वानस्पतिक नाम : Portulaca oleracea Linn. (पोरटूलाका ओलरेसिआ)
Syn-Portulaca sativa Haw., Portulaca intermedia Link ex Schltdl.
कुल : Portulacaceae (पोर्टूलैकेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Garden Purslane
(गार्डेन पर्सलेन)
संस्कृत-बृहल्लोणी, लोणी, घोटिका, घोली; हिन्दी-बड़ी लोणा, लोणा शाक, खुरसा, कुलफा; उत्तराखण्ड-लुनाक (Lunak); उर्दू-ख्ािरफा (Khurfah); उड़िया-पूरुनीसाग (Purunisag); कन्नड़-डूडा-गोराई (Duda-gorai),
बुडागोरा (Budagora), डूड्डा (Dudda); कोंकणी-गोल (Gol), गोलचीवागी (Golchibagi); गुजराती-घोल (Ghol), म्होटीलूनी (Mhotiluni), लोणी (Loni), म्होटो (Mhoto); तमिल-करीकीराई (Karikirai),
परपूकाईरे (Parpukire); तेलुगु-गंगा-पवीलीकूरा (Ganga-pavilikura), पेड्डापेयीलीकूरा (Peddapayilikura); बंगाली-बड़गुनी (Badguni), बरालोनिया (Baraloniya); नेपाली-नुनढ़िकी (Nundhiki); पंजाबी-लोनक (Lonak), कुन्डर (Kundar); मराठी-कूरफा (Kurfah), घोले (Ghole), भुई घोली (Bhui gholi); मलयालम-कोरीच्चीरा (Koricchira), कोलुप्पा (Koluppa), कोलुप्पासीरा (Koluppacira)।
अंग्रेजी-कॉन पर्सलेन (Kaun purslane), पुस्सले (Pussley), पिगवीड (Pigweed), कॉमन पर्सलेन (Common purslane); अरबी-बग्लातुल्हुम्का (Baglatulhumqa), बुक्लुतुल्कुकेमा (Buklutulkukema); फारसी-चोल्जा (Cholza), तुर्क (Turk)।
परिचय
यह समस्त भारत में लगभग 1500 मी की ऊँचाई तक वर्षा ऋतु में इसके स्वयं जात पौधे उत्पन्न होते हैं। बिहार आदि कुछ स्थानों पर शाक हेतु इसकी खेती भी की जाती है। इसके पत्ते मांसल तथा चिकने होते हैं। पत्तों को मसलने पर एक विशिष्ट प्रकार की गन्ध आती है तथा पिच्छिल स्राव निकलता है। इसके पुष्प पीले रंग तथा छोटे होते हैं। इसकी शाक का प्रयोग विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के निर्माण व चिकित्सा में किया जाता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
बड़ी लोनी मधुर, अम्ल, उष्ण, गुरु, रूक्ष, कफपित्तशामक, दीपन, सारक तथा वातकारक होती है।
यह अर्श, अग्निमांद्य, विष, व्रण, गुल्म, श्वास, कास, प्रमेह, ग्रहणी, कुष्ठ, वाणी दोष, अतिसार, त्वग्रोग, शोथ तथा नेत्ररोग नाशक होती है।
इसके काण्ड एवं पत्र स्तम्भक, मधुर, मृदु विरेचक, मृदु स्नेहक, प्रशामक, शीत, आमाशयिक क्रियाविधि वर्धक, विषरोधी, जीवाणुनाशक, प्रशीतादरोधी, स्वेदजनन, परिवर्तक, मूत्रल, क्षतिविरोहक तथा बलकारक होते हैं। यह पौरुष-ग्रंथि-शोथ, विबंध, स्वरभेद, अरुचि, व्रणशोथ, वृक्क-विकृति, मूत्राशय शूल, मूत्राशय शोथ, प्लीहा विकार, अर्श, कामला, मधुमेह, दग्ध, शिरशूल, कर्णशूल, दन्तशूल, दाह, छर्दि, त्वक् विकार, प्रवाहिका, मूत्रकृच्छ्र, मूत्ररक्तता, पूयमेह, मुखपाक, अश्मरी तथा हृद्-विकारों में लाभप्रद है।
इसके बीज शीतल, मूत्रल तथा प्रवाहिकारोधी होते हैं।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
- शिरशूल-लोनी के पत्तों को पीसकर मस्तक पर लगाने से शिरशूल का शमन होता है।
- लोनी के पत्तों को पीसकर नेत्र के बाहर चारों ओर लगाने से नेत्र विकारों का शमन होता है।
- कर्णशूल-लोनी पत्र-स्वरस (1-2 बूंद) को कान में डालने से, कर्णशूल (कान दर्द) का शमन होता है।
- दन्तशूल-लोनी पञ्चाङ्ग को पीसकर दांतों पर रगड़ने से दन्तशूल का शमन होता है।
- मुंहासे-लोनी के बीजों को गोदुग्ध के साथ पीसकर लगाने से मुंहासे मिटते हैं।
- रक्तनिष्ठीवन-5 मिली लोनी पत्र-स्वरस का सेवन करने से रक्तनिष्ठीवन (थूक में रक्त आना) में लाभ होता है।
- लोनी के काण्ड एवं पत्र का क्वाथ बनाकर 10-15 मिली मात्रा में पीने से आमाशयिक विकार मूत्रकृच्छ्र व अश्मरी का शमन होता है।
- मूत्र विकार-लोनी के पञ्चाङ्ग का काढ़ा बनाकर 15-20 मिली मात्रा में पिलाने से मूत्र-विकारों का शमन होता है।
- अर्बुद-लोनी के काण्ड एवं पत्र को पीसकर लगाने से अर्बुद तथा रसौली में लाभ हेता है।
- त्वक्-विकार-लोनी पत्र को पीसकर लेप करने से त्वक् रोग शोथ का शमन होता है।
- दग्ध-लोनी पत्र को पीसकर अग्निदग्ध (जले हुए) स्थान पर लगाने से लाभ होता है।
- विसर्प-लोनी के ताजे पत्रों को पीसकर लेप करने से विसर्प, खुजली तथा अन्य प्रकार के चर्मरोगों में लाभ होता है।
- दाहज्वर-लोनी पञ्चाङ्ग को पीसकर प्राप्त स्वरस का लेप करने से दाहयुक्त ज्वर का शमन होता है।
- ज्वर-लोनी के पत्तों का हिम बनाकर 15-20 मिली मात्रा में पिलाने से ज्वर का शमन होता है।
- वृश्चिक (बिच्छू) दंश-लोनी काण्ड एवं पत्र-स्वरस का दंश स्थान पर लेप करने से वृश्चिक (बिच्छू) दंश जन्य वेदना, शूल आदि विषाक्त प्रभावों का शमन होता है।
प्रयोज्याङ्ग :पञ्चाङ्ग, काण्ड तथा पत्र।
मात्रा :पञ्चाङ्ग क्वाथ 15-20 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।