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सदियों से आयुर्वेद में काश का प्रयोग औषधी के रूप में किया जाता रहा है। काश के इतने अनगिनत औषधीय गुण होते जिससे बवासीर, मूत्र संबंधी बीमारी से लेकर त्वचा संबंधी बीमारी जैसे कई बीमारियों के इलाज में इसका उपयोग किया जाता रहा है। चलिये इसके गुणों और फायदों के बारे में आगे विस्तार से जानते हैं
चरक, सुश्रुत आदि प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में काश का वर्णन प्राप्त होता है। इसका प्रयोग प्राचीनकाल से ही औषधि के रूप में किया जाता रहा है। कास का प्रयोग मूल रूप से त्वचा संबंधी समस्याओं में ज्यादा किया जाता है। इसका फूल सफेद रंग का होता है।
कास का वानास्पतिक नाम Saccharum spontaneum Linn.(सैकेरम स्पॉन्टेनियम)
Syn-Saccharum caducum Tausch है। कास Poaceae (पोऐसी) कुल का है। कास को अंग्रेजी में Thatch Grass (थैच ग्रास) कहते हैं, लेकिन भारत के विभिन्न प्रांतों में कास को दूसरे नामों से पुकारा जाता है, जैसे-
Kash in-
Sanskrit-काश, कासेक्षु, इक्षुरस, इक्ष्वालिका, इक्षुगन्धा, पोटगल, क्षुरपत्र, श्वेतचामर;
Hindi-कास, कांसी, कांस घास, कागरा, कुस;
Odia-इंकोरो(Inkoro), कासो (Kaso);
Kannada-कासलु (Kasalu),मुतुलहुल्लु(Mutullahullu),होडाकेहुल्लु(Hodakehullu);
Gujrati-कांसडो(Kansdo), कांस (Kans);
Tamil-नाणलू (Nanalu), कुचम (Kucham);
Telegu-रेलुगड्डी (Rellugaddi), रसलामू (Rasalamu);
Bengali-केशे (Keshe), कागरा (Kagara);
Nepali-कास (Kasa);
Punjabi-काहि (Kahi), कांह (Kanh), कांस (Kans);
Marathi-कसई (Kasai), कागरा (Kagara);
Malayalam-नान्नना (Nannana)।
कास प्रकृति से मधुर, कड़वा, शीत, स्निग्ध, सर, वात और पित्त कम करने वाला, कमजोरी दूर करने वाला, खाने में रूची बढ़ाने वाला, जलन कम करने वाला, मूत्रविरेचनीय (मूत्र को अधिक मात्रा में निकालने वाला) तथा स्तन्यजनन होता है।
कुश का पौधा मूत्र संबंधी समस्याएं, पथरी, जलन, घाव,रक्तदोष, वात संबंधी बीमारियों, मूत्राघात जन्य दर्द, ग्लूकोज, पित्तरोग, रक्तपित्त, श्रम तथा सूजन में फायदेमंद होता है।
कास की मूल या जड़ मधुर, मृदुकारी, शीतल, मूत्रल, पथरी के इलाज, सेक्स करने की इच्छा बढ़ाने में सहायक, बलकारक, स्तन्यवर्धक, अजीर्ण या खाने की इच्छा बढ़ाने में मददगार, अर्श या पाइल्स, क्षयरोग या टीबी रोग, प्रवाहिका, मूत्राश्मरी, आँख संबंधी समस्या, स्तन्यनाश, मूत्रकृच्छ्र, मूत्रदाह तथा सामान्य दौर्बल्य में लाभप्रद है।
कास का पञ्चाङ्ग तथा जड़ वमन, मानस-विकार, सांस संबंधी समस्या, रक्त की कमी तथा मोटापा कम करने वाला होता है।
कास किन-किन बीमारियों के लिए कैसे फायदेमंद होता है,चलिये इस बारे में विस्तार से जानने के लिए आगे बढ़ते हैं-
काश के जड़ का औषधीय गुण त्वचा संबंधी विभिन्न समस्याओं के लिए लाभकारी होता है। इसको पीसकर लगाने से दाद, कण्डू, सूजन संबंधी रोगों से छुटकारा मिलता है।
कास के जड़ को पीसकर कल्क या पेस्ट बनायें। इस कल्क या पेस्ट को 1-2 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से अजीर्ण या खाने की रूची बढ़ाने में मदद मिलती है।
