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AUTHENTIC, READABLE, TRUSTED, HOLISTIC INFORMATION IN AYURVEDA AND YOGA

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आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के मुख्य लक्ष्य

यह निर्विवादित सत्य है कि आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा विधाएं हैं। ये विशुद्ध-रूप से भारतीय ऋषियों की देन हैं तथा ’सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा‘  (यजुर्वेद 7.14) के अनुसार पूरे विश्व में प्रथम संस्कृति के रूप में स्वीकार्य हैं। भारतीय मनीषीयों ने विश्व को जीवन के विविध क्षेत्रों में बहुत कुछ दिया है। मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून, राज्य-व्यवस्था के विषय में उनकी देन अतुलनीय व विश्व के लिए अनुकरणीय है। इसी क्रम में व्यक्ति के निर्माण  से लेकर आदर्श परिवार, आदर्श समाज, आदर्श राष्ट्र व आदर्श युग के निर्माण  तक के लिए बहुत ऊँचा  दर्शन व आध्यात्मिक दृष्टिकोण्ा हमारे पूर्वज ऋषि-ऋषिकाओं का रहा है। इसी प्रकार एक आदर्श व पूर्णतः  वैज्ञानिक चिकित्सा-पद्धति भी हमारे ऋषियों की ही देन है। आधुनिक चिकित्सा-पद्धति आयुर्वेद की तुलना में इतनी पुरानी नहीं है। जबकि आयुर्वेद का जन्म वैदिक काल से है। चिकित्सा विज्ञान के मूल आविष्कर्त्ता या प्रणेता ब्रह्मा जी व राजर्षि धन्वन्तरि माने गये हैं। जब हम अपने प्राचीन ऋषियों के बौद्धिक स्तर का मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं तो हमें अत्यन्त हर्ष व आश्चर्य
होता है कि हमारे पूर्वजों का ज्ञान, जीवन व चरित्र कितना उज्ज्वल व महान् था। आज चिकित्सा-िवज्ञानी रोगों के जिन मूल कारण की विवेचना करते हैं, वे सब उन्हें उस समय विदित थे। जैसे कि आज चिकित्सा विज्ञान में सब रोग मूलतः सात कारणों से उत्पन्न माने जाते हैं-

  1. आनुवांशिक रोग (Genetic disease)
  2. जीवाणु  एवं विषाणु जन्य रोग (Bacterial/Viral disease)
  3. पर्यावरणीय  दुष्प्रभाव से उत्पन्न रोग (Envirolnmental disease)
  4. दोषपूर्ण  जीवन शैली एवं तनाव से उत्पन्न रोग (Life style disease)
  5. नशाजन्य रोग
  6. रोग के कारण्ा से रोग अर्थात् बीमारियों के उपद्रव (Complications)
  7. दवाओं के कुप्रभाव से पैदा होने वाले रोग।

इन सब रोगों के निदान व उपचार की पूरी व्यवस्था हमारे ऋषियों को वैदिक-काल में ही विदित थी।

आज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (Modern medical Science) चिकित्सा के सात क्षेत्रों में मुख्य रूप से काम कर रहा है या यूं कहे कि आधुनिक आयुर्विज्ञान के मुख्यतः सात लक्ष्य हैं।

  1. प्राथमिक रोकथाम (Primary prevention)
  2. द्वितीयक रोकथाम (Secondary prevention)
  3. नियंत्रण  (Control)
  4. उपचार (Cure)
  5. रोगों का उग्र अवस्था में उपचार (Acute management)
  6. पुनःस्थापन (Rehabilitation)
  7. शमन चिकित्सा (Palliation)

यदि हम चिकित्सा के इन सातों क्षेत्रों में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एवं परम्परागत योग, आयुर्वेद व प्राकृतिक- चिकित्सा का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इनमें प्राचीन चिकित्सा-पद्धतियाँ बहुत ही श्रेष्ठ हैं।

  1. प्राथमिक रोकथाम (Primary prevention)

इसका लक्ष्य होता है कि लोगों को रोगी होने से बचाया जाए। इसके लिए आधुनिक चिकित्सा-पद्धति में कुछ टीकों का आविष्कार किया है। बचपन से लेकर कुछ विशेष परिस्थितियों में विशेष प्रकार के टीकाकरण्ा व अन्य उपाय अपनाये जाते हैं। यह प्रक्रिया आरोग्य की दृष्टि से 1झ से 2झ तक ही कारगर हो सकती है। जैसे पोलियो, चेचक व हेपेटाईटिस आदि में। पोलियों के ड्रॉप पिलाने पर भी कुछ बच्चों को पोलियो हो रहा है, ऐसे मामले भी सामने आ रहे हैं तथा हेपेटाईटिस के इन्जेक्शन लगाने पर भी लोगों को हेपेटाईटिस हो रहा है। योग-आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा-पद्धति के बारे में हम पहले भी कह चुके हैं कि ये चिकित्सा-पद्धति होने के साथ मूलतः श्रेष्ठ व वैज्ञानिक जीवन पद्धति हैं। आधुनिक चिकित्सा-पद्धति या आधुनिक दवा कभी भी हमारी जीवन पद्धति नहीं हो सकती।

