वानस्पतिक नाम : Euphorbia hirta Linn. (यूफॉर्बिया हिरटा)
कुल : Euphorbiaceae (यूफॉर्बिएसी)
अंग्रेज़ी नाम : Thyme leaved spurge (थाईम लीव्ड स्पर्ज)
संस्कृत-दुग्धिका, विक्षीरिणी, स्वादुपर्णी, क्षीरा; हिन्दी-दूधी, दुग्धी, बड़ी दुद्धी; उड़िया-खीरसाग (Kheersag); कन्नड़-अच्छेगीडा (Achchegeeda), करिहाल्सोप्पु (Karihalsoppu); गुजराती-नागला (Nagala), दुधेली (Dudheli); तमिल-अमुमपटचयरीस्सी (Amumpatchayarissi), सिभपलादि दुद्धी (Sibhpaladi dudhi); तेलुगु-पेडडवारि (Pedadvari), बीडेरी (Bidarie); बंगाली-बरा (Bara), बुराकेरु (Burakeru); नेपाली-हुतलो (Hutelo); पंजाबी-दोधक (Dodhak), हजारदाना (Hajardana); मराठी-मोथी नायटी (Mothi nayati), दुदली (Dudali); मलयालम-नेलापलाई (Nelapalai), नीलाप्पला (Nilappala)। अंग्रेजी-एस्थमा हर्ब (Asthma herb), अस्थमा वीड (Asthma weed), पिल-बियरिंग स्पर्ज (Pill-bearing spurge ), स्नेक वीड (Snake weed); फारसी-शीरक (Shirak)।
परिचय
यह समस्त भारत के उष्ण प्रदेशों में सड़कों के किनारों तथा बेकार पड़ी भूमि पर पाई जाती है।
यह 15-50 सेमी तक ऊँचा, सीधा अथवा भूस्तारी, तनु, विसरित, पीताभ दृढ़ रोमयुक्त, वर्षायु शाकीय पौधा होता है। इसकी शाखाएँ प्राय
चतुष्कोणीय, गोलाकार, पीतवर्णी घन रोमों से आवरित होती हैं। इसके पत्र सरल, विपरीत, 1.3-3.8 सेमी लम्बे, भालाकार, ऊर्ध्व-पृष्ठ पर हरित वर्ण के, अधपृष्ठ पर पाण्डुर, तीक्ष्ण अथवा गोलाकार होते हैं। इसके पुष्प हरिताभ-पीत वर्ण के छोटे होते हैं। इसकी फली 1.25 मिमी व्यास की, त्रिखण्डीय होती हैं। बीज 0.8 मिमी लम्बे, हल्के, रक्ताभ-भूरे वर्ण के, अनुप्रस्थ दिशा में झुर्रीदार, अण्डाकार-त्रिकोणीय होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल वर्ष पर्यंत मुख्यत अगस्त से नवम्बर तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
बड़ी दुद्धी कटु, तिक्त, मधुर, उष्ण, गुरु, रूक्ष, तीक्ष्ण कुशामक तथा वातकारक होती है।
यह विष्टम्भी, वृष्य, रूचिकारक, रसायन, हृद्य, मलस्तम्भक, मूत्र प्रवर्त्तक, शुक्रल, गर्भकारक तथा धातुवृद्धिकारक होती है।
यह कुष्ठ, कृमि, विष, व्रण, प्रमेह तथा अतिसार नाशक है।
इसके सार में ग्राम ऋणात्मक (Gram negative) तथा ग्राम धनात्मक (Gram postitive) जीवाणुओं के प्रति प्रतिरोधक गुण पाया जाता है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
- सिर की गंज (खालित्य)-सफेद बालों को उखाड़कर, बालों के मूल में, दूध से पीसी हुई दुग्धिका कल्क को लगाने से सिर की गंज मिटती है।
- शिर शूल-इसके आक्षीर को मस्तक में लगाने से शिरशूल का शमन होता है तथा मुँह पर लगाने से मुहासे तथा दाद पर लगाने से दाद का शमन होता है।