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रक्तार्श में यदि अधिक ब्लीडिंग तथा क्लेद हो तो समान मात्रा में मुलेठी, खस, पद्माख, रक्तचन्दन, कुश तथा काश के सुखोष्ण काढ़े का सेवन करने से लाभ होता है।
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अगर मूत्र संबंधी समस्या से परेशान हैं तो कास का इस तरह से उपयोग करने में लाभ मिलता है-
-शतावर, काश, कुश, गोक्षुर, विदारी कन्द, शालीधान्य, इक्षु तथा कशेरु को समान मात्रा में लेकर 8 ग्राम जल में पका कर काढ़ा बना लें। इस प्रकार बनाये हुए 10-20 मिली काढ़े में मधु तथा शर्करा मिलाकर पीने से पैत्तिक मूत्रकृच्छ्र में अतिशय लाभ होता है।
-तृण पञ्चमूल (कुश, काश, शर, दर्भ, इक्षु) से सिद्ध 100-200 मिली दूध का सेवन करने से मूत्रमार्गगत रक्तस्राव का स्तम्भन होता है।
-नल, कुश, काश, अश्मभेद आदि वीरतर्वादि गण की औषधियों को समान मात्रा में लेकर काढ़ा बनाकर 10-20 मिली मात्रा में सेवन करने से वातविकार, अश्मरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र तथा मूत्राघात से होने वाले दर्द से राहत मिलता है।
-काश मूल का काढ़ा बनाकर, 10-20 मिली काढ़े में शहद मिलाकर देने से मूत्रकृच्छ्र तथा मूत्राश्मरी में लाभ होता है।
-काश की जड़ तथा समान मात्रा में गोखरू की जड़ को मिलाकर काढ़ा बना लें। 10-20 मिली काढ़े में मिश्री मिलाकर पीने से मूत्रकृच्छ्र में लाभ होता है।
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अगर अल्सर का घाव पुराना हो गया है और भरने का नाम ही नहीं ले रहा है तो काश के जड़ का काढ़ा बनाकर घाव को धोने से घाव जल्दी भरता है।
काश, विदारीकन्द, इक्षु तथा कुश जड़ का काढ़ा बनाकर, उसके काढ़े से घी अथवा दूध का पाक करके सेवन करने से अपस्मार या मिर्गी में लाभ हाता है।
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नल के जड़, कुश के जड़, काश के जड़ आदि कषाय रस प्रधान एवं शीत वीर्य वाले पौधों का काढ़ा बनाकर 10-20 मिली मात्रा में सेवन करने से रक्तपित्त में लाभ होता है।
दर्भ, काश, ईख की जड़, शर और शालिधान को समान मात्रा में लें और उसमें 8 ग्राम जल मिलायें। इनसे जो काढ़ा बनाता है उनका 10-20 मिली मात्रा में सेवन करने से बढ़ा हुआ पित्त कम हो जाता है।
अगर मौसम के बदलने के कारण बुखार आता है तो काश के जड़ का काढ़ा बनाकर 10-30 मिली मात्रा में पीने से बुखार तथा स्नान करने से जलन कम होने में मदद मिलती है।
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आयुर्वेद के अनुसार कास के औषधीय गुण में इसके जड़ तथा पञ्चाङ्ग का प्रयोग सबसे ज्यादा मिलता है।
चिकित्सक के परामर्श के अनुसार 10-30 मिली कास के काढ़े का सेवन कर सकते हैं।
समस्त भारत में 1300-2000 मी की ऊँचाई तक प्राय: हिमालयी क्षेत्रों में तथा अन्य प्रदेशों में खेतों के किनारे या बंजर भूमि में अधिकता से प्राप्त होता है। ग्रामीण लोग इसका प्रयोग घरों की छप्पर बनाने के लिए करते है।
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