वानस्पतिक नाम : Phyla nodiflora (Linn.) Greene (फाइला नोडीफ्लोरा)
Syn-Lippia nodiflora (Linn.) Mich.
कुल : Verbenaceae (वर्बीनेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Purple lippia (पर्पल लिप्पिया)
संस्कृत-जलपिप्पली, शारदी, शकुलादनी, मत्स्यादनी, मत्स्यगन्धा; हिन्दी-जलपीपल, लुन्ड्रा, भुईओकरा, बुक्कनबूटी; उड़िया-बुक्कम (Bukkam), विषायन (Visayan); कोंकणी – अदली (Adali); कन्नड़-नेरूपिप्पली (Neerupippali); गुजराती-रतोलिया (Ratoliya), रतुलियो (Ratuliyo); तमिल-पोडुकेली (Podukeli), पोडुटलई (Podutalei); तेलुगु-बोकेनाकु (Bokenaku), बोकन्ना (Bokkena); नेपाली-जलपिप्पली (Jalapippali), एकामर (Aikamar); पंजाबी-बकन (Bakan), बुकन (Bukan), जलनीम (Jalnim); मराठी-रतोलिया (Ratoliya), जलपिम्पली (Jalapimpali); मलयालम-कट्टुट्टीप्पली (Kattuttippali); मणिपुरी-चिन्गलेन्गबी (Chinglengbi)।
अंग्रेजी-फ्रोंग फ्रैट (Frog fruit), केप बीड (Cape weed); फारसी-बुक्कुन (Bukkun)।
परिचय
यह विश्व में श्रीलंका, बलुचिस्तान, अफ्राप्का एवं अन्य देशों में उष्णकटिबंधीय एवं उपउष्णकटिबंधीय भागों में प्राप्त होता है। यह भारत में विशेषत दक्षिण के प्रान्तों में तथा सीलोन में, आर्द्र एवं जलासन्न रेतीली भूमि में उत्पन्न होती है। यह वर्षाकाल में अधिक फैलती है। काश्मीर की जलपीपली सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। कई विद्वान् जलपिप्पली को महाराष्ट्री कहते हैं, परन्तु यह महाराष्ट्री से बिल्कुल भिन्न वनस्पति है। इसके फल मछलियों के लिए अत्यन्त विषाक्त होते हैं।
यह 15-30 सेमी ऊँचा, बहुशाखित, वर्षायु, मछली के गन्ध जैसी गन्धयुक्त, आरोही शाकीय पौधा होता है। इसका काण्ड गोल, हरित-पीताभ, रेखांकित, चिकने, श्वेत रोमयुक्त तथा पर्व मूलयुक्त होता है। शाखाएँ लगभग चतुष्कोणीय, तथा भूमि पर फैली हुई होती हैं। इसके पत्र अभिमुख 2-3.2 सेमी लम्बे, 1-2 सेमी चौड़े, लगभग वृन्तहीन, नोंकदार, निम्न भाग में संकरे, ऊपर की ओर चौड़े, दोनों पृष्ठों पर रोमश तथा किनारों पर दंतुर होते हैं। इसके पुष्प बहुत छोटे, वृंतहीन, श्वेत अथवा पाण्डुर गुलाबी अथवा गुलाबी-बैंगनी वर्ण के होते हैं। ये पुष्प ही बाद में फल रूप में परिवर्तित होकर छोटी पिप्पली जैसे दिखाई देते हैं। इसके फल लम्ब गोलाकार, 1.5-2 मिमी व्यास के, लगभग शुष्क तथा छोटी पिप्पली जैसे ऊपर को उभरे हुए तथा एक बीज युक्त होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल सितम्बर से दिसम्बर तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
जलपिप्पली कटु, तिक्त, कषाय, शीत, लघु, रूक्ष, तीक्ष्ण, कफ पित्तशामक तथा वातकारक होती है।
जलपिप्पली हृद्य, चक्षुष्य, शुक्रल, संग्राही, अग्निदीपक, रुचिकारक, मुखशोधक तथा पारद के विकारों का शमन करने वाली होती है।
यह दाह, व्रण, पित्तातिसार, श्वास, तृष्णा, विष, भम, मूर्च्छा, कृमि, ज्वर तथा नेत्ररोगशामक होती है।
जलपिप्पली प्रशामक, मूत्रल, स्तम्भक, कामोत्तेजक, क्षतिविरोहक, उदरसक्रियतावर्धक, कृमिरोधी, ज्वरहर, वाजीकारक, शीतलताकारक, पूयजनन तथा विषनाशक है।
जलपिप्पली हृदय रोग, रक्तविकार, नेत्र रोग, तमकश्वास, श्वसन-नलिका-शोथ, पिपासा, मूर्च्छा, व्रण, ज्वर, प्रतिश्याय, विबन्ध, जानुशूल तथा मूत्राघात शामक होता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग अथवा पत्र।
मात्रा : 10-20 मिली या चिकित्सक के परामर्शानुसार।
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