Categories: जड़ी बूटी

Garlic: गुणों से भरपूर है लहसुन – Acharya Balkrishan Ji (Patanjali)

वानस्पतिक नाम : Allium sativum Linn. (एलियम् सेटाइवम्)

Syn-Allium longicuspis Regal

कुल : Liliaceae (लिलिएसी)

अंग्रेज़ी नाम : Garlic (गार्लिक)

संस्कृत- लहसुन , रसोन , उग्रगन्ध , महौषध, म्लेच्छकन्द, यवनेष्ट, रसोनक; हिन्दी-लहसुन, लशुन; कन्नड़-बेल्लुल्लि (Bellulli); गुजराती-शूनम (Shunam), लसण (Lasan); तेलुगु-वेल्लुल्लि (Velulli), तेल्लागडडा (Tellagadda); तमिल-वेल्लापुंडू (Vallaipundu), वल्लाई पुन्डु (Vallai pundu); बंगाली-रसून (Rasoon); नेपाली-लसुन (Lasun) मराठी-लसूण (Lasun); मलयालम-वेल्लुल्ली (Vellulli)।

अंग्रेजी-कॉमन गार्लिक (Common garlic); अरबी-सूम (Soom), फोम (Foam); फारसी-सीर (Seer)।

परिचय

समस्त भारत में इसकी खेती की जाती है। इसका प्रयोग सदियों से घर-घर में मसाले तथा औषधि के रूप में किया जाता है। काश्यप-संहिता में लसुन कल्क का प्रयोग अनेक व्याधियों की चिकित्सा में किया गया है। रसौन में अम्ल रस को छोड़कर शेष पाँचों रस विद्यमान होते हैं। इसकी गन्ध उग्र होती है, इसलिए इसे उग्रगन्धा भी कहते हैं। इसके शल्ककन्द को लहसुन कहा जाता है। इसके अन्दर लहसुन की 5-12 कली होती है।

उपरोक्त वर्णित रसोन की मुख्य प्रजाति के अतिरिक्त इसकी निम्नलिखित दो प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनका प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है।

  1. Allium schoenoprasum Linn. (साद्रपुष्प रसोन)- इसके शल्ककन्द पूर्णतया परिपक्व हो जाने पर पतले, श्वेत रंग के आवरण से युक्त होते हैं, इसका काण्ड चिकना तथा गोलाकार होता है, इसके पत्र सुषिर (पोले), गोलाकार, भूरे वर्ण के तथा चमकीले होते हैं। इसके पुष्प हल्के बैंगनी वर्ण की आभा से युक्त होते हैं। इसके शल्ककन्द का प्रयोग उदरकृमियों की चिकित्सा हेतु किया जाता है। इसके पत्र तथा शल्ककन्द में आक्सीकरण-रोधी क्रिया पाई जाती है।
  2. Allium tuberosum Roxb. (वन्य रसोन)- इसके पत्र चपटे तथा हरे रंग के होते हैं। इसके पुष्प श्वेत वर्ण के होते हैं। पहाड़ी स्थानों में इसके पत्तों का प्रयोग दाल, कढ़ी व सब्जियों में छौंक लगाने के लिए किया जाता है। इसके बीजों का प्रयोग शुक्रमेह की चिकित्सा में किया जाता है।

आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव

लहसुन की नाल मधुर तथा पित्तकारक होती है।

लहसुन तिक्त, कषाय, लवण, कटु, (अम्लवर्जित पंचरसयुक्त), तीक्ष्ण, गुरु, उष्ण तथा वातकफशामक होती है।

यह दीपन, रुचिकारक, बृंहण, वृष्य, स्निग्ध, पाचक, सारक, भग्नसंधानकारक, पिच्छिल, कण्ठ के लिए हितकारी, पित्त तथा रक्तवर्धक, यह बल तथा वर्ण को उत्पन्न करने वाला, मेधाशक्ति वर्धक, नेत्रों के लिए हितकर, रसायन, धातुवर्धक, वर्ण, केश तथा स्वर को उत्तम बनाने वाली होती है।

