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Maruwak: मरूवक के हैं बहुत अनोखे फायदे- Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Origanum majorana Linn. (ओरिगेनम मेजोराना) Syn-Majorana hortensis Moench; Majorana fragrans Raf.    

कुल : Lamiaceae (लैमिएसी)

अंग्रेज़ी नाम : Sweet marjoram

(स्वीट मरजोरम)

संस्कृत-मरुबक, समीरण, प्रस्थपुष्प, मरु, फणी, फणिज्जक, मरूतक, मरुत्, खरपत्र, गन्धपत्र, बहुवीर्य, शीतलक, सुराह्व, प्रस्थकुसुम, आजन्मसुरभिपत्र, कुलसौरभ; हिन्दी-अरुआ, मरुवा; उत्तराखण्ड-बन तुलसी (bantulsi); उर्दू-मरवाकुष्ठा (Marvakhustha), मरवा (Marwa); कन्नड़-मरुगा (Maruga); गुजराती-मरवो (Marvo); तमिल-मारू (Marru); तैलुगु-मरुवमु (Maruvamu); बंगाली-मुर्रु (Murru); नेपाली-मरुवा फूल (Marua phul); मराठी-मूरवा (Murwa); मलयालम-मारुवामू (Maruvamu)।

अंग्रेजी-मरजोरम (Marjoram), नौटेड मरजोरम (Knotted marjoram); अरबी-मरदाकुश (Mardaqush), मीजुनजुष (Mizunjush); फारसी-मरजन (Marjan), जोस (Jos)।

परिचय

यह पौधा समस्त भारत में विशेषकर कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा तमिल घरों की वाटिका में सुगन्धित पत्रों के कारण उगाया जाता है। तुलसी की तरह दिखने वाला यह पौधा अत्यन्त सुगन्धित होता है। इसका पत्र-स्वरस कृमिनाशक होता है। इसके पुष्प बैंगनी अथवा कदाचित् श्वेत वर्ण के तथा फल चिकने होते हैं। यह मूलत यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका का निवासी है। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका में भी इसकी खेती की जाती है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

मरूवा हल्का, रूक्ष, तीक्ष्ण, तिक्ता, चरपरा, उष्ण, कफवात-शामक, कुष्ठघ्न, कृमिघ्न, विषघ्न, वेदनास्थापन, दुर्गन्धनाशक, रुचिकारक, दीपन, आर्तवजनन, हृदय-उत्तेजक, ज्वरघ्न, कटु, पौष्टिक तथा पित्तवर्धक है।

इसका पौधा सूक्ष्मजीवाणुरोधी, विषाणुरोधी, कृमिघ्न, क्षुधावर्धक, रक्तशोधक, हृद्य, मूत्रल तथा कफवातशामक होता है।

यह ऐंठन, अवसाद, उदरात्र विकार, अर्धावभेदक, शिरशूल, पक्षाघात, कास तथा श्वास शामक होता है।

औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. शिर शूल-मरुवक के ताजे पौधे को पीसकर मस्तक पर लगाने से शिरशूल का शमन होता है।
  2. पोथकी-मरुबक और लहसुन के स्वरस को मिलाकर 1-2 बूँद नेत्र में डालने से पोथकी में लाभ होता है।
  3. नेत्ररोग-मरुबक पत्रस्वरस से पलाश बीज चूर्ण को भावित कर अंजन करने से नेत्रशुक्र (फूली) में लाभ होता है।
  4. कर्णपूय-मरुवक पत्र-स्वरस (2-3 बूँद) को कान में डालने से कर्णपूय का शमन होता है।
  5. कास-5 मिली मरुआ पत्र-स्वरस में समभाग मधु मिलाकर सेवन करने से कास में लाभ होता है।
  6. 5-10 मिली मरुआ मूल-स्वरस का सुबह-शाम सेवन करने से क्षय रोग में लाभ होता है व उदरगत कृमियों का शमन होता है।
  7. उदरशूल-4 ग्राम मरुवक पत्र तथा बीज चूर्ण को सुबह-शाम उष्णोदक के साथ देने से उदरशूल में लाभ होता है।
  8. प्रवाहिका-मरुवक तैल को पेट पर मलकर स्वेदन करने से तीव्र प्रवाहिका में लाभ होता है।
  9. विबन्ध-मरुवक का 20-40 मिली फाण्ट बनाकर देने से विरेचन होकर विबन्ध का शमन होता है।
  10. मासिक विकार-मरुआ के 20-30 मिली फाण्ट को नियमित देने से रजविकारों में लाभ होता है।
  11. गठिया-मरुआ के पञ्चाङ्ग का क्वाथ बनाकर 20 मिली मात्रा में दिन में तीन बार पीने से गठिया रोग में लाभ होता है।
  12. मरुआ के पञ्चाङ्ग को पीसकर लगाने से त्वकविकार व मोच में लाभ होता है।
  13. वातव्याधि-मरुवक-स्वरस को वातव्याधि से पीड़ित अंग पर लगाने से वेदना व भल्लातक जन्य शोथ का शमन होता है।
  14. मरुवक स्वरस का लेप करने से भल्लातक जन्य शोथ का शमन होता है।
  15. कुष्ठ-मरुआ पत्र-स्वरस का लेप करने से कुष्ठ व दद्रु में लाभ होता है।
  16. वेदना शोथ-मरुआ की टहनियों को पानी में उबालकर बफारा देने से वेदना युक्त शोथ और संधिवात में लाभ होता है।
  17. वरटी विष-मरिच, सोंठ, सेंधानमक तथा सौवर्चल नमक में मरुबक पत्र-स्वरस मिलाकर लेप करने से वरटीजन्य (ततैया) विष प्रभाव का शमन होता है।
  18. वरटी (बर्रे, ततैया) दंश में सर्वप्रथम शत्र से दंश को निकाल कर उस स्थान पर मरुवक स्वरस को लगाने से दंश जन्य वेदना आदि प्रभावों का शमन होता है।
  19. अशुद्ध पारद सेवनजन्य-विकृति-अशुद्ध पारद अथवा उसके योग के सेवन से उत्पन्न विकृति के शमनार्थ 6-6 ग्राम पुदीना तथा मरुवक स्वरस में 50 ग्राम मिश्री तथा 20 मरिच मिलाकर, शीतल जल में घोल बनाकर पीना चाहिए

प्रयोज्याङ्ग  :पञ्चाङ्ग, पत्र, बीज एवं तैल।

मात्रा  :क्वाथ 10-20 मिली। स्वरस 5-10 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।

विशेष  :कई विद्वान (Ocimum basilicum Linn.) को मरूआ मानते है; परन्तु यह मरूआ से भिन्न दूसरी प्रजाति है।