वर्तमान समय में चिकित्सा की कई प्रणालियाँ मौजूद हैं जिनमें ऐलोपैथी, आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी प्रमुख हैं। अधिकांश लोग ऐलोपैथिक डॉक्टरों से ही अपना इलाज करवाते हैं। लोग डॉक्टर के पास तभी जाते हैं जब उन्हें कोई गंभीर बीमारी हुई हो या फिर कई दिनों से कोई समस्या ठीक ना हो रही हो। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आयुर्वेदिक चिकिसक के पास आपको कब जाना चाहिए?
आयुर्वेद की चिकित्सा प्रणाली एलोपैथी से बहुत अलग है। आयुर्वेद चिकित्सा के दो मुख्य उद्देश्य हैं, पहला ये कि मरीज की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ाना जिससे उसे कोई रोग ना हो। और दूसरा यदि मरीज को कोई रोग है तो उसका संपूर्ण इलाज करना। दरअसल आयुर्वेद में रोग के लक्षणों से तुरंत आराम दिलाने की बजाय मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाने पर ज्यादा जोर दिया जाता है। जिससे भविष्य में मरीज निरोग रह सकें।
हालांकि ऐसा करने के लिए सिर्फ़ आयुर्वेदिक दवाइयां काफ़ी नहीं होती हैं बल्कि आपके खानपान और जीवनशैली में भी कई बड़े बदलाव लाना ज़रूरी होता है। इन सब पहलुओं का ध्यान रखें बिना आप आयुर्वेद में बताए गए सारे फायदों को हासिल नहीं कर सकते हैं। आहार-विहार से जुड़े इन नियमों को समझने के लिए ही आयुर्वेदिक विशेषज्ञ की ज़रूरत पड़ती है।
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बिना बीमार हुए ही जाएं आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास
यह ज़रूरी नहीं कि आपको कोई गंभीर समस्या हुई हो तभी आप आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाएं बल्कि अपने दोषों की अवस्था, प्रकृति और जीवनशैली से जुड़ी जानकारी के लिए भी आप चिकित्सक से परामर्श ले सकते हैं। आइये इन पहलुओं पर विस्तार से नज़र डालते हैं :
दोषों की जानकारी के लिए
आयुर्वेद में दोषों (वात-पित्त-कफ) का बहुत महत्व है और इन्हीं के आधार पर रोगों की पहचान की जाती है। शरीर में दोषों के असंतुलन से कई तरह के रोग उत्पन्न होने लगते हैं। दोषों की सटीक जानकारी के लिए आपको आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाना चाहिए।
जैसे कि सर्दियों में आमतौर पर कफ बढ़ जाता है जिससे सर्दी-जुकाम आदि समस्याएं होने लगती हैं। ऐसे में अगर आप सर्दियों की शुरूआत से ही कफ को संतुलित रखने वाले खानपान और जीवनशैली का पालन करें तो सर्दियों के मौसम में आपको कोई समस्या नहीं होगी। ऐसी जानकारियों के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाना ज़रूरी होता है।
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प्रकृति की जानकारी के लिए
दोषों के साथ साथ आपको अपनी प्रकृति की भी जानकारी होनी चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार हमारी प्रकृति का निर्धारण जन्म के समय ही हो जाता है। इसी प्रकृति के अनुसार ही आपको खानपान और दिनचर्या अपनानी चाहिए।
जैसे कि यदि आप पित्त प्रकृति के हैं तो आपको तीखे और मसालेदार चीजों से परहेज करना चाहिए और ऐसे आहार का सेवन करना चाहिए जो पित्त को शांत करते हों। जब तक आपको अपनी प्रकृति का पता नहीं होगा, ख़ुद को बीमारियों से निरोग रखना काफ़ी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में आयुर्वेदिक चिकित्सक आपको यह बता सकते हैं कि आप किस प्रकृति के हैं और आपको अपना खानपान कैसा रखना चाहिए।
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मौसम के अनुसार खानपान और रहन सहन की जानकारी के लिए
आयुर्वेद में हर मौसम के हिसाब से खानपान और रहन सहन के तरीके बताए गए हैं जो शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक हैं। जैसे कि सर्दियों के दिनों में गर्म तासीर वाली चीजें खानी चाहिए, गुनगुना पानी पीना चाहिए इत्यादि। मौसम के अनुसार खानपान ना होने से भी कई रोग होने लगते हैं। आपने देखा होगा गर्मियों के मौसम में अधिकांश लोग डायरिया, हैजा आदि से पीड़ित हो जाते हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सक की मदद से आप इन रोगों से ख़ुद का बचाव कर सकते हैं और निरोग रह सकते हैं।
पढ़ें : मौसम के अनुसार खानपान और जीवनशैली
नाड़ी परीक्षण के लिए
रोगों की पहचान के लिए आयुर्वेद में नाड़ी परीक्षण किया जाता है। इसके अंतर्गत आपकी नाड़ी को छूकर ही शारीरिक रोगों का पता लगाया जाता है। प्राचीन समय से ही रोगों की जांच करने का यह एक प्रचलित तरीका रहा है। अगर आप किसी रोग से पीड़ित हैं या आपको समझ नहीं आ रहा है कि यह बीमारी किस वजह से हुई है तो नजदीकी आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाकर अपना नाड़ी परीक्षण करवाएं।
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पंचकर्म के लिए
कई ऐसी गंभीर बीमारियां होती हैं जो इलाज के बाद भी बार बार शरीर में पनप जाती हैं। इन गंभीर रोगों की चिकित्सा के लिए आयुर्वेद में पंचकर्म चिकित्सा का उल्लेख है। इस प्रक्रिया के तहत शरीर को अंदर से शुद्ध किया जाता है। अगर आप भी किसी गंभीर रोग से पीड़ित हैं तो आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाकर पंचकर्म की मदद से अपना इलाज करवा सकते हैं। यह प्रक्रिया पुराने कब्ज़, खांसी, अस्थमा, एनीमिया, साइनस, कुष्ठ, मिरगी आदि कई गंभीर रोगों में लाभकारी है।
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