यह हिक्का, हृद्रोग, जीर्णज्वर, कुक्षिशूल, विबन्ध, गुल्म, अरुचि, कास, शोथ, अर्श, कुष्ठ, अग्निमांद्य, श्वास, कृमि, अजीर्ण तथा ज्वर शामक है।

लहसुन सेवन के अयोग्य व्यक्ति- पाण्डु रोग, उदर रोग, उरक्षत, शोथ, तृष्णा, पानात्यय, वमन, विषजन्य विकार, पैत्तिक रोग, नेत्ररोग से पीड़ित तथा दुर्बल शरीर होने पर रसोन का सेवन नहीं करना चाहिए।

लहसुन सेवन करने वालों के लिए हितकर तथा अहितकर पदार्थ-मद्य, मांस तथा अम्लरस-युक्त भक्ष्य पदार्थ लहसुन सेवन करने वालो के लिए हितकर होते हैं।

व्यायाम, आतप (धूप) सेवन, क्रोध करना, अत्यन्त जलपान, दूध तथा गुड़ इनका सेवन करने वाले मनुष्यों को लहसुन का सेवन करना अहितकर होता है।

शीतल जल, गुड़ तथा दूध का अधिक सेवन करने वाले और पिष्टी (उड़द की पीठी), अम्ल रस तथा मद्य से द्वेष करने वाले व्यक्ति को अत्यधिक तीक्ष्ण पदार्थों के साथ तथा अजीर्ण (अपच) में रसोन सेवन करना अहितकर होता है।

लहसुन का शल्ककन्द-श्वसनिकाशोथ, विबन्ध, आमवात, ज्वर, रक्तभाराधिक्य, मधुमेह, कृमिरोग, जीवाणु तथा कवक-संक्रमण

शामक होता है।

रसोन-रक्तभाराधिक्य तथा धमनी काठिन्य रोगियों में प्रकुंचनीय तथा अनुशिथिल धमनी तनाव को ठीक करता है तथा रक्त कोलेस्टेरॉल स्तर को कम करता है।

इसका प्रयोग उच्च रक्तगत वसा (Hyperlipidaemia) एवं अल्प रक्तचाप (Mild hypertension) के उपचार के लिए किया जाता है।

इसमें जीवाणुनाशक गुण पाए जाते हैं।

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औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि

  1. खालित्य (गंजापन)-लहसुन को तिल तैल में पकाकर, छानकर, तैल को सिर में लगाने से खालित्य में लाभ होता है।
  2. शिरोगत दद्रु-लहसुन को पीसकर सिर पर लगाने से सिर में होने वाली दाद का शमन होता है।
  3. आधासीसी-लहसुन को पीसकर मस्तक पर लगाने से आधासीसी की वेदना का शमन होता है।
  4. कर्णशूल-लहसुन, अदरख, सहिजन, मुरङ्गी, मूली तथा केले के रस को किंचित् उष्ण (गुनगुना) करके, कान में डालने से कर्णशूल (कान के दर्द) का शमन होता है।
  5. लहसुन को अर्कपत्र में लपेट कर, आग में गर्म कर, फिर लहसुन का रस निकाल कर 1-2 बूंद रस को प्रातकाल कान में डालने से वात तथा पित्तजन्य कर्णस्राव में लाभ होता है।
  6. रसोन स्वरस में लवण मिलाकर 1-2 बूंद कान में डालने से कान की वेदना का शमन होता है।
  7. सरसों के तैल में लहसुन को पकाकर छानकर, 1-2 बूंद कान में डालने से कर्णशूल का शमन होता है।
  8. हिक्का (हिचकी)-श्वास (दमा)वेग युक्त हिक्का (हिचकी) तथा श्वास (दमा) में लहसुन तथा प्याज के रस का नस्य (नाक में डालना) लेने से लाभ होता है।
  9. स्तन्यवृद्धि-लहसुन का सेवन करने से स्तन्य की वृद्धि होती है।
  10. दमा-5 मिली लहसुन स्वरस को गुनगुने जल के साथ सेवन करने से दमा में लाभ होता है।
  11. हृदय रोग-10 मिली रसोन क्वाथ में दुग्ध मिलाकर अल्प मात्रा में प्रयोग करने से उदावर्त, गृध्रसी, राजयक्ष्मा हृदय रोगों में लाभ होता है।
  12. वातज गुल्म-(लहसुन क्षीर) सूखे हुए छिलका रहित 200 ग्राम लहसुन में 8-8 गुना दूध एवं जल मिलाकर दूध शेष रहने तक पकाकर, छानकर (15-20 मिली मात्रा में) पीने से वातगुल्म, पेट फूलना (उदावर्त), गृध्रसी, विषमज्वर (मलेरिया), हृद्रोग, विद्रधि तथा शोथ (सूजन) में शीघ्र लाभ होता है।
  13. विसूचिका-लहसुनादि वटी (लहसुन, जीरा, सेंधानमक, गंधक, सोंठ, मरिच, पिप्पली, हींग) का सेवन करने से विसूचिका रोग में शीघ्र लाभ होता है।
  14. वातकफजन्यशूल-प्रात काल लहसुन कल्क (1 ग्राम) में काञ्जी मिलाकर सेवन करने से वातकफजन्य शूल का शमन होता है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
  15. प्लीहावृद्धि-प्रतिदिन समभाग लहसुन, पिप्पली मूल और हरीतकी को पीसकर कल्क या चूर्ण बनाकर 1-2 ग्राम मात्रा में सेवन करने से प्लीहा-विकारों का शमन होता है।
  16. कृमि रोग-1-2 ग्राम रसोन की कलियों का सेवन करने से उदरकृमियों, अतिसार व प्रवाहिका का शमन होता है।
  17. योनि रोग-प्रतिदिन प्रात काल लहसुन का रस (5 मिली) पीने से तथा भोजन में दूध आदि का सेवन करने से योनिरोगों (प्रंसिनी) का शमन होता है। (योनि रोग में रेवंदचीनी से लाभ)
  18. वातव्याधि-लहसुन के सूक्ष्म कल्क (1-2 ग्राम) को घृत के साथ खाकर घृतबहुल भोजन करने से वातजन्य रोगों का शमन होता है।
  19. लहसुन स्वरस से सिद्ध तिल तैल का प्रयोग सभी प्रकार के वात-विकारों का शमन करता है।
  20. वातरोग में लहसुन का प्रयोग श्रेष्ठ है।
  21. लहसुन का रसायन विधि से सेवन करने से पित्त तथा रक्त के आवरणों के अतिरिक्त वात के सभी आवरणों का शमन होता है।
  22. प्रतिदिन लहसुन के कल्क तथा स्वरस से सिद्ध तैल का सेवन करने से दुर्निवार्य वात रोग में भी शीघ्र लाभ मिलता है।
  23. अर्दित-लहसुन कल्क (1-2 ग्राम) को तैल तथा घृत के साथ सेवन करने से अर्दित (मुख का लकवा) रोग में लाभ होता है।
