व्रण, दाह, शिश्नशूल तथा अतिसार-नाशक होता है।
इसका पौधा पूयरोधी, तिक्त तथा कषाय होता है।
यह स्नायुरोग, अधरांगवात, गृध्रसी, व्रण, ग्रन्थिशोथ, विषाक्तता, कण्डु तथा कुष्ठ में लाभप्रद होता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
और पढ़ें: तालमखाना के फायदे
प्रयोज्याङ्ग : पत्र, प्रंद एवं काण्ड।
मात्रा : चूर्ण-3-6 ग्राम, क्वाथ-50-100 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
विषाक्तता :
चूहों में इसके सत्त् की घातक मात्रा 1000 मिग्रा/किग्रा है।
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