वानस्पतिक नाम : Luffa cylindrica (Linn.) M. Roemer (लूफा सिलिन्ड्रिका)
Syn-Luffa aegyptiaca Mill. ex Hook. f.
कुल : Cucurbitaceae (कुकुरबिटेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Sponge gourd (स्पन्ज गुऍर्ड)
संस्कृत-नेनुआ, धार्मागव, महाजालिनी, महाकोशातकी, राजकोशातकी, हस्तिघोषा, महाफला, घोषक तथा हस्तिपर्ण; हिन्दी-नेनुआ, बड़ी तोरई, घिया तोरई; उर्दू-तूरी (Turi); उत्तराखण्ड-तरोद (Tarod); कन्नड़-तुप्पाहिरेकई (Tuppahirekai),
अरहिरेतुप्पिरी (Arhiretuppiri); कोंकणी-पोरगोन्साली (Porgonsali); गुजराती-गुलका (Gulka), तुरई (Turai); तमिल-मोसुकु (Mosuku), पिरकन्कई (Pirkankai); तेलुगु-गुथीबिरा (Guthibira), नुनेविरा (Nunebira); बंगाली-धुन्दुल (Dhundal), हस्तीघोषा (Hastighosha); नेपाली-घिरौंला (Ghironla), पालो (Palo); पंजाबी-घीतुरई (Ghiturai); मलयालम-कटुपीछल (Kattupeechal); मराठी-धाधाघोसाली (Dhadhaghosali), परोशी (Paroshi)।
अंग्रजी-वेजीटेबल स्पन्ज गोर्ड (Vegetable sponge gourd), स्मूथ लूफा (Smooth luffa); अरबी-लूफा (Luffa); फारसी-खुजार (Khujar), खियार (Khiyar)।
परिचय
लम्बी, विस्तार से फैलने वाली, आरोही, शाकीय लता होती है।समस्त भारत में इसका प्रयोग शाक के रूप में किया जाता है। चरक, सुश्रुत आदि संहिताओं में वामक तथा ऊर्ध्वभागहर द्रव्यों में इसकी गणना की गई है। भारत में मुख्यत गुजरात, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, आंध्र-प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल एवं असम में इसकी खेती की जाती है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
नेनुआ मधुर, गुरु, स्निग्ध, वातपित्त शामक; कफकारक, सारक शोषघ्न, जन्तुघ्न तथा कर्कटार्बुदरोधी होता है, यह गुल्मोदर, कास, श्लेष्माशय स्थित वात, कण्ठ तथा मुख प्रदेश में कफ के दूषित हो जाने पर, कफ जन्य विकारों तथा रक्तपित्त तथा स्थिर एवं गुरु रोगों में लाभप्रद होता है।
नेनुआ का फल शीतल, मूत्रल, मृदुकारी, शोधक, विरेचक, कफनिस्सारक, बलकारक, वातानुलोमक, कृमिघ्न तथा स्तन्यवर्धक होता है।
नेनुआ बीज वामक, विरेचक तथा तिक्त होते हैं।
औषधीय प्रयोग, मात्रा एवं विधि
- अभिष्यंद-नेनुआ के ताजे पत्र-स्वरस को नेत्र में अंजन करने से नेत्राभिष्यंद (आँख का आना) में लाभ होता है।
- काण्ड से प्राप्त 125 मिग्रा शुद्ध सार को शहद के साथ मिलाकर सेवन करने से श्वसनतंत्रगत-विकारों में लाभ होता है।
- हृदय रोग-घियातोरई के 1-2 ग्राम फल चूर्ण को शहद के साथ सेवन करने से हृद्रोगों में लाभ होता है।
- हृद्दाह-जीवक, ऋषभक, क्षीरकाकोली, केवाँच बीज, शतावरी, काकोली, श्रावणी, मेदा, महामेदा, धामार्गव अथवा मुलेठी, किसी भी एक के सूक्ष्म चूर्ण (1-2 ग्राम) को मधु तथा शर्करा के साथ सेवन कर गुनगुने जल का अनुपान लेने से हृदयगत दाह तथा कास रोग का निवारण होता है।
- ग्रन्थि (बद गांठ)-घियातोरई के फल अथवा पत्र-स्वरस में गुड़, सिंदूर और थोड़ा चूना मिलाकर लेप करने से बद गांठ बैठ जाती है या घिया तोरई के फूलों को पीसकर गांठ में लगाने से लाभ होता है।
- कुष्ठ-नेनुआ के प्रतान तथा फल से निर्मित कल्क अथवा नेनुआ पत्र कल्क को लहसुन के साथ पीसकर लगाने से कुष्ठ में लाभ होता है।
- त्वक्-विकार-नेनुआ बीज तैल को लगाने से त्वक्-विकारों में लाभ होता है।
- मानस रोग-जाति (चमेली), मालती, हल्दी, चोरक आदि किसी एक के 20-40 मिली क्वाथ में 10-20 ग्राम घियातोरई कल्क मिलाकर पीने से सम्यक् वमन होकर मानस रोगों में लाभ प्राप्त होता है।
- शोथ-घियातोरई के पत्र-स्वरस में गोमूत्र मिलाकर शोथयुक्त स्थान पर लगाने से शोथ का शमन होता है।
- विष-चिकित्सा-5-10 ग्राम नेनुआ फल कल्क को धनिया तथा तुम्बुरु के यूष के साथ सेवन करने से विषजनित-विकारों में लाभ होता है।
प्रयोज्याङ्ग : फल, बीज, पत्र तथा बीज तैल।
मात्रा : स्वरस 10-20 मिली।
नोट :
इसके बीज तैल का प्रयोग जैतून तैल के प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है।
इसका सेवन अत्यधिक मात्रा में करने पर यह आध्मानकारक तथा वामक होती है।