  24. वातव्याधि-लहसुन के कल्क (1-2 ग्राम) को तिल तैल तथा सेंधानमक के साथ खाने से सम्पूर्ण वातरोगों तथा विषमज्वर का शमन होता है। 7 दिन तक प्रतिदिन बढ़ाते हुए लहसुन कल्क को दूध, तैल, घी अथवा चावल आदि के साथ खाने से वातजन्य विकार, विषमज्वर, गुल्म, प्लीहा, शूल, शुक्रदोष आदि रोगों का शमन होता है। शीतकाल में अग्नि एवं बल के अनुसार लहसुन का सेवन अन्न निर्मित भोज्य पदार्थों के साथ करना चाहिए।
  25. हनुस्तम्भ-(रसोनवटक) उड़द की दाल को लहसुन के साथ पीसकर, सेंधानमक, अदरख कल्क तथा हींग चूर्ण मिलाकर, तिल तैल में उसका वटक छान कर खाने से हनुस्तम्भ (गर्दन का जकड़ना) में लाभ होता है।
  26. प्रतिदिन प्रात काल लहसुन (1-2 ग्राम) कल्क में सेंधानमक तथा तिल तैल मिलाकर खाने से हनुग्रह (गर्दन का जकड़ना) में लाभ होता है।
  27. लहसुन, सोंठ तथा र्निगुण्डी के क्वाथ (10-15 मिली) का सेवन करने से आम का पाचन होकर आमवात में लाभ होता है।
  28. जल के अनुपान से 2-4 ग्राम रसोन कल्क का सेवन करने से आमवात (लकवा) सर्वांगवात, एकांगवात, अपस्मार, मंदाग्नि, विष, उन्माद (पागलपन), भग्न, शूल (दर्द) आदि रोगों में लाभ होता है।
  29. स्नायुशूल-रसोन स्वरस में लवण मिलाकर लेप करने से स्नायुशूल तथा मोच में लाभ होता है।
  30. वात विकार-लहसुन को तैल में पकाकर, छानकर मालिश करने से वात विकारों का शमन होता है।
  31. आमवात-लहसुन के 5 मिली स्वरस में 5 मिली घृत मिलाकर पिलाने से आमवात में लाभ होता है।
  32. व्रणकृमि-व्रण में कृमि पड़ गए हों तो लहसुन के सूक्ष्म कल्क को व्रण (घाव) पर लेप करने से कृमि नष्ट होते हैं।
  33. विद्रधि-लहसुन को पीसकर लगाने से पिडका (फून्सी) तथा विद्रधि का शमन होता है।
  34. त्वचारोग-लहसुन को पीसकर व्रण, शोथ, विद्रधि तथा फून्सियों में लगाने से लाभ होता है।
  35. त्वचा विकार-लहसुन को राई के तैल में पकाकर छानकर तैल की मालिश करने से त्वचा-विकारों का शमन होता है।
  36. विषमज्वर (मलेरिया)-भोजन से पूर्व लहसुन कल्क में तिल तैल मिलाकर खाने के पश्चात्, मेदवर्धक आहार का सेवन करने से विषमज्वर (मलेरिया) में लाभ होता है।
  37. प्रतिदिन प्रातकाल 1-2 ग्राम लहसुन कल्क में घी मिला कर सेवन करने से वातविकारों का शमन होता है।
  38. ज्वर-शीत तथा कम्पयुक्त-ज्वर में लहसुन का प्रयोग प्रशस्त होता है।
  39. रसायन-एक वर्ष तक प्रतिदिन 1 ग्राम लहसुन में 5 ग्राम घी तथा थोड़ा मधु मिलाकर, खाकर, अनुपान में दूध पीने से शरीर सम्पूर्ण रोगों से मुक्त होकर दीर्घायु होता है। इस अवधि में आहार में चावल तथा दूध का प्रयोग करना चाहिए।
  40. समभाग लहसुन कल्क एवं घी को मिलाकर, दस दिन तक रखकर सेवन करने से रसायन गुण की प्राप्ति तथा व्याधियों का शमन होता है।
  41. वृश्चिक विष-लहसुन को अमचूर के साथ पीसकर वृश्चिक दंशस्थान पर लगाने से दंशजन्य-विषाक्त प्रभावों का शमन होता है।

प्रयोज्याङ्ग  :शल्ककंद कलिका तथा फल।

मात्रा  :कल्क 2-4 ग्राम। क्वाथ 10-15 मिली। चिकित्सक के परामर्शानुसार।

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आचार्य श्री बालकृष्ण

आचार्य बालकृष्ण, आयुर्वेदिक विशेषज्ञ और पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्तंभ हैं। चार्य बालकृष्ण जी एक प्रसिद्ध विद्वान और एक महान गुरु है, जिनके मार्गदर्शन और नेतृत्व में आयुर्वेदिक उपचार और अनुसंधान ने नए आयामों को छूआ है।

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