हम सब भली-भाँति जानते हैं कि स्वास्थ्य के लिए भोजन का विशेष महत्त्व है। भोजन में क्या क्या खाया जाए, जहां इस बात का महत्त्व है, वहां यह भी जानना बहुत महत्त्व रखता है कि भोजन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में किया जाए? इन सब बातों पर विचार कर तदनुरूप आचरण करके हम भोजन से पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं। भोजन के सन्दर्भ में आयुर्वेदानुसार कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं-
स्निग्ध भोजन1
हमारे भोजन में भी घी, तेल आदि प्राकृतिक स्निग्ध द्रव्य उचित मात्रा में होने चाहिए। आजकल हृदय रोग, ब्लड प्रेशर और मोटापे आदि के डर से प्रायः लोग घी आदि का प्रयोग बिल्कुल न करके रूखा भोजन करते हैं। यह सर्वथा अनुचित है, क्योंकि जहां घी, तेल आदि से भोजन स्वादिष्ठ बनता है और रुचि उत्पन्न होती है, वहीं भोजन मुलायम भी बनता है। इससे पाचक अग्नि तीव्र होती है, भोजन सुपाच्य बनता है, बल व आयु की वृद्धि होती है, इंद्रियां दृढ बनती हैं और रंग में निखार आता है। घी आदि स्निग्ध पदार्थ़ों के सेवन से वात का अनुलोमन होता है और मल विसर्जन में भी सुविधा होती है। अतः घी का सर्वथा त्याग करने की अपेक्षा आरामतलबी का त्याग कर श्रमशीलता व व्यायामशीलता अपनानी चाहिए। ऐसा करने पर स्निग्ध भोजन के लाभ से वञ्चित नहीं होना पड़ेगा।
ताजा और गर्म भोजन2
भोजन हमेशा ताजा और गर्म होना चाहिए। ऐसा भोजन स्वादिष्ठ होने के साथ पाचक, अग्नि को बढ़ाने वाला, सुपाच्य और वात का अनुलोमक होता है। यह पौष्टिक भी होता है, जबकि बासी और ठण्डा भोजन भारी, तामसिक और अपौष्टिक होता है। आयुर्वेद के अनुसार आहार को फ्रिज आदि में रखकर बाद में गर्म करके खाना उचित नहीं है, न ही प्रिजर्बेटिव्स (Preservatives) आदि पदार्थ डालकर भोजन को सुरक्षित रखने और डिब्बाबन्द पेय, केक, पेस्ट्रीज आदि के सेवन को उचित माना है। आज दुनिया में महामारी की तरह बढ़ते हुए मोटापे का कारण भी जंक फूड, फास्ट फूड व डिब्बा बन्द फूड है; इस विषय में हम सब को ध्यान देना चाहिए; क्योंकि दुनिया में अधिकांश रोग अनुचित आहार-सेवन से ही उत्पन्न होते हैं। शात्रों में प्राकृतिक (फल, जूस) एवं ताजा बने भोजन के सेवन को उत्तम माना है।
भोजन की सुन्दरता
भोजन का रंग, गन्ध, स्वाद तथा स्पर्श रुचिकर होना चाहिये और देखते ही भोजन के प्रति रुचि का अनुभव होना चाहिए। इस प्रकार दूसरे पाचक रसों का स्राव भी अनुकूल रूप से होता है। अतः भोजन में रुचि बढ़ाने के लिए भोजन और पात्रों का स्वच्छ, सुन्दर और आकर्षक होना आवश्यक है। रोगी के लिए तो इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि निरन्तर एक प्रकार का पथ्य भोजन खाने से उसमें अरुचि उत्पन्न हो सकती है।
सुन्दर और एकान्त स्थान
भोजन के साथ-साथ उसके सेवन के लिए स्थान भी साफ-सुथरा, सुन्दर, आकर्षक और एकान्त होना चाहिए, परन्तु यदि उस स्थान पर अन्य लोग हों तो सभी लोग साथ में भोजन करने वाले होने चाहिए। पवित्र और सुन्दर स्थान में मन शान्त रहता है; जबकि गंदे और अपवित्र स्थान पर बैठने से मन में अशान्ति होती है।
