वानस्पतिक नाम : Vigna trilobata (Linn.) Verdcour (विग्ना ट्राइलोबाटा) Syn-Phaseolus trilobatus (Linn.) Schreb.
कुल : Fabaceae (फैबेसी)
अंग्रेज़ी नाम : African gram (अफ्राप्कन ग्राम)
संस्कृत-मुद्गपर्णी, सूर्यपर्णी, अल्पिका, क्षुद्र सहा, काकमुद्गा, मार्जारगन्धिका; हिन्दी-मुगवन, मुंगानी, वनमूंग, जंगली मूंग, रखाल कलमी; बंगाली-मुगनी (Mugani); मराठी-रनमुगा (Ranmuga), रनमठ (Ranmath); गुजराती-अडबॉमगी (Adabaumagi), अडावडा (Adavada); तैलुगु-पिल्लीपरसरा (Pilippersara); तमिल-नरीपयार (Naripayar), पानीपयार (Panipayar)।
अंग्रेजी-जंगल मैट बीन (Jungle mat bean)।
परिचय
समस्त भारत में जंगली पौधे के रूप में लगभग2100 मी की ऊँचाई तक तथा हिमालयी क्षेत्रों में खरपतवार के रूप में इसकी लताएँ पायी जाती है। इसकी भूमि पर फैलने वाली, मूंग के समान लता होती है। इसकी फली 2.5-5 सेमी लम्बी, 3 मिमी व्यास की, सीधी, चिकनी तथा बेलनाकार होती है। प्रत्येक फली में 6-12, श्वेताभ-भूरे, चपटे, बेलनाकार बीज होते हैं। चरक-संहिता के जीवनीय, शुक्रजनन तथा मधुरस्कन्ध एवं सुश्रुत-संहिता के काकोल्यादि व विदारीगन्धादि-गणों में इसका वर्णन प्राप्त होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
मुद्गपर्णी मधुर, तिक्त, शीत, लघु, रूक्ष, स्निग्ध तथा त्रिदोषशामक होती है।
यह शुक्रल, चक्षुष्य, ग्राही, रक्तस्तम्भक, बलकारक, वृष्य, बृंहण, वर्णकारक, स्तन्यवर्धक, जीवनीय, शुक्रजनक तथा केशों के लिए हितकर है।
मुद्गपर्णी क्षत, शोथ, ज्वर, दाह, ग्रहणी, अर्श, अतिसार, वातरक्त, कृमि, कास, क्षय, रक्तदोष तथा तृष्णा में हितकर है।
मुद्ग्पर्णी का पञ्चाङ्ग ज्वरनाशक, कीटनाशक, शोथहर, सूक्ष्मजीवरोधी तथा क्षयरोग नाशक होता है।
इसके पत्र शामक, शीतल, पित्तरोधी तथा बलकारक होते हैं।
इसके फल शीतल, वृष्य, चक्षुष्य, स्तम्भक, कृमिहर; शोथ, ज्वर, दाह तथा पिपासा शामक होते हैं।
इसकी मूल तिक्त, मधुर, जीवाणुरोधी, शीतल; क्षय, अर्श, अतिसार, नेत्ररोग, दाह तथा अजीर्ण शामक होती है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग :पत्र, मूल तथा पञ्चाङ्ग।
मात्रा :क्वाथ 10-15 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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