जो व्यक्ति प्रतिदिन योगाभ्यास करता है, आयुर्वेद में बताए गए आँवला, गिलोय, तुलसी, घृतकुमारी व अष्टवर्ग आदि जीवनीय शक्तिदायक जड़ी-बूटियों का सेवन करता है तथा प्राकृतिक जीवनशैली को अपनाता है तो वह रोगी होने से 99झ तक बच सकता है। यह बहुत बड़ी बात है। अतः पूरी दुनिया को अन्ततोगत्वा इसी मार्ग पर ही लौटना पड़ेगा। योग-आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा-पद्धति के अनुरूप जीवन जीने वाले व्यक्ति के शरीर की एक-एक कोशिका (Cell) व पूरा शरीरतंत्र (Complete body system) पूरी तरह नियत्रित व संतुलित रहता है, वह शतायु व दीर्घायु तो होता है, साथ ही वह मृत्युंजयी भी हो सकता है। प्राण्ा अर्थात् ब्रह्म की उपासना या साधना से अथवा यूं कहें कि ब्रह्मचर्य से मृत्यु के भी पार जाने की प्रक्रिया हमारे पूर्वज ऋषियों ने हमें बताई है। शरीर की एक-एक मूल कोशिका, उQतक एवं आन्तरिक अवयवों से लेकर पूरे शरीर-तत्र में हम योग, आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा से क्षरण्ा (Degeneration) को रोकते हैं। एक-एक कोशिका के रिसेप्टर्स (Receptor) व उसके स्टैम्नर जीन्स (Stemner genes), क्रोमोजोम्स (Chromosomes) से लेकर डी.एन.ए. (D.N.A) तक को हम शक्ति, शुद्धि व संतुलन प्रदान कर उसे उसके मूल या स्वाभाविक स्वरूप में सुरक्षित रखते हैं। अतः हम व्यक्ति को डिजनरेशन, लाइफ स्टाईल डिजीज, स्ट्रैस (Stress) व ड्रग एडिक्शन (Drug addiction) आदि से बचाकर सदा स्वस्थ, युवा, उQर्जावान् व पूण्ाZ उत्पादक बनाकर रखते हैं। आयुर्वेद रोग, बुढ़ापा व मृत्यु से बचाने वाली विधा है। आयुर्वेद कहता है-

प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च। (च. सू.- 30.26)

अर्थात् आयुर्वेद का पहला प्रयोजन ही व्यक्ति को रोग से बचाकर रखना है, इसके लिए आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त, ऋतुचर्या व दिनचर्या का विधान किया गया है। जहाँ तक वंशानुगत रोगों का प्रश्न है, हमने जैनेटिक (आनुंशिक) उच्च-रक्तचाप, अस्थमा व गठिया आदि से पीड़ित लोगों को पूण्ाZतः रोगमुक्त किया है तथा जिन लोगों को जैनेटिक रोग होने की संभावना थी, उन लोगों को भी रोगग्रस्त होने से बचाया है। चिकित्सा-िवज्ञान की दृष्टि से यह हमारा बहुत बड़ा अनुभव व उपलब्धि है, दुनियां के लिए यह बहुत बड़ी देन है। इस दिशा में और अधिक अनुंधान करने में यदि सरकार से सहयोग व प्रोत्साहन मिले तो आयुर्वेद को विश्वपटल पर स्थापित किया जा सकता है।

हमारे कहने का तात्पर्य या निष्कर्ष यह है कि प्राइमरी प्रिवेंशन के लिए 80झ से 99झ तक यदि कोई पद्धति कारगर है तो वह है- आयुर्वेद। योग व प्राकृतिक-िचकित्सा, यह सब आयुर्वेद की उपचार-पद्धति का ही हिस्सा है।

द्वितीयक रोकथाम (Secondary prevention)

इसका लक्ष्य होता है कि जिस रोग का आक्रमण एक बार हो गया हो, वह दुबारा न हो, जैसे- एक बार यदि व्यक्ति को हार्ट अटैक (Myocardial infarction) आ गया, पैरालाइसिस हो गया या अस्थमा आदि का अटैक पड़ गया तो इस प्रकार की दवाएं दी जानी चाहिए, जिनसे दुबारा ये समस्याएं न हों। इस लक्ष्य के लिए भी आयुर्वेद अधिक कारगर है। जैसे हम हार्ट अटैक को ही लें, हार्ट अटैक के मुख्य सात कारण्ा हैं- उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हाई कोलेस्ट्रॉल, अधिक वजन, तम्बावूQ आदि नशे का सेवन, शारीरिक श्रम का अभाव तथा वंशानुगत कारण्ा। इन कारण्ााsं का निवारण्ा करने हेतु यद्यपि आधुनिक चिकित्सा-पद्धति में दवाइयाँ देकर कुछ कारण्ााsं को नियत्रित करने का प्रयास किया जाता है। इससे कुछ सीमा तक रोग व उसकी पुनरावृत्ति को रोका जा सकता है, परन्तु आयुर्वेद से इस दिशा में विशेष रूप से दीर्घकालीन अथवा स्थायी सफलता मिल सकती है।