- नेत्रविकार-बड़ी दुग्धिका के 1-2 बूंद स्वरस को आंखों में डालने से नेत्रविकारों में लाभ होता है।
- दंतरोग-दुद्धी मूल को चबाने तथा मुख में धारण करने से दंत रोगों में अत्यन्त लाभ होता है तथा दांत की वेदना का शमन होता है।
- तोतलापन-1-2 ग्राम दुग्धिका चूर्ण को पान में रखकर चूसने से तोतलापन मिटता है।
- श्वासकष्ट-बड़ी दुग्धिका का क्वाथ बनाकर 10-20 मिली मात्रा में पीने से श्वासकष्ट (दमा) तथा जीर्ण श्वसनी संक्रमण में लाभ होता है।
- फुफ्फुस-शोथ-दुग्धिका के पत्रों का क्वाथ बनाकर 5-10 मिली मात्रा में प्रयोग करने से फुफ्फुस शोथ में लाभ होता है।
- प्रवाहिका-दुग्धिका को चावल में पकाकर तैल मिलाकर चावल के साथ खाने से रक्तज-प्रवाहिका (रक्तयुक्त पेचिश) में लाभ होता है।
- रक्तार्श-2-3 ग्राम छोटी कटेरी तथा दुग्धिका कल्क से विधि पूर्वक पकाए हुए घृत को 5 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से रक्तार्श में लाभ होता है।
- अतिमूत्रता-1 ग्राम बड़ी दुग्धिका मूल में 5 ग्राम गुड़ तथा 500 मिग्रा जीरक चूर्ण मिलाकर सेवन करने से अतिमूत्रता में लाभ होता है।
- श्वेतप्रदर-1-2 ग्राम दुग्धिका पत्र कल्क में मधु मिलाकर सेवन करने से श्वेत प्रदर में लाभ होता है।
- पूयमेह-1-2 ग्राम दुग्धिका मूल चूर्ण का सेवन करने से फिरंग, सूजाक तथा अन्य मूत्र विकारों में लाभ होता है।
- कामशक्तिवर्धनार्थ-दुग्धिका पञ्चाङ्ग को छाया में सुखाकर पीसकर 1-2 ग्राम चूर्ण में शर्करा मिलाकर खाने से कामशक्ति बढ़ती है।
- दद्नु-दुग्धिका स्वरस को दद्रु में लगाने से लाभ होता है।
- विस्फोट-समभाग करञ्ज बीज, तिल तथा सरसों के कल्क में दुग्धिका कल्क मिलाकर लेप करने से विस्फोट रोग का शमन होता है।
- दुग्धिका कल्क में लवण मिलाकर लगाने से रोमकूपशोथ में लाभ होता है।
- पञ्चाङ्ग को पीसकर लेप करने से घाव, विद्रधि, सूजन तथा ग्रंथिशोथ में लाभ होता है।
- शल्य निक्रमणार्थ-जिस जगह पर कांटा चुभ गया हो तथा निकल ना रहा हो तो उस जगह पर दुग्धिका का आक्षीर लगाने से कांटा निकल जाता है।
- सर्पविष-दुग्धिका के 5 ग्राम पत्तों में 2 ग्राम काली मिर्च मिलाकर पीसकर खाने से सर्पविष जन्य विषाक्त प्रभावों का शमन होता है।
विशेष :बड़ी दुग्धिका का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए। इसको अत्यधिक मात्रा में लेने से यह श्वासोच्छ्वास तथा हृदय की क्रिया को मंद कर देती है।
आमाशय में इससे स्थानिक क्षोभ उत्पन्न होकर अत्यधिक मात्रा में उत्क्लेश एवं वमन होता है। इसलिए इसका प्रयोग भोजनोपरान्त अधिक जल के साथ थोड़ी-थोड़ी मात्रा में करना चाहिए।
हानि :इसका अधिक प्रयोग हृदय के लिए हानिकारक है।
प्रयोज्याङ्ग :पञ्चाङ्ग, पत्र, बीज, मूल।
मात्रा :कल्क 1-2 ग्राम या चिकित्सक के परामर्शानुसार।