इसका भोजन के पाचन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। भोजन-सेवन की क्रिया को एक पवित्र धार्मिक अग्निहोत्ररूप क्रिया समझ कर करना चाहिए। अतः इस समय मन पूरी तरह एकाग्र होना चाहिए। भोजन करते समय बातें करने, टेलीविजन देखने, टेलीफोन सुनने आदि से दूर ही रहना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार जूते आदि पहनकर भोजन का निषेध किया गया है। जूतों के कारण पैरों की उष्णता हमारे जठराग्नि को मन्द करती है, इससे अनेक रोग हो सकते हैं; इसलिए आयुर्वेद में भोजन करने से पहले हाथ-पैर धोने और जमीन पर बैठकर भोजन करने का विधान है। खड़े-खड़े भोजन नहीं करना चाहिए। घर में पहले परम इष्ट देव व भोजन को देने वाले परमात्मा का ध्यान करके तथा उसे धन्यवाद देकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन के पहले आचमन अर्थात् दो-तीन घूंट जल पीना चाहिए। जिससे गले की कफनिवृत्ति एवं जठराग्नि की वृद्धि होती है। फिर शान्तिपूर्वक जो अन्न हाथ से खाया जा सकता हो उसे हाथ से ही खाना चाहिए। इससे जहां भोजन के ठण्डा, गर्म होने का पता चलता है, वहीं हाथों के स्पर्श से भोजन के प्रति पेम व रुचि भी बढ़ती है। यदि जमीन के आसन पर बैठकर भोजन नहीं कर सकते हैं तो कुर्सी आदि पर बैठकर भोजन किया जा सकता है, परन्तु खड़े-खड़े या चलते हुए तो कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।
मानसिक दशा
भोजन हमेशा शान्त और प्रसन्न मन से ग्रहण करना चाहिए । क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, घबराहट, डर आदि की दशा में जहां भोजन का स्वाद नहीं आता, वहीं पाचक रसों का स्राव भी ठीक प्रकार से नहीं हो पाता । इससे भोजन का पाचन समुचित रूप से नहीं हो पाता। अतः भोजन करते समय किसी प्रकार की अप्रिय चर्चा नहीं करनी चाहिए और न ही सुननी और देखनी चाहिए।
भोजन का उचित समय
कालभोजनम्-आरोग्यकराणाम् (चरक- संहिता, सूत्रस्थान- 25.40), समय पर भोजन करना आरोग्य के लिए श्रेष्ठ उपाय है। भोजन के ठीक प्रकार से पाचन के लिए आवश्यक है कि इसका सेवन ठीक और नियत समय पर किया जाए । उचित समय पहचानने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। जब भूख का अनुभव हो, पहले किया गया भोजन अच्छी तरह से पच चुका हो, जब हृदय और पेट में भारीपन न हो, वात का अनुलोमन हो जाए एवं मल-मूत्र का त्याग हो चुका हो, तब भोजन करना चाहिए। अन्यथा पूर्वभोजन का अधपचा रस और किये जा रहे भोजन का रस आपस में मिलकर सभी दोषों को कुपित कर देंगे और रोगों की उत्पत्ति होगी। पित्तवृद्धि के समय- मध्याह्न (12 से 2 बजे तक के समय) में भोजन किया जाए तो इससे भोजन शीघ और अधिक अंश में पचता है। परिणामतः शरीर अधिक पुष्ट होता है।
ऐसा देखने में आता है कि भोजन का निश्चित समय आने पर अपने आप ही कुछ खाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इस समय भोजन अवश्य कर लेना चाहिए, क्योंकि तब पाचक रसों का स्राव पर्याप्त मात्रा में होता है।
यदि ऐसे समय भोजन न किया जाए तो पित्त कुपित हो जाता है तथा शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार नियत समय बीत जाने के बाद वात का प्रकोप हो जाता है, इससे पाचन शक्ति मन्द हो जाती है, ऐसे में भोजन का पाचन ठीक तरह से नहीं होता ।
यदि भूख लगने पर भी भोजन न किया जाए, तो शरीर में कमजोरी, कृशता, अंगमर्द (शरीर का दर्द से टूटना), तद्रा (सुस्ती), थकावट, अरुचि, त्वचा के रंग में बदलाव, दृष्टि में कमी आदि विकार उत्पन्न होने लगते हैं, अतः उचित और नियत समय पर भोजन करना आवश्यक है।
