सामान्य परिचय
आयुर्वेद शात्र में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इन चारों को ’पुरुषार्थ-चतुष्टय‘ कहा गया है। अर्थात् ये चार मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य या प्रयोजन हैं। इनमें आरम्भिक तीन को क्रमशः प्राप्त करते हुए मनुष्य को अंतिम ध्येय ’मोक्ष‘ की प्राप्ति होती है। इस पुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति हेतु मनुष्य का स्वस्थ रहना अत्यावश्यक है। इसलिये आयुर्वेद में आरोग्य को धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का मूल स्वीकार करते हुए ’स्वास्थ्य-रक्षण‘ को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है।
धर्म, अर्थ एवं काम, इन तीनों में सन्ततिक्रम की निरन्तरता एवं रतिसुख की दृष्टि से काम का महत्त्व स्वीकार किया गया है। इस जगत् को ’अग्निषोमात्मकम्‘ कहा गया है। ’अग्नि‘ अर्थात् पुरुष तथा ’सोम‘ अर्थात् स्त्री के परस्पर संयोग से ही जगत् की उत्पत्ति हुई है तथा अक्षुण्ण जीवन की परम्परा इसी आधार पर टिकी है। इसी कारण आचार्यों ने सृष्टि में ’काम‘ के महत्त्व को स्वीकार करते हुए ’वाजीकरण तंत्र‘ का वर्णन किया है तथा आयुर्वेद के आठ अंगों में एक स्वतत्र अंग के रूप में इसे मान्यता दी गई है।
वाजीकरण तंत्र का वर्णन करते हुए आचार्यों ने इसके मुख्य प्रयोजन इस प्रकार बताए हैं-
वर्तमान युग में रहन-सहन एवं खान-पान के बदलते परिवेश तथा परिवर्तित मानवीय मूल्यों के कारण मैथुन एवं संतानोत्पादन की क्षमता के सम्बन्ध में अनेक कठिनाईयाँ नित्य-प्रति सामने आ रही हैं। इस कठिन समय में आयुर्वेद की यह विशिष्ट चिकित्सा-विधा मानव के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
वर्तमान समय में ’वाजीकरण‘ को आधुनिक वैज्ञानिक मापदंडों के आधार पर पुनःस्थापित करने की आवश्यकता है।
परिभाषा
’वाज‘ शब्द का अर्थ ’बल‘ भी है, जिस उपाय से वाज अर्थात् बल की वृद्धि व शुक्रपुष्टि होती है तथा मैथुन क्षमता व प्रजननशक्ति बढ़ती है, उसे वाजीकरण कहते हैं।
वाजीकरण द्रव्यों के भेद
वाजीकरण-चिकित्सा में औषधि आहार एवं विहार, इन तीनों का ग्रहण किया गया है। प्रयोगभेद से वाजीकरण औषधि/द्रव्यों के तीन भेद किऐ जा सकते हैं-
शुक्रजनन द्रव्य शरीर में शुक्र की स्वाभाविक उत्पत्ति को बढ़ाते हैं परन्तु यह शुक्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति पर कोई प्रभाव नहीं डालते।
(1) शुक्रजनन आहार- घृत, दुग्ध, बादाम आदि।
(2) शुक्रजनन विहार- प्रसन्नता, सम्यक् निद्रा आदि।
(3) शुक्रजनन औषधि- शतावरी, मूसली, बला, जीवनीय गण आदि।
शुक्रप्रवर्तक द्रव्य शरीर में शुक्रोत्पत्ति प्रक्रिया पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं अपितु शुक्रप्रवृत्ति को बढ़ाते हैं अर्थात् प्रहर्षण (उत्तेजना) प्रदान करते हैं। इन द्रव्यों में प्रायः व्यवायी, विकासी, उष्ण, तीक्ष्ण व सर गुण प्रधान विशेष रूप से होते हैं। इनका दीर्घ काल तक सेवन नहीं करना चाहिए।
(1) शुक्रप्रवर्तक आहार- उड़द व दूध आदि।
(2) शुक्रप्रवर्तक विहार- स्त्री-संस्मरण आदि।
(3) शुक्रप्रवर्तक औषधि- अकरकरा, कौंच बीज आदि।
शुक्रजनन प्रवर्तक द्रव्य शरीर में शुक्र की उत्पत्ति बढ़ाने के साथ-साथ उसकी प्रवृत्ति भी बढ़ाने का कार्य करते हैं अर्थात् इनमें प्रहर्षण/उत्तेजक गुण भी विद्यमान रहते हैं। ये प्रायः उष्णवीर्य द्रव्य होते हैं एवं लघु, सर, सूक्ष्म, पिच्छिल, व्यवायी व विकाशी गुण युक्त होते हैं।
(1) शुक्रजनन प्रवर्तक आहार- औषधि-सिद्ध क्षीर यथा अश्वगंधा क्षीरपाक, चावल, दुग्ध व सुंधित द्रव्यों से सिद्ध खीर आदि।
(2) शुक्रजनन प्रवर्तक विहार- चांदनी रात, नदी तट, रमणीय व पुष्प सज्जित घाटियां, मनोहर-मधुर संगीत आदि।
(3) शुक्रजनन प्रवर्तक औषधि- भांग, कस्तूरी, सालममिश्री, सालमपंजा आदि।
वाजीकरण के अयोग्य पुरुष-
आचार्य चरक के अनुसार वाजीकरण का सेवन बिना किसी विशेष रोग के विवाह पूर्व नहीं करना चाहिए, सामान्यतया 16 वर्ष की आयु के पश्चात् एवं 70 वर्ष की आयु से पूर्व ही वाजीकरण का उपयोग कराना चाहिए।
बाल्यावस्था या किशोरावस्था में वाजीकरण का सेवन नहीं कराना चाहिए। यदि इस अवस्था में बालक व किशोर मैथुनादि क्रियाओं में प्रवृत्त होता है तो वह उसी प्रकार क्षीण होकर शुष्क हो जाता है, जैसे- थोड़े पानी वाला तालाब।
विवाहित पुरुष और स्त्री को मर्यादित मैथुन करने की स्वीकृति प्राप्त होती है। अविवाहित पुरुष को सामाजिक मर्यादा के कारण मैथुन करने की अनुमति नहीं होती है। इसीलिए आयुर्वेद के अनुसार उनके लिए वाजीकरण का विधान नहीं है।
अजितेद्रिय, चञ्चलचित्त, इंद्रिय-विषयों में अत्यधिक लिप्त, हमेशा वासनात्मक विचारों से घिरे रहने वाले एवं जिनकी कामवासना अति प्रबल हो, ऐसे व्यसनी पुरुषों को भी वाजीकरण का सेवन नहीं कराना चाहिए।
गुप्त रोग यथा गोनोरिया, एड्स, सिफिलिस आदि से पीड़ित व्यक्ति को रोगमुक्ति के बिना वाजीकरण का प्रयोग नहीं कराना चाहिए, क्योंकि ये व्यक्ति गुप्त रोगों का संक्रमण अपनी जीवन-संगिनी में भी कर सकते हैं।
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