आयुर्वेद में ओज को प्राण और जीवन का आधार माना गया है। हमारे शरीर में रोगों से लड़ने की जो प्राकृतिक शक्ति है वो ‘ओज’ से ही मिलती है। रोगों से लड़ने की इस शक्ति को ही रोग प्रतिरोधक क्षमता या इम्युनिटी कहा गया है। इसके अलावा भी ओज के कई गुण हैं। एक तरह से देखें तो आपका पूरा व्यक्तित्व ही ‘ओज’ पर निर्भर है। इसके पूरी तरह खत्म होने का मतलब ‘मृत्यु’ है।
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रस धातु से लेकर शुक्र धातु तक इन सातों धातुओं के सम्मिलत सार को ‘ ओज’ कहा जाता है। चिकित्सकीय भाषा में इसे बल भी कहा जाता है। इसे ऐसे समझें कि जैसे मधुमक्खियाँ फूलों के सार से शहद बनाती हैं। ठीक उसी प्रकार पाचक पित्त और अग्नियाँ, धातुओं के सार से ओज का निर्माण करती हैं।
ओज का पोषण भी धातुओं की ही तरह आहार रस से होता है। ओज का शरीर में निवास स्थान ह्रदय है और ह्रदय से निकलने वाली धमनियों और रक्त वाहिकाओं की मदद से यह पूरे शरीर में फ़ैल जाता है। ओज का ह्रदय में रहने से एक तात्पर्य यह भी है कि हमारे मन व विचारों में जितनी अधिक सात्विकता, पवित्रता, सकारात्मकता, श्रद्धा-भक्ति होगी उतने ही हम अधिक ओजस्वी, तेजस्वी व महान होंगे। इसके अलावा प्राणायाम, ध्यान, साधना और उपासना करने से भी आपका ओज बढ़ता है।
ओज चिकनाई युक्त, लालिमा युक्त, पीलापन लिए हुए सफ़ेद रंग का होता है। आयुर्वेद में ओज के दो प्रकार बताए गये हैं।
आयुर्वेद के अनुसार ‘पर ओज’ की मात्रा आठ बिंदु होती हैं और यह ह्रदय में रहता है। ‘पर ओज’ पूरी तरह खत्म होने पर मृत्यु हो जाती है। इसी तरह ‘अपर ओज’ की मात्रा आधी अन्जुली है और यह पूरे शरीर में मौजूद रहता है। इसकी कमी से बल और उत्साह आदि की कमी होने लगती है और कई रोग उत्पन्न होने लगते हैं। (यहां अंजुली का मतलब दोनों हथेलियों को साथ जोड़ने पर उसमें समा सकने वाली मात्रा से है)।
सभी धातुओं का सार होने की वजह से अगर ओज में कमी है तो फिर धातु भी शरीर को धारण नहीं कर पाते हैं। यह सभी धातुओं को स्थिर रखता है और उनका पोषण करता है। इस ओज के कारण ही सभी शारीरिक, मानसिक कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को काम करने की क्षमता मिलती है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी इसी ओज के कारण बनती है।
हमारे शरीर के ऑटो इम्यून सिस्टम को भो ओज से ही सहारा मिलता है। इसका मतलब कि शरीर में जितना अधिक ओज होगा उतनी ही ज्यादा इम्युनिटी मजबूत होगी और आप बीमारियों से दूर रहेंगे। सुख, दुःख, धैर्य और साहस आदि सब ओज से उत्पन्न होते हैं। संक्षेप में कहें तो ओज प्राण व जीवन का आधार है।
कुछ विद्वान ओज को उपधातु भी मानते हैं। क्योंकि यह रस आदि धातुओं की तरह शरीर को धारण तो करता है लेकिन कम मात्रा में होने के कारण किसी विशेष धातु का पोषण नहीं करता है।
शरीर में ओज की कमी होने के कई कारण हैं। क्रोध, चिंता, डर, शोक, नुकसान आदि मानसिक अवस्थाएं और एक से अधिक धातुओं की कमी ओज को कम करती हैं। इसी तरह व्रत रखना, कम भोजन करना, रुखा खानपान, ज्यादा मेहनत और देर रात तक जागने से भो ओज कम होता है। इसके अलावा किसी कारणवश कफ, रक्त , शुक्र और मलों का अधिक विसर्जन होने से और रोगों के कारण शरीर में कमजोरी होने पर भी ओज में कमी आती है। ओज की कमी होने पर कई तरह के लक्षण नजर आते हैं। जिनकी पहचान होना बेहद ज़रूरी है।
ओज की कमी होने पर शारीरिक और मानसिक दोनों लक्षण नजर आते हैं। ओज की कमी से मरीज हमेशा दूसरों के सामने डरा-डरा सा रहता है। उसके शरीर में ताकत कम होने लगती है और वो पहले से ज्यादा उदास रहने लगता है। हमेशा चिंता में रहना, ह्रदय व इन्द्रियां का सुस्त तरीके से काम करना भी ओज की कमी का लक्षण है। आपको इनमें से कोई भी लक्षण नजर आ रहे हैं तो इसे अनदेखा ना करें। किसी चिकित्सक की मदद और संतुलित जीवनशैली अपनाकर इन लक्षणों को दूर करने की कोशिश करें।
शरीर में ओज की मात्रा का संतुलित होना बहुत ज़रुरी है। अगर आपके शरीर में ओज की कमी है तो आपको मीठी, चिकनाई युक्त आहार, सात्विक आहार, दूध और अश्वगंधा जैसे अन्य शुक्र को बढ़ाने वाली औषधियों का सेवन करना चाहिए। इसके अलावा मनपसंद और अनुकूल चीजें खाने से भी ओज बढ़ता है। ओज को बढ़ाने के लिए मलों और धातुओं के स्रोतों को भी शुद्ध रखना चाहिए।
ओज बढ़ने से शरीर की ताकत बढ़ती है। इसकी खासियत यह है कि इसकी मात्रा बढ़ने से भी किसी तरह का रोग नहीं होता है। अपने बच्चों को ओज बढ़ाने वाली चीजें खिलाएं जिससे वे आगे चलकर शक्तिशाली और चरित्रवान बनें।
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