नियत्रण (Control)

इस क्षेत्र में आयुर्वेद से कुछ रोगों के सन्दर्भ में यद्यपि आधुनिक चिकित्सा-पद्धति अधिक कारगर है, जैसे जीवाणु-िवषाणुजन्य संक्रमण (बैक्टिरियल एवं वायरल इन्पेQक्शन) आदि में, परन्तु रक्तचाप, मधुमेह व कोलेस्ट्रॉल आदि को हम दोनों ही पद्धतियों से नियत्रित कर सकते हैं।

रोगनिर्मूलन (Cure)

आधुनिक चिकित्सा-पद्धति में क्योर होने वाले रोगों की संख्या बहुत कम है, जैसे क्षय रोग, कैंसर आदि। आयुर्वेद में डेंगु, हेपेटाईटिस, कोलाइटिस, पेक्रियेटाइटिस (Pancreatitis), ब्रोंकाइटिस (Bronchitis), अर्थराइटिस (Arthritis), सोरियासिस व सिरदर्द से लेकर कैंसर तक हम सैकड़ों रोगों को पूण्ाZतः निर्मूल (क्योर) कर सकते हैं। इसमें आयुर्वेद की भूमिका अधिक श्रेष्ठ है।

रोगों का उग्र अवस्था में उपचार (Acute management)

यद्यपि हृदयाघात, पैरालाइसिस या अन्य दुर्घटना आदि होने पर शल्य चिकित्सा आदि की परिस्थिति में आधुनिक चिकित्सा-पद्धति अधिक प्रभावशाली है। इस क्षेत्र में आयुर्वेद में भी और अधिक अनुंधान की आवश्यकता तथा आयुर्वेदीय शल्य क्रिया को पुनः प्राचीन काल में अंगप्रतिरोपण वाली उन्नत अवस्था तक पहँचाने की आवश्यकता  है।

पुनःस्थापन/शमन चिकित्सा (Rehabilitation/ Palliation)

रिहैब्लिटेशन व पैलीएशन में दोनों ही उपचार प्रक्रियाएं कारगर हैं।

आयुर्वेदीय चिकित्सा हमारे ऋषियों की सहस्रों वर्ष पुरानी, सस्ती, सरल, प्रामाणि्ाक, सुरक्षित एवं वैज्ञानिक धरोहर है। अतः हम अपनी संस्कृति का संरक्षण्ा इस आयुर्वेदीय चिकित्सा के माध्यम से कर सकते हैं। आयुर्वेद को अपनाने से जीवन में सहजता व प्राकृतिकता एवं प्राचीन उच्च जीवन मूल्यों तथा महान् आदर्शो के प्रति रुचि की अभिवृद्धि होती है।

औषधियों की प्राकृतिक एवं सरलतापूर्वक उपलब्धि तथा सुरक्षा

प्रायः अनेक आयुर्वेदीय औषधियाँ हमारे आस-पास रसोई और घर के बगीचे में ही उपलब्ध हो जाती हैं, अतः उनको प्राप्त करना सरल है। इसके अतिरिक्त इनके लिए हमें प्रकृति से जुड़ना पड़ता है व इससे खेत-खलिहान, जंगल, वृक्ष, लताओं व वनस्पतियों के प्रति हमारी रुचि व प्रेम बढ़ता है। जिससे व्यक्ति कृत्रिम जीवन से दूर रहता है तथा आत्मरक्षा हेतु प्रकृति की सुरक्षा भी करता है।

विदेशी मुद्रा की बचत

अपने देश की अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भी इन औषधियों का प्रयोग लाभकारी है; क्योंकि ये सभी औषधियाँ अपने ही देश में उपलब्ध हो जाती हैं, अतः इनको विदेशों से मँगवाने के लिए विदेशी मुद्रा को खर्च नहीं करना पड़ता। इसके अतिरिक्त, आयुर्वेद व जड़ी-बूटी आधारित चिकित्सा विधा को बढ़ाकर हम अपने देश को ही नहीं सम्पूण्ाZ विश्व की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकते हैं तथा राष्ट्रों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में अधिक स्वावलम्बी बना सकते हैं, इससे जड़ी-बूटी के कृषिकरण्ा से कृषकों की आय में वृद्धि होगी तथा प्रकृति व पर्यावरण्ा का संरक्षण्ा भी होगा।

योग व आध्यात्म की पूरक

जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, आयुर्वेद मूलतः एक वैज्ञानिक जीवन पद्धति है तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में भी सहयोग प्रदान करता है, यह सिर्फ धर्म से नहीं अपितु आत्मा से भी जोड़ता है; क्योंकि इसका उद्देश्य भी जीवन के उद्देश्य की भांति, चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति ही है। आयुर्वेद में बताये गये नियम और सिद्धान्त योग के अभ्यास में भी सहायक हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि आयुर्वेदीय चिकित्सा प्रण्ााली अपने आप में सबसे भिन्न और हमारी जीवन पद्धति के सर्वथा अनुरूप है। इसे हम अपने से पृथक् नहीं कर सकते। यह हमारी मूल प्रकृति व प्रवृत्ति है।