भोजन की मात्रा
पूरे पोषक-तत्त्व प्राप्त करने के लिए भोजन का सेवन संतुलित मात्रा में करना चाहिए। भोजन के बाद पेट का एक तिहाई भाग खाली रहना चाहिए, जिससे पाचक रस और कफ भोजन के साथ अच्छी तरह मिल कर उसका पाचन कर सकें और वात की गति भी ठीक प्रकार से हो सके। भोजन के पश्चात् यदि पेट में दबाव व भारीपन और पार्श्वो में तनाव न हो, छाती में रुकावट और भारीपन न हों, भूख-प्यास शान्त हो, उठने बैठने, सोने, चलने, हँसने, श्वास लेने और छोड़ने, एवं बातचीत करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो तो समझना चाहिए कि भोजन की मात्रा उचित है। इसी प्रकार प्रातः ग्रहण किये भोजन का सायंकाल तक तथा सायंकाल ग्रहण किये गये भोजन का प्रातःकाल तक अच्छी तरह पाचन हो जाए, वात का अनुलोमन हो जाये तथा दोष, धातु, मल में किसी प्रकार का विकार न हो, तो समझना चाहिए कि भोजन उचित मात्रा में लिया गया है।
भोजन की मात्रा का निर्णय करने के लिए मनुष्य को अपनी प्रकृति, आयु, पाचक-अग्नि की शक्ति, द्रव्यों का लघुत्व (हल्कापन) और अग्नि की तीव्रता पर विचार करना चाहिए। अच्छी पाचन-शक्ति होने पर यदि कुछ अधिक मात्रा में या भारी भोजन भी ले लेंगे तो अधिक कष्ट नहीं होगा, जबकि मन्द अग्नि वाला व्यक्ति थोड़ा भी अधिक या भारी भोजन कर ले, तो उसे कष्ट उठाना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि स्वभाव से ही लघु पदार्थ़ों जैसे मूंग, शालि चावल आदि का कुछ अधिक मात्रा में सेवन कर लिया जाए, तो कष्ट नहीं होता, परन्तु बहुत अधिक मात्रा में सेवन करने पर ये पदार्थ भी भारी पदार्थ़ों की तरह पचेंगे नहीं। यदि उड़द जैसे भारी पदार्थ़ों का सेवन थोड़ी मात्रा में किया जाए या अजवायन, हींग आदि डाल कर उन्हें भी सुपाच्य बना लिया जाए, तो ये भारी पदार्थ भी शीघ पच जाते हैं। अतः इन सब बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। संक्षेप में- आवश्यकता से कम मात्रा में किया गया भोजन सन्तोष तृप्ति व पूरी ऊर्जा प्रदान नहीं कर पाता है, जबकि अधिक मात्रा में किया गया भोजन आलस्य, भारीपन, मोटापा और अपच आदि विकार उत्पन्न करता है। अतः भूख लगने पर व्यक्ति को अपनी पाचन-शक्ति के अनुरूप, न कम, न अधिक, अपितु मित अर्थात् नपा तुला भोजन करना चाहिए ।
भोजन चबा कर खाना
सबसे पहले भोजन मुख में जाता है, जहाँ इसमें लालास्राव (Saliva) मिलता है। भोजन को दाँतों से जितना अधिक चबाया जाता है, उतना ही अधिक उसमें लार का स्राव मिल जाता है। इससे ठोस पदार्थ द्रव रूप में बदल जाता है तथा भोजन की पाचन क्रिया सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाती है। इसके विपरीत, ठीक प्रकार न चबाने से ठोस व कठोर पदार्थ ही निगल लिये जाते हैं। इनको आमाशय आदि कोमल अंग समुचित रूप से मुलायम नहीं बना पाते । परिणामस्वरूप, एक तो आमाशय आदि अंगों को अधिक मेहनत करनी पडती है, जिससे वे कमजोर हो जाते हैं; दूसरे, भोजन का पाचन पूरी तरह से नहीं हो पाता और अजीर्ण, कब्ज, गैस जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अतः चबा कर मुलायम किया हुआ ही भोजन निगलना चाहिए। बिना चबाये ठोस पदार्थ के रूप में नहीं । हमारे यहाँ कहा गया है कि ’ठोस पदार्थ को पियो, तरल को चबाकर खाओ‘ अर्थात् ठोस को तब तक चबाओ जब तक वह तरल पेय जैसा न बन जाये। इसी प्रकार तरल पदार्थ इतना धीरे-धीरे पियो कि लगे- चबाकर खा रहे हैं। ऐसा करने पर इनका पाचन सरलता से हो जाता है।
भोजन का सात्म्य3
सात्म्य का अर्थ है – अनुकूलता। एक पदार्थ किसी एक व्यक्ति के लिए लाभकारी हो सकता है, तो दूसरे के लिए प्रतिकूल (असात्म्य) और हरक भी हो सकता है। यह ज्ञान मनुष्य को अपनी प्रकृति और अनुभव के आधार पर ही हो सकता है। भोजन से पूरे पोषक-तत्त्व प्राप्त करने के लिए अनुकूल भोजन का सेवन ही उचित है, जबकि प्रतिकूल पदार्थ लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकते हैं। भोजन की अनुकूलता (सात्म्यता) निम्नलिखित प्रकार की है।
| प्रकृति के आधार पर पथ्य आहार का चयन | ||||
| दोष | अनुकूल आहार | प्रतिकूल आहार | ||
| आहार रस | आहार के गुण | आहार रस | आहार के गुण | |
| मधुर | गुरू | कटु | लघु | |
| वात | अम्ल | स्निग्ध | तिक्त | रूक्ष |
| लवण | उष्ण | कषाय | शीत | |
| मधुर | शीत | कटु | उष्ण | |
| पित्त | तिक्त | गुरू | अम्ल | लघु |
| कषाय | रूक्ष | लवण | स्निग्ध | |
| कटु | लघु | मधुर | गुरू | |
| कफ | तिक्त | रूक्ष | अम्ल | स्निग्ध |
| कषाय | उष्ण | लवण | शीत | |
इन बातों को ध्यान में रख कर किया गया भोजन स्वास्थ्य की रक्षा करता है और रोगों से बचाता है।
भोजन करते समय यदि इन सब नियमों का पालन किया जाए, तो ऐसा भोजन शरीर को पुष्ट करता है। सभी दोषों और धातुओं को स्वस्थ अवस्था में रखता है और मल-मूत्र आदि के ठीक प्रकार से विसर्जन में सहायक होता है। ये भोजन-सम्बन्धी सब नियम मिल कर ही आहार-संहिता कहलाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को भोजन ग्रहण करने के कार्य को बहुत महत्त्वपूर्ण और निजी कार्य समझना चाहिए । अपने व्यस्त जीवन में से भोजन का समय अपने लिए सुरक्षित रखना चाहिए और इस व्यक्तिगत कार्य को बहुत श्रद्धा और एकाग्रता से करना चाहिए ।
इस प्रकार पथ्य और उचित आहार लेने वाला व्यक्ति पहले तो रोगी ही नहीं होता, यदि किसी कारणवश हो भी जाए, तो परहेज पूर्वक भोजन से रोग बढ़ता नहीं और स्वतः ठीक हो जाता हैं। इस प्रकार औषधि की आवश्यकता नहीं होती। इसके विपरीत यदि मनुष्य अच्छी से अच्छी औषधि का सेवन तो करता है, परन्तु पथ्य-परहेज नहीं करता, तो भी रोग ठीक नहीं होता, उसकी औषधि व्यर्थ हो जाती है। गलत आहार-विहार (अपथ्य) रोग बढ़ाने में कारण हैं, और कारण को दूर किये बिना रोग नष्ट नहीं हो सकता। इसीलिए आयुर्वेद में कहा गया है कि- ’परहेज करने वाले रोगी को औषधि की क्या आवश्यकता? और परहेज न करने वाले रोगी को भी औषधि सेवन से क्या लाभ?‘-
पथ्ये सति गदार्त्तस्य किमौषधनिषेवणै। पथ्ये।़सति गदार्त्तस्य किमौषधनिषेवणै।।
इसी बात को दूसरे शब्दों में निम्न श्लोक द्वारा भी प्रकट किया गया है-
विनापि भेषजैर्व्याधिः पथ्यादेव निवर्तते। न तु पथ्यविहीनस्य भेषजानां शतैरपि।।
अर्थात् औषधि के बिना भी रोग केवल पथ्य-सेवन से दूर हो जाता है। परन्तु यदि रोगी द्वारा अपथ्य छोड़कर पथ्य-सेवन न किया जाए, तो सैकड़ों दवाओं से भी रोग नष्ट नहीं हो सकता।
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