प्रायः सभी ने अनुभव किया होगा कि इस विश्व में मनुष्य तो क्या, तुच्छ से तुच्छ जीव भी सदा रोग, वियोग, नुकसान, अपमान व अज्ञान से होने वाले दुखों से बचने की कोशिश करता है और सुख प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि जब से सृष्टि की रचना हुई है, तभी से मनुष्य भूख, प्यास, नींद आदि स्वाभाविक इच्छाओं को पूरा करने एवं शारीरिक व्याधियों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्नशील रहा है। इसी क्रम में सबसे पहले आयुर्वेद का उद्भव हुआ। आजकल हम ऐलोपैथी (आधुनिक चिकित्सा-पद्धति), होम्योपैथी, नैचुरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा), रेकी, आदि अनेक प्रकार की चिकित्सा-पद्धतियों का प्रयोग करते हैं, परन्तु आयुर्वेदिक पद्धति सहस्रों वर्ष़ों से हमारे जीवन में रची बसी हुई है।
हम अपने दैनिक जीवन में देखते-सुनते हैं कि किसी को पेट दर्द होने पर या गैस होने पर अजवायन, हींग आदि लेने को कहा जाता है; खाँसी-जुकाम, गला खराब होने पर कहा जाता है कि ठण्डा पानी न पियो; अदरक, तुलसी की चाय, तुलसी एवं काली मिर्च या शहद और अदरक का रस, अथवा दूध व हल्दी ले लो, आदि। अमुक चीज की प्रकृति ठण्डी है या गर्म, इस प्रकार के सभी निर्देश आयुर्वेद के ही अंग हैं। इस प्रकार हम अपने बुजुर्गों से पीढ़ी दर पीढ़ी घर में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ़ों के औषधीय गुणों के विषय में सीखते चले आ रहे हैं। हमें अपने घर के आँगन अथवा रसोई घर से ही ऐसे अनेक पदार्थ मिल जाते हैं, जिन्हें हम औषधि के रूप में प्रयुक्त कर सकते हैं। इस प्रकार हम इस आयुर्वेदीय पद्धति को अपने जीवन से अलग कर ही नहीं सकते ।
प्रश्न उठता है कि जो ’आयुर्वेद‘ हमारे जीवन में इतना घर कर चुका है, वह वास्तव में है क्या? इसको समझने के लिए आयुर्वेद शब्द की व्युत्पत्ति को जानना होगा। यह शब्द ’आयुष्$वेद‘ इन दो शब्दों के मेल से बना है। ’आयुष्‘ का अर्थ है-’जीवन‘, तथा ’वेद‘ का अर्थ है -विज्ञानं ‘1।
इस प्रकार, ’आयुर्वेद‘ शब्द का अर्थ हुआ-’जीवन का विज्ञान‘। साधारण भाषा में कहें तो जीवन को ठीक प्रकार से जीने का विज्ञान ही आयुर्वेद है, क्योंकि यह विज्ञान केवल रोगों की चिकित्सा या रोगों का ही ज्ञान प्रदान नहीं करता, अपितु जीवन जीने के लिए सभी प्रकार के आवश्यक ज्ञान की प्राप्ति कराता है।
बहुत सीमित अर्थ में ही हम इसे एक चिकित्सा प्रणाली भी कह सकते हैं, क्योंकि यह स्वास्थ्य-रक्षा और रोग- निवारण, दोनों के लिए व्यवस्थित और क्रमबद्ध ज्ञान भी प्रस्तुत करता है। वास्तव में यह विज्ञान मनुष्य ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र के कल्याण के लिए ही उनके शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक सभी पक्षों पर प्रभाव डालता है। महर्षि चरक ने ’चरक-संहिता‘ नामक ग्रन्थ में आयुर्वेद की परिभाषा देते हुए भी कहा है – जिसमें हित आयु, अहित-आयु, सुख आयु और दुख आयु का वर्णन हो, उस आयु के लिए हितकर (पथ्य) व अहितकर (अपथ्य) द्रव्य, गुण, कर्म का भी वर्णन हो एवं आयु का मान (प्रमाण या अवधि) व उसके लक्षणों का वर्णन हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं2। इससे स्पष्ट होता है कि आयुर्वेद के ये सिद्धान्त किसी विशेष व्यक्ति, जाति या देश तक सीमित नहीं हैं, ये सार्वभौम3 (सभी जगह लागू होने वाले) हैं। जिस प्रकार जीवन सत्य है, उसी प्रकार ये सिद्धान्त और नियम भी सभी स्थानों पर मान्य और सत्य हैं, अतः शाश्वत, सार्वभौम एवं सर्वजनीन हैं। इनमें ’सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः‘ अर्थात् ’सभी सुखी हों और सभी निरोग हों‘ का भाव निहित है। निष्कर्ष के रूप में आयुर्वेद एक चिकित्सा-पद्धति होने के साथ-साथ एक संपूर्ण जीवन-पद्धति व साधना-पद्धति